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कल श्री कृष्ण जन्माष्टमी है। आनंद श्रीकांत के उत्साह से उत्साहित है। वह
पुराने लोहे के बक्से से अपने खिलौने निकाल रहा है। चीनी मिट्टी के बने खिलौने,
कच्ची मिट्टी के बने खिलौने, प्लॉस्टिक के खिलौने, छोटी-छोटी कारें, ट्रैफिक पुलिस
और भी बहुत से खिलौने! उसने जब भगवान शंकर की मूर्ति निकाली तो
आनंद खुशी से चीख पड़ा…
इन जटाओं से फुहारा निकलता है न?
हां, लेकिन मुझे नहीं आता।
मेरे भैया तो निकाल देते हैं! तुमने देखा नहीं था मेरे घर में पिछले साल? भैया कह रहे थे शिव जी की जटा से गंगा जी निकल रही हैं!
देखा था लेकिन मुझे नहीं आता। तुम्हें आता है? वे पहाड़ कैसे बनाते हैं ! जिसे ‘कैलाश पर्वत’ की शक्ल देकर ‘शिव जी’ को
रखते हैं?
झाँवाँ लाते हैं।
यह कहाँ मिलता है?
मैं जानता हूँ । वे राजघाट रेलवे स्टेशन से बोरे में भरकर लाते हैं। अरे,
जो पत्थर का कोयला या ईंट जल जाती है उसी को तो झाँवाँ कहते कहते हैं। जहाँ ईँट का
भट्टा हो वहाँ भी मिलता है ।
तुम्हारे पास तो बड़े भइया हैं, मैं तो अकेला हूँ। मेरे भी भैया होते तो
तुम्हारे घर से अच्छी जन्माष्टमी सजाता। देखो! मेरे पास कितने सुंदर खिलौने हैं!
अकेले क्यों हो? ताई नहीं हैं? और मैं भी तो हूँ ! चलो इस बार हम तुम
दोनो मिलकर जन्माष्टमी सजायेंगे।
तुम अपने घर नहीं सजाओगे?
अपने घर ? उंह! भैया मुझे सजाने ही नहीं देते। वे और उनके गंदे वाले दोस्त! मुझे तो सिर्फ ये लाओ, वो लाओ, काम ही बताते रहते हैं। सड़क बनाना हो तो
गंगाजी से बालू मैं लेकर आऊं, बगीचा बनाने के लिए रंगीन बुरादे चलनी से छान-छान कर
मैं साफ करूँ, जब सजाने की बारी आये तो मुझे डांटकर भगा देते हैं। कहते हैं, “तुम खराब कर दोगे।“
यह बात है! तब तो बड़ा मजा आयेगा हम तुम दोनो मिलकर इस
बार जन्माष्टमी मनाते हैं।
हाँ, हाँ, ठीक है। लेकिन यह तो सोचो कहाँ सजायेंगे?
नीचे, राम मंदिर में इतनी अच्छी जगह तो है ही।
हाँ, हाँ ठीक रहेगा। वह जगह तो हमेशा साफ-सुथरी रहती है।
ताई को बता दें ? (खुशी से दौड़कर बड़ी बहन को बुलाते हुए) ताई-ताई, इस बार आनंद भी हमारे साथ खिलौने सजायेगा।J
(श्री कांत से 5 वर्ष बड़ी दीदी भी इस खबर को
सुनकर प्रसन्न हो गई।)
ठीक है लेकिन तुम लोग आपस में झगड़ना मत। आनंद के भैया उसे बुलाकर ले गये
तो ?
उन्हें बतायेंगे ही नहीं। वो आयेंगे तो कह देना आनंद यहाँ नहीं है।
ठीक है, यह सही रहेगा।
चलो हम लोग रेलवे स्टेशन से झाँवाँ बीन कर लाते हैं।
सुनते ही दीदी डर गईं। उतनी दूर जाओगे! ‘आई’ को पता चल गया तो बहुत मारेंगी ।
पता चलेगा तब न? और जब पहाड़ सजेगा, शंकर भगवान की मूर्ति से गंगा जी निकलेंगी तब देखकर
कितनी खुश होंगी !
