08 September, 2010

यादें-6(चीयाँ पिल्लो)



यादें-1, यादें-2, यादें-3यादें-4, यादें-5  से जारी...


          बचपन की यादों में शामिल हैं बचपन के खेल। लुका-छिपी से लेकर लिलोलिलो पहाड़िया तक, गुल्ली-डंडा से लेकर बैट-बल्ला तक, चीयाँ पिल्लो से लेकर कंचे तक... जाने क्या-क्या खेलता है बचपन ! जाने क्या-क्या बटोरता है बचपन ! जाने क्या-क्या सीखता है बचपन ! माँ के चुम्बन से शुरू होती है बच्चे की शिक्षा जो धीरे-धीरे घर, समाज, स्कूल और आसपास के वातावरण से प्रभावित होती हई एक लम्बा सफर तय करती है।   बच्चों के लिए  गर्मियों की छुट्टियाँ  बसंत से कम नहीं होती । गर्मी की छुट्टियों में,  भरी दोपहरी गली-गली  श्रीकांत के साथ  इमली के बीयें बीनना आनंद के प्रिय खेलों में से एक था। 


          श्रीकांत के पिता पुजारी थे। भोर में ठीक सुबह तीन बजे उठना, अंधेरे मे ही गंगा स्नान के लिए जाना, स्नान आदि के पश्चात  एक बड़े से पीतल के गगरे में गंगाजल भरना, महादेव को गंगाजल से स्नान कराना, पूजा करना इनकी कभी न टलने वाली नित्य क्रिया थी। जाड़ा, गर्मी, बरसात, आंधी-तूफान या फिर गंगा की बाढ़ से मचा  त्राहि माम, फागू महाराज  अपने दौनिक कर्म से कभी टस से मस नहीं होते। भोर में लोगों की नींद मुर्गे के बांग से नहीं, पंडित जी के हर-हर महादेव की जाप से टूटती थी। सूरज का उगना टल सकता था लेकिन पंडित जी का गंगा स्नान के लिए निर्धारित समय पर जाना नहीं टलता। पूजा के पश्चात एक हाथ में पीतल का गगरा, दूसरे में चरणामृत से भरा कमण्डल, कंधे पर अंगोछा (जिसके एक सिरे  में  फल-फूल, बेल पत्र जाने क्या-क्या बंधा होता और दूसरे सिरे में गठिया कर रखे  दक्षिणा के पैसे) लटकाए, गली-गली घूमते, 10 से 11 बजे के बीच घर वापस लौटते थे। घर आकर एक बड़े से पीतल के कटोरे के बराबर ( लगभग एक पॉव) भांग पीसना, घोल तैयार कर  पूरा अकेले एक सांस में ही पी जाना,  खूब खा-पी कर सोना  और दोपहर 2 से 3 बजे के बीच उठकर गर्मियों में बेल, फालसा या ऐसी ही आकाशवृत्ति से प्राप्त मौसमी फलों के शरबत बनाने जुट जाना  उनकी रोज की आदत थी। प्रायः रोज श्रीकांत को शरबत के लिए बर्फ लाने भेजते। उन दिनों घर-घर में फ्रिज का जमाना नहीं था। लोग शर्बत पीने के लिए बाजार से बर्फ खरीदते थे।


