आनंद की जिद थी कि वह भी 'श्री दुर्गा शप्तशती' का पाठ करेगा. वह सभी अध्याय नहीं पढ़ता बस वही पाठ करता जिसमें दुर्गा जी की स्तुति होती. कवच के बाद अर्गलास्त्रोतम का पाठ आता. रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ....'पत्नीं मनोरमाम देहि' जब आता तो बड़े धीरे से बोलता कि कोई सुन न ले! भैया चिढ़ाते जोर से पाठ करो...! सब गलत-सलत बोलता है. पिताजी डाँटते-गलत पाठ करने पर पाप लगता है.
धीरे-धीरे यह बात समझ में आई कि हमेशा जोर से पढ़ना चाहिए, सुनने वाला विद्वान होगा तो सुधार कर देगा, कम जानकर हुआ तो पढने वाले वाले को ही विद्वान समझेगा. दोनों ही दशा में लाभ जोर से पढ़ने पर ही मिलता है. लेकिन 'पत्नीं मनोरमाम देहि' ना बाबा ना यह तो नहीं होगा उससे. एक किशोर के लिये यह कहना लज्जा की बात थी लेकिन देखा जाय तो इस उम्र में किया जाने वाला यह सर्वोत्तम श्लोक है...
पत्नीं मनोरमाम देहि मनोवृत्तानुसारिणिम
तारिणीम दुर्गसंसार-सागरस्य कुलोभ्द्वाम
हे भगवति! हमारी इच्छा के अनुकूल चलने वाली सुन्दर पत्नी मुझे प्रदान करो, जो उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो तथा संसार रूपी सागर से पार करने वाली हो.
अब यहीं आनंद चूक कर गया! जो पाठ जोर-जोर से मन लगाकर करना चाहिए, उसी को अनमयस्क भाव से लजाकर, शरमाकर गोल कर जाता !!! जब कि पिताजी ने कहा था-गलत पाठ करने पर पाप लगता है! :) पाठ करते वक्त इस अंश को तो हमारी उम्र के बुड्ढों को गोल करना चाहिए लेकिन वे तो लगे हैं जोर-शोर से..!!!