हाँ, हाँ, खूब मजा आयेगा।
ताई! तुम बिलकुल चिंता मत करो। हम लोग एक घंटे
में आते हैं। तब तक तुम सभी खिलौनों की साफ-सफाई कर दो और एक लिस्ट बना कर रखना कि
क्या-क्या लाना है।
ठीक है।
ताई की सहमति से खुश श्रीकांत और आनंद दोनो एक बड़ा सा बोरा लेकर निकल
पड़े झाँवे की तलाश में। रास्ते में आनंद ने अपने घर से भैया की साइकिल भी पार कर
दी। कभी आनंद साइकिल चलाता कभी श्रीकांत। रेलवे स्टेशन दोनो के घर से कम से कम
चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर था। दोनो मित्र प्लेटफॉर्म से आगे जहाँ पटरियाँ शुरू
होती हैं, एक-एक कर रेलवे इंजन से गिरने वाले जले हुए पत्थर के कोयले को खूब ठोंक
बजाकर देखते और अपने झोले में ऐसे सहेजते मानो कोई जौहरी हीरे के टुकड़े सहेज़ रहा
हो। समय का खयाल न रहा। होश तब आया जब झोला झाँवे से भारी हो चुका था।
चलो, इतना बहुत है। इससे अधिक हम ले भी नहीं जा सकते।
हाँ, हाँ चलो। शाम होने को आई और हम अभी पहाड़ ही बटोर रहे हैं।
जैसे तैसे साइकिल के कैरियर में बोरी लाद-फाँद कर दोनो घर पहुँचे तो थककर
चूर हो चुके थे। पहुँचते ही ताई ने झिड़की लगाई...
आनंद! तुम्हारे भैया दो बार आकर पूछ चुके हैं।
बड़ी देर लगा दी तुम दोनो ने?
उन्हें ढूँढने दो। देर तो हो ही गई लेकिन हमें अभी बहुत से काम करने हैं।
खिलौने तो मैने सभी सफा कर दिये लेकिन बहुत कम हैं। आई कह रही थीं अशोक के
पत्ते भी लाने हैं। कंदब या कंरौदे की टहनियाँ, केले के छोटे-छोटे खंभे और
फूल-मालाएं भी लानी हैं बाजार से। ये बीस रूपये दिये हैं आई ने। मैं तुम दोनो को
अपने पास से भी बीस रूपये देती हूँ। कुछ खिलौने लेते आना। ट्रैफिक पुलिस की मुंडी
टूटी हुई है। घोड़े वाला ट्रैफिक पुलिस, इक्के और कुछ प्लॉस्टिक की कुर्सियाँ भी
लेते आना। मेरी सुंदर गुड़िया कहाँ बैठेगी?
ये सब तो कल सुबह ले आयेंगे। पहले आज झाँवे से एक कोने में पहाड़ बना दें
और उस पर भोले बाबा को रखकर रामू काका को पकड़ लायें। वे किसी बिजली मिस्त्री से
कहकर मूर्ति से फुहारे निकालने का इंतजाम कर देंगे। झालर भी सजा देंगे।
श्रीकांत चहका..हाँ यह ठीक रहेगा। चलो...
तीनो ने मिलकर देखते ही देखते सुंदर पहाड़ सजा दिये। कहीँ-कहीँ गुफाएं भी
बना दीं जिसमें मिट्टी के शेर भी बिठा दिये। रामू काका ने फुहारे निकलने और पानी
गिरने के लिए छोटा सा तालाब भी बना दिया। ताई ने रंगोली सजा दी। तब तक अंधेरा हो
चुका था। आनंद ने कहा...
अब रात हो चुकी है। पिताजी के आने का समय हो चुका है। कल सुबह-सुबह गंगा
जी से बालू ले आयेंगे सड़क बनाने के लिए। बगीचे के लिए बुरादे भी लाने हैं। मैं
चलता हूँ।
श्रीकांत चहका..सुबह बहुत से काम करने हैं। जल्दी आ जाना।
आनंद जब घर अपने घर पहुँचा तो उसके भैया और उनके दोस्त वही सब कर रहे थे
जो उसने श्रीकांत के घर किया था। उन्होंने सुंदर एक्वेरियम भी सजाई थी जिसमें
रंगीन मछलियाँ तैर रही थीं। आनंद को देखते ही भैया का पारा सातवें आसमान पर जा
पहुँचा...