            पिता के आदेश पर श्रीकांत 10 पैसे का बर्फ लेने घर से निकलता (उन दिनों 10 पैसे में गमछे में बांधे जा सकने वाले गट्ठर के बराबर बर्फ मिल जाया करता था) और आनंद के दरवाजे से होकर गुजरता। न केवल गुजरता बल्कि आवाज देता-"आनंद चलो बर्फ लेने।"  आनंद को तो मानो  इसी पल का इंतजार होता,  "अभी आया", कहते हुए  दौड़ पड़ता ।  गर्मियों में प्रायः लोग इमली के बीयें गलियों में फेंक दिया करते थे। "चलो यार, पहले चीयाँ बीनते हैं फिर बर्फ खरीदेंगे।" "चलो"-  प्रस्ताव पास हो जाता। दोनो गली-गली घूम कर इमली के बीये बीनने में जुट जाते। दस मिनट का फासला घंटे-आध घंटे में तय कर वे दुकान तक पहुंचते। खूब मोलभाव कर बर्फ का टुकड़ा गमछे में बांधने के पश्चात चीखते, "घलुआ नहीं दोगे ?" दुकानदार बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े दोनों के हाथों में रख देता जिसे मुंह में दबाए घर की ओर मुड़ जाते। कभी तो सीधे घर आ जाते और ठंडे शरबत का मजा लेते कभी घर पहुंचने से पहले पुनः गलियों का चक्कर लगाने लगते। इमली के बीयें का एक गट्ठर बना,  घर की ओर लौटते। घर पहुँचने तक बर्फ गल चुका होता ! बर्फ के स्थान पर इमली के बीयों का गट्ठर !! होश तब आता जब श्रीकांत के पिता फागू महराज हाथों में पंखा लिए  दौड़ाते..."पंखे चा डांडि दौं साड़े ला" और आनंद अपनी पूंजी दबाए नंगे पांव वहाँ से भाग खड़ा होता। उस दिन श्रीकांत की पंखे के डंडे से खूब पिटाई होती। शाम को या कुछ ही देर बाद शुरू होता उनका खेल चीयाँ पिल्लो जिसके लिए मैदान होता गलियों के बीच थोड़ा खुला स्थान या फिर आनंद या श्रीकांत के घर की छत ! छत में बन गए छोटे-छोटे गढ्ढे इनकी कारगुजारियों की कहानी कहते जिसके लिए ये कई बार पिटे जा चुके थे। कभी शरबत का मजा कभी पंखे के डंडे से पिटाई अक्सर घटने वाली घटनाएं थीं। 


           श्रीकांत से 6-7 वर्ष बड़ी एक बहन थी जिसे वे आशा ताई के नाम से पुकारते थे। वही आनंद को पहले पहल श्रीकांत के घर ले गई थी, दोनो उस वक्त कक्षा एक में पढ़ते थे। श्रीकांत का घर आनंद के घर से लगभग  10 मिनट की पैदल दूरी पर स्थित था । धीरे-धीरे उस घर में आना-जाना बढ़ता ही गया। एक समय ऐसा भी आया जब दोनो देर शाम तक एक दूसरे को छोड़ने एक दूसरे के घर जाते-आते रहते। यह सिलसिला उस दिन तब बंद होता जब आनंद के पिता दफ्तर से लौटते और आनंद को श्रीकांत के घर जाते देख बिगड़ते- "अब क्यों जाएगा यह तुम्हारे साथ ? भाग जाओ बदमाश ! एक बार तुम इसे छोड़ने आए, अब यह तुम्हें छोड़ने जाएगा ! बस यही करते रहो तुम सब दिन भर !"  इस प्रकार उस दिन दोनो जुदा होते। 
(जारी...)                        

6 comments:

  1. बहुत सुंदर प्रस्तुति। भाईया हम भी बहुत बार यह चीया खेला करते थे, आप ने तो बचपन की यादो का पुरा पिटारा ही खोल दिया, बहुत अच्छा लगा मजा आ गया, धन्यवाद

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  2. अच्छा लग रहा है पढकर !

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  3. jab me teri taalaash karta hun...mujhe apna suraag milta hai....bahut sundar prastuti...lekhan.

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  4. यादे अक्सर आती ही इसीलिए हैं कि दिल को सुकून मिले..........
    पढ़ कर अच्छा लगा, हम भी अपनी यादों में खो गए...........

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  5. हा हा हा, ये छोड़ने छुड़ाने वाला हमारे साथ खुद बीता है, पहले ही नेट पर डाल चुका हूँ उस पार्टी की बात।
    टाईम मशीन का मान कर रही है ये सीरीज़। देवेन्द्र जी, नेट की इधर भी दिक्कत रही, देरी के लिये क्षमाप्रार्थी।

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  6. बर्फ की जगह चियां( के बीज ) की पोटली ...बचपन ऐसा ही होता है -और यह भी बिलकुल नहीं ठीक है की एक दूसरे को छोड़ आने का क्रम ही अनवरत चलता रहे -घर में कोई अभिभावक न हो तो बात दीगर है !

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