गर्मी की छुट्टियों में श्रीकांत के घर लूडो की बाजी भी खूब जमती । ठंडा शरबत पी चुकने के पश्चात कभी श्रीकांत के पिता का मूड जम जाता तो वो भी बच्चों के साथ खेल में शामिल हो जाते। श्रीकांत, आशा ताई, आनंद के साथ फागू महराज का जुड़ना वैसे ही था जैसे क्रिकेट में तेंदुलकर का उतरना या सिनेमा में हीरो का पदार्पण। चौकड़ी पूरी होते ही खेल काफी रोचक हो जाता। श