अभी आ रहे हो? कहाँ थे दिनभर? कल तुम्हें यहाँ झांकने भी नहीं दुंगा। यहाँ इतना सारा काम बिखरा पड़ा है
और ये जनाब किसी शतरंज की अड़ी में बैठे शतरंज खेल रहे होंगे। रामनाथ हार गइलन,घोड़ा भागल टी री री री...
आनंद ने कोई जवाब नहीं दिया। दौड़कर ऊपर भाग गया और मन ही मन हंसता रहा।
तब तक पिताजी आ गये। पिताजी के सामने आनंद को पीटने की हिम्मत किसी भाइयों की नहीं
थी। सबसे छोटा होने के कारण उसे बड़े भाइयों की पिटाई और बाबूजी का प्यार दोनो
भरपूर मिलता था। खाना खा कर जब वह बिस्तर में गया तो नींद उससे कोसों दूर थी। नींद
आई तो कान्हाँ के सपने उसे दूसरी ही रंगीन दुनियाँ में ले गये। जहाँ गोपाल जी थे
और थी बड़ों के मुंह सुनी उनकी अनगिन शरारतें...
सुबह जब पलकें खुलीं तो नीचे गली में श्रीकांत को चीखते हुए पाया। आनंद को
बरामदे में देखते ही श्रीकांत चीखा...
अभी सोकर उठे हो !
तुम चलो मैं अभी नहा धो कर आता हूँ….
ठीक है। जल्दी आना......
बनारस की गलियों में घर-घर जन्माष्टमी सजाई जाती थी। ये वो दिन थे जब
बड़ों का उत्साह और छोटों की दीवानगी देखते ही बनती थी। ऐसा लगता था जैसे समय कहीं
ठहर सा गया है। किसी को कोई दूसरा काम है ही नहीं। सभी को बस एक ही फिक्र
है...जन्माष्टमी कैसे सजाई जाय! बच्चे अभी भी सजाते हैं लेकिव पहले वाली
फुरसत अब किसी के पास नहीं।
दोनो बाल-मित्र गंगा जी से बालू ले आये। चौखंभा स्थित विशाल गोपाल मंदिर
के द्वार के आस पास लगने वाली दुकाऩों से माला-फूल, गोपाल जी के सुंदर वस्त्र, मोतियों
की माला, केले के छोटे-छोटे खंभे, अशोक के पत्ते और ठठेरी बाजार से थोड़े बहुत
खिलौने खरीद लिये जो वे खरीद सकते थे। उस दिन एक और घटना घटी। अनायास आनंद कि
निगाह भीड़-भाड़ वाली गली में जमीन पर गिरे रूपयों पर पड़ी। उसने लपक कर उसे उठा
लिया और आगे ले जाकर श्रींकात के सामने मुठ्ठी खोल दी...
इतने रूपये कहाँ से मिले?
गली में गिरे थे…
कित्ते हैं?
गिनकर देखते हैं। पूरे 85 रूपये हैं। इतने रूपयों में बहुत से खिलौने आ
जायेंगे।
हाँ, लेकिन आई को पता चल गया तो?
आई को कैसे पता चलेगा?
ताई बता देगी!
ताई को कैसे पता चलेगा?
पागल हो! वो खिलौने देखते ही समझ जायेंगी कि इत्ते
ढेर सारे खिलौने बीस रूपये में नहीं मिल सकते..
कह देना कि आनंद अपने पिताजी से मांगकर लाया था।
हाँ, यह ठीक रहेगा। लेकिन यह झूठ तुम्ही बोलना!
हाँ, हाँ, बोल देंगे! कोई चोरी थोड़े न की है। समझ लेंगे भगवान ने हमारे लिए भेजे हैं।
दोनो खिलौने की दुकान के सामने खड़े हो गये। श्रीकांत खिलौने मोलाने लगा।
आनंद कभी ललचाई निगाहों से खिलौनो को देखता, कभी कंपकपाई उंगलियों से मुठ्ठी ढीली करता-बंद करता। अचानक से बोल पड़ा...
