27 August, 2010

यादें-3

यादें-1, यादें-2 से जारी...

गाँव से कब वापस आया याद नहीं. ...धुंधली यादें। यादें  अजीब होती  हैं। सुख भरी यादें, दुःख भरी यादें या वे यादें जो कुछ भी नहीं मात्र यादों के पर जिनसे जुड़ा़ है उसका बचपन, उसका यौवन, उसका जीवन।

गर्मियों के दिन, उमस भरी रातें, सुहानी सुबह, बनारस की गलियाँ, गलियों में बसा उसका छोटा सा घर और घर की छत.

...बच्चा गहरी नींद में सोया है । सुबह हो चुकी है। उसके भैया उसे जगाते हैं-"उठो, उठो।" वह कसमसा कर उठता है। उसके कानों में आवाज आती है- "तुम्हारी बहन आई है।"   बहन ....! चौंक जाता है इस शब्द से, उठकर बैठ जाता है पूरी तरह चौकन्ना ! .... कहाँ ?  भैया बताते हैं- "नीचे कमरे में।" सुनते ही दौड़ पड़ता है वह ..सभी सीढ़ियाँ एक साथ।
नीचे कमरे में खून ही खून बिखरा हुआ जमीन पर। उछलता लांघता बगल के कमरे में घुस जाता है जहाँ किसी को भी जाने की इजाजत नहीं..भैया को भी नहीं ! चौकी पर चढ़कर देखता है- दरवाजे के दूसरे कमरे में  जहाँ एक चौकी पर माँ लेटी हैं -बेसूध माँ। माँ के बगल में सुफेद कपड़ों में लिपटा हुआ एक बंडल। कौतुहल निगाहें खूब ध्यान से एकटक देखती ही रह जातीं हैं देर तक। असंख्य प्रश्न उठ खड़े होते हैं उसके जेहन में। क्या यही है मेरी बहन ? यह कहां से आ गई ? माँ को अचानक से क्या हुआ ?  खून कैसा है  ? क्य़ा मेरी माँ भयंकर बिमार है ?  इन सबसे अलग एक और प्रश्न- यह मेरी जगह क्यों लेटी है ? जीवन में ईर्ष्या के बीज क्या यूँ ही पड़ते हैं !

....'हटो यहाँ से ! बदमाश !"  पिता का कर्कश स्वर और सब कुछ गहरे धुंधलके  में लिपटा हुआ।

....बहन का आगमन उसके लिए काफी कष्टप्रद था। माँ की गोद छिन गई और माँ का दूध। कभी-कभी रात के अंधेरे में जब वह कोई स्वप्न देख कर जागता तो बहन को माँ की गोद में दुबका देख  मचल जाता। "कहाँ से आई यह ?"... सोचते-सोचते  गहरी नींद में सो जाता। आदमी के जीवन में कई प्रश्न ऐसे होते हैं जो उस वक्त समझ में नहीं आते जब हम उनको समझने का प्रयास कर रहे होते हैं। समय ! हाँ, समय ही देता है सुलझा हुआ जवाब। उसके पास होते हैं हर गूढ़ प्रश्नों के हल। आनंद अचम्भित था हर बात पर । उसके बाल मन के आंगन मे एक पल सुबह तो दूसरे ही  पल, शाम का आलम होता। चह-चह चहका करतीं अनगिन प्रश्न गौरैया  और अपने प्रश्नों के उत्तर न पा भूखी-प्यासी, फुर्र-फुर्र  उड़ जाया करतीं। मासूम आनंद, खूद से ही प्रश्न पर  प्रश्न करता  और जवाब के अभाव में कुंठित हो बड़ा होता जा रहा था। अब वह कुछ और बड़ा हो गया था। स्कूल जाने लगा था।  स्कूल से लौटता तो कंधे और भारी प्रतीत होते प्रश्नों के बोझ से। कोई नहीं दे पाता उसके प्रश्नों के हल। पिता या बड़े भाइयों से पूछने का साहस नहीं था. संग-साथियों से पूछता तो वे भी हंस पड़ते। धीरे-धीरे उसका  ह्रदय   एक विशाल घोंसले में परिवर्तित हो चुका था जिसमें फुदका करती ...अनगिन प्रश्न गौरैया। 

11 comments:

  1. और एक दिन प्रश्न गौरैय्या अनंत आकाश में परवाज़ करेगी तब आनंद को सारे प्रश्नों के हल खुद बखुद सूझ जायेंगे ! लेकिन वो खुद किसी दूसरे आनंद को इन प्रश्नों के हल नहीं बता सकेगा ! बढ़िया कथा है ! सोचने को विवश करती हुई !

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  2. समय ही देता है सुलझा हुआ जवाब। उसके पास होते हैं हर गूढ़ प्रश्नों के हल।...gahari soch......bahut badhiya story...pls continue.

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  3. पिछले भाग से ज्यादा रोचक लगीये पोस्ट , अगले पोस्ट का इंतजार ।

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  4. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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  5. @ बेचैन आत्मा जी,
    अच्छा लिखते है आप
    धन्यवाद आपका जो आप इस ब्लॉग पर पधारे
    मैं आप के विचारो से सहमत हूँ लेकिन आप जानते होंगे की copyright जैसे किसी भी पचड़े में न फसने के लिए ऐसा करना पड़ रहा है, और फिर ओशो कहते है की नाम में क्या रखा है . हमें सिर्फ अपना कर्म करना है . ...............

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  6. Yaaden-1 aur 2 abhi nahi padh payee lekin yaadi 3 padhi...
    ..Rishton ke utar-chadav ko darshat Gahri samvedansheel kahani... bahut saarthak....

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  7. बहुत बढ़िया लगा आपका ये ब्लॉग! सुन्दर कहानी लिखा है आपने! उम्दा प्रस्तुती!

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  8. आपका कहानी लिखने का अंदाज़ भी रोचक है .... मज़ा आया ...

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  9. अन्दाजे-बयाँ के क्या कहने

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  10. बाल मनोविज्ञान को कितनी सधी लेखनी से रख रहे हैं आप !
    बालपन की मुलायमियत प्रौढ़-लेखनी से क्षरित नहीं हो रही है , यह महत्वपूर्ण है !
    मेरा भी मन अगले भागों पर फुदकने को आतुर हो बैठा है , प्रश्न गौरैया सा !

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  11. वैसे अबतक पढ़ कर मुझे ''शेखर : एक जीवनी'' की याद आ रही है ।

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