पक्के महाल में (वरूणा और अस्सी नदी के बीच, गंगा के घाटों पर फैला विस्तृत क्षेत्र पक्का महाल कहलाता है) गलियों में देसी कुत्तों का व घरों की छतों पर बंदरों का आतंक हमेशा से रहा है। ऐसा अक्सर होता था कि सुबह आनंद की नींद अपने छत की मुंडेर से गुजरते बंदरों के काफिले को देखकर टूटती। कभी तो घर के दूसरे सदस्य भी साथ होते, कभी वह अकेला ही होता। जब वह अकेला होता तो बदंरों के लम्बे काफिले को देख कर डर के मारे घिघ्घी बंध जाती। चुपचाप आँखें बंद कर लेटे रहने और खुद को गहरी नींद में सोता हुआ दिखाने के अलावा दूसरा कोई चारा न होता। बंदर भी यहीं के माहौल की उपज थे। बिलावजह किसी को नहीं काटते थे मगर क्या मजाल कि आप उनके सामने बैठकर भोजन कर लें ! क्या मजाल कि आप कोई कपड़ा छत पर डाल दें और वह सही सलामत रहे ! कहीं भी, कुछ भी घट सकता था। बिजली के तारों को पकड़ कर जोर-जोर हिला दें तो बिजली कट सकती थी। यदि किसी ने घर की छत पर एक कमरा बनवाया है और उस पर टीन की छत लगा रखी है तो फिर क्या पूछना ! ये उस पर बाल बच्चों समेत ऐसे कूद-फांद मचाते की आसपास के इलाके के बच्चे अपने-अपने घरों की छतों पर खड़ो हो चीखना शुरू कर देते, “ले बंदरवा लोय लोय !” वे तब तक मनोरंजन के केंद्र बिंदु बने रहते जब तक कि घर का मालिक एक मोटा डंडा लिए छत पर नहीं चढ़ जाता ! फिर देर तक उसकी बदंरो से नूरा कुश्ती देखते ही बनती थी । कभी वह बंदरों को भगाता, कभी बदंर चारों तरफ से चिचियाकर उसे ही भगा देते ! भागते वक्त, दूसरे घरों की छतों पर खड़े लोगों को देखकर शर्म के मारे झेंप जाने या खिसियाने के दृष्य का मजा वही ले सकता है जिसे ऐसे दृष्य देखने का सौभाग्य मिला हो। वह फिर हिम्मत जुटा कर आता, अबकी बार उसके घर का कोई और सदस्य भी साथ होता, दोनो मिलकर डंडा पटकते तो बंदर भी यूँ खिसक जाते मानों कह रहे हों “जा बेटा आज छोड़े दे रहे हैं, कल फिर मिलेंगे !” एक बार तो बंदरों ने हद ही पार कर दी। एक घर के छत की मुंडेर ही हिला-हिला कर तोड़ दी ! न केवल तोड़ दिया बल्कि एक बड़ी सी ईंट भी चार मंजिल ऊँची छत से निचे गिरा दिया ! यह दुर्भाग्य ही था कि एक विधवा बुढ़िया जो काशी वास करने के लिए बनारस में रह रही थी, ठीक उसी समय नीचे गली से गुज़र रही थी । काल का रूप देखिए कि ईंट ठीक बुढ़िया के सर के बिचों बीच तालू स्थल पर जा गिरा ! दूसरे ही पल बुढ़िया का राम नाम सत्य हो गया ! “कोई चीखा..रे..रे..रे..रे.. देखा रे..बुढ़िया मर गयल रे ! अरे ऊठाव रे जल्दी ! तब तक कोई बोला, “का उठैबा सरदार ! बुढ़िया के ‘बाबा’ अपने यहाँ बुला लेहलन ! चला मुक्ति मिलल ! बुढ़िया जाने कहाँ से काशी में मुक्ति बदे आयल रहल !” काशी लोगों की धार्मिक आस्थाएँ उन्हें गज़ब की शक्ति प्रदान करती हैं । वे बड़ी से बड़ी घटना को भी सहजता से सह लेते हैं। बड़े से बड़े वैरी को भी माफ कर देते हैं। बुढ़िया का मरना भी उन्होंने इतनी सहजता से लिया कि पाश्चात्य संस्कृति के पोषकों के लिए यह कौतूहल का विषय हो सकता है ! काशी के बदंर, लोगों को मुक्ति दिलाने का काम भी करते हैं ।
एक दिन आनंद रोटी लेकर छत पर आ गया और वहीं बैठकर खाने लगा। उसका ध्यान खाने पर कम और घर के ठीक सामने आ कर बस रहे नए पड़ोसी और उनके समानो के रखने की गतिविधियों पर अधिक था। जब से सामने वाला घर बिका था वह सूने घर को देख-देख कर अक्सर उदास हो जाया करता था। उसने जैसे ही सुना कि सामने नए पड़ोसी आ गए तो खाते-खाते ऊपर चला आया और बड़ी तल्लीनता से एक-एक गतिविधि का सूक्ष्म परीक्षण करने लगा। तभी अचानक कहीं से एक मोटा बंदर आया और उसके गाल पर एक झन्नाटे दार थप्पड़ जड़ दिया ! न केवल थप्पड़ जड़ दिया बल्कि रोटी छीन कर भाग गया। आनंद डर के मारे रोने लगा। उसके रोने की आवाज सुनकर उसकी माँ तो आईं ही लेकिन माँ के साथ उसके नए पड़ोसी का बालक मुन्ना भी, जो उससे उम्र में दो साल बड़ा था दौड़ता हुआ आ गया। बहुत बुरा हुआ ! बदंर ने मारा बुरा हुआ लेकिन पड़ोसी से रोते हुए पहली मुलाकात ! बहुत बुरा हुआ ! माँ को देखकर आनंद की चीखें जो अकस्मात बढ़नी शुरू हुईं थीं, पड़ोसी बालक को देख कर अचानक से रूक गईं ! जैसे सड़क साफ देखकर कोई अपनी गाड़ी का एक्सलेटर बढ़ाए और अचानक से सामने भैंस आ जाय ! आनंद भी हाथ-पैर झाड़कर एकदम से खड़ा हो गया और नए पड़ोसी को गुस्से से देखने लगा । समझदारी से बोला, “ कुछ नहीं, वो बंदर रोटी छीन कर भाग गया।“ माँ ने पूछा, “कहीं काटा तो नहीं ?” अब बिचारा नए पड़ोसी के सामने कैसे कहे कि बंदर ने उसे एक झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया है ! आनंद कुछ न बोला, बस गाल पर हाथ फेर कर रह गया। माँ के लिए इतना काफी था। वह समझ गईं कि मामला नए पड़ोसी के सामने इज्जत बचाने का है वरना बिनाबात के आसमान सर पर उठाने वाला बच्चा आज बंदर से थप्पड़ खा कर भी कैसे चुप है ! चलो, नीचे चलो, वह आनंद को लेकर चुपचाप नीचे चली गईँ।
(जारी...)
हहा ...मार भी खाई और रोटी भी गई ! अपने गांव में बन्दरों से हम भी परेशान थे पर ये नौबत नहीं आई :)
ReplyDeleteसंस्मरण अच्छा लग रहा है !
ाज कल हमारे यहाँ भी बहुत बन्दर आने लगे हैं भाखडा डैम की पहाडियों से कई बार यही हाल होता है। अच्छी चल रही हैं यादें। बधाई
ReplyDeleteमधुर स्मृतियाँ
ReplyDeleteये जानकार अछ्छा लगा कि आपको भी चपत लगी थी बंदर की.एकबार मैं खिडकी पे बैठा था और येक बन्दर येक चपत लगाकर चला गया था.
ReplyDeletebahut hi achha upnyas hai yaden
ReplyDeleteआप भी आनंद अररर बेचैन भाई बन्दर पुराण का ऐसा जीवंत वर्णन कर बैठे हैं की सुबह ५.३० पर पढ़ते हुए डर लग रहा है -
ReplyDeleteप्रात नाम जो लेई हमारा ता दिन ताहि न मिले अहारा
और क्या खूब बाल मनोविज्ञान और काशी की मान्यता को बघारा है :)
संस्मरण /आपबीती जोरदार चल रही है ,आराम से चलने दीजियेगा ,जल्दिआयियेगा नहीं !
काशी के बदंर, चलो मुक्तिदाता है तो कोई
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