श्रीकांत! गोपाल जी ने पूछा तो ?
गोपाल जी ने?
हां, हां, गोपाल जी ने...गोपाल जी ने पूछा कि तुमने
दूसरे के पैसों से जन्माष्टमी क्यों मनाई तो
? तुमने आई से झूठ
क्यों बोला तो...?
तुम ठीक कह रहे हो लेकिन आखिर हम इन पैसों का करें क्या? जहाँ से उठाया वहीं फिर से गिरा दें
!
नहींsss चलो. वहीं चलते हैं...शायद कोई आदमी अपने गिरे
पैसे ढूँढता हुआ वहाँ आये तो उसे दे देंगे।
चलो!
दोनो बड़ी देर तक ऐसे व्यक्ति की प्रतीक्षा करते रहे जो पैसे ढूँढता दिख
जाये लेकिन उन्हें कोई ना मिला।
अब क्या करें?
ये पैसे तो अब हम घर नहीं ले जा सकते। ऐसा करते हैं इसे इसी दुकानदार को
दे देते हैं। कह देंगे कि कोई आदमी अपने पैसे ढूँढता हुआ यहाँ आये तो उसे दे देना।
हमें यहीं गिरे मिले थे।
लेकिन इस दुकानदार ने उसे नहीं दिये और खुद ही रख लिये तो ?
तो ‘गोपाल जी’ उससे पूछें, हमसे तो बड़े पूछने चले आये थे ! हम सबका ठेका लिये हैं क्या ? :)
दोनो ने पैसे दुकानदार को थमाये। अपनी झोली उठाई और घर की ओर जल्दी-जल्दी
कदम बढ़ाने लगे। जन्माष्टमी की सुंदर झांकी उनके नयनों में सजी थी जहाँ गोपाल
जी की मुस्की देखते ही बनती थी...
जारी....
इस प्रेरणादायक कथा में आप का जन्माष्टमी उत्सव ज्ञान भरपूर दिखाई दे रहा है .
ReplyDeleteसमय के साथ परिवर्तन तो अवश्यम्भावी है . लेकिन आज भी स्कूलों और गलियों में बच्चे उसी उत्साह से मनाते हैं जन्माष्टमी .
जन्माष्टमी की शुभकामनायें पाण्डे जी .
बचपन की याद दिलाता है ये त्यौहार और आज इस पोस्ट के जरिये फिर से एक बार रामनाथ गाथा पढ़ ली:)
ReplyDeleteजन्माष्टमी की हार्दिक बधाई|
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteकथा बताती है कि बच्चे निर्दोष होते हैं,हम ही उनमें जाति और भेदभाव के रंग भरते हैं.
ReplyDelete...गोपालजी सब जानते हैं यह बच्चे तो जान गए,पता नहीं बड़े कब जानेंगे ?
@ तो ‘गोपाल जी’ उससे पूछें, हमसे तो बड़े पूछने चले आये थे ! हम सबका ठेका लिये हैं क्या ?
ReplyDelete- कहाँ गया वह बचपन, कहाँ गये वे लोग? जन्माष्टमी की शुभकामनायें! :)
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (11-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
--
♥ !! जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ !! ♥
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteदोनो भोले और सच्चे बच्चों की कथा मन को भा गई ।
ReplyDeleteजय श्रीकृष्ण!
ReplyDeleteख़ुशी से रो देने का जी हो आया आज। :')
ReplyDeleteआपको इतना आभार जितना मैं दे सकता हूँ।
एक तस्वीर की आस और रहेगी - देखिएगा न किसी के घर में सडकें पहाड़।
कल दिनभर कैमरा लेकर जन्माष्टमी घूमता रहा। बहुत सी तस्वीरें खीची लेकिन वो सीन नहीं उतार पाया जो आप और हम चाहते हैं।:( अभी कल तक छुट्टी हैं देखिये...
Deleteआपकी टीप ने मुझे खुश कर दिया। :)
अविनाश जी बिल्कुल यही टिप्पणी मेरी भी है ,आखरी लाइन पढ़ते पढ़ते लगा की १० -१२ साल की बच्ची बन गई हूं लगा की बस अपने ही घर में हूं और सारी तैयारिया कर रही हूं |
Deleteबहुत छोटी थी तो चाचा लोग बनाते थे याद है मम्मियो की बनारसी साड़ियो से मंदिर सजा दिया जाता था बड़े होने पर भईया करने लगा हम लोग बस सहयोगी होते थे साड़ियो की जगह फूलो झालरों ने ले ली और हम हिमालय ऐसे नहीं बनाते थे दो इटो के बीच लकडिया खड़ी करते और उस पर बोरा डालते थे फिर बाहर से वो चोटिया लगती थी और आटे से उस पर बर्फ बनाई जाती , एक तरफ नदी होता तो दूसरी तरफ बगीचा सड़क चौराहा और टेबल फैन का मोटर निकाल दिया जाता और उस पर साईकिल का पाहिया फीते से जोड़ कर चलती फिरती झाकी बनती थी एक बार झाकी बनी थी की वासुदेव कृष्ण को लेकर जेल से निकलते और यमुना पार करते आगे सब पेंट कर दृश्य बनाया गया था | सभी बच्चे आते देखने के लिए और जब वो बंद होता था तो मिन्नतें करते की एक बार चला कर दिखाइये ना हम भी दूसरो के यहाँ देखने जाते और कहते की हमारा ज्यादा अच्छा सजा है और किसी का हम से अच्छा होता तो कहते की इनका बैठका ज्यादा बड़ा है ना हमरा भी होता तो हम भी बनाते :) बस फोटो की कमी खल रही है | उम्मीद है देवेन्द्र जी जल्द ही अपने ब्लॉग पार लगायेंगे |
ओह करौंदा खाये तो जमाना हो गया जन्माष्टमी पर ही आते थे
Deleteधन्यवाद अंशुमाला जी, आपने पोस्ट को समृद्ध किया।
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुंदर लगी यह कहानी तो। खासकर बच्चों का तर्कसंगत विमर्श।
ReplyDeleteभोले-भाले बचपन में आदमी कितना ईमानदार होता है ,कितना सुन्दर होता है !वाह ! बहुत सुन्दर बचपन की अभिब्यक्ति ! आज से लगभग ४०-४५ साल पहले जब हम टीन येज के थे तो जन्माष्टमी कितने प्रेम और लगन से मनाते थे.आजकल के लडकों-लडकियों की दुनिया टी वी,नेट और मोबाइल की हो गई है.उसी में उनकी सारी ऊर्जा खर्च हो रही है.ये प्रगति है या भटकन पता नहीं.
ReplyDeleteधूम मची है, कान्हा आयो,
ReplyDeleteझाँवा, झाँकी खूब सजायो,
मन का प्रेम, बरस हो सावन,
योगेश्वर को घर ले आयो।
bahut acchi prastuti...bachpan men main bhi dhumdham se manati thi janmastami...
ReplyDeleteये सब झूठ है.
ReplyDeleteमेरा मतलब कि आप इसको काल्पनिक नहीं कह सकते.
हम तो मज़ा ले ले के आपके साथ घूम रहे हैं.
बेहद लाजवाब.
आपका कैमरा कौन सा है और आप कहाँ पर रहते हैं.
मिल सका तो साथ घूमेंगे.
वैसे मैं लखनऊ में रहता हूँ, पर शायद दशहरा राजघाट या उधर ही कहीं....
आपसे मिलके झूम उठूँगा. :)
मन तो अभी से खिल रहा है.
(मुझे आश्चर्य है कि मैं आपके ब्लॉग पर पहली बार आया और आप अजनबी हैं मेरे लिए, पर आपके लेखन से आत्मा तक जुड गया.)
बाह रे जनमास्टमी ! लगा कि खंजन नयन पढ़ रहे हैं !
ReplyDeleteमजा आ गया! हमारे यहाँ झूलन (झाँकी) सावन के आखिरी पाँच दिन मनाया जाता है... ठीक इसी तरह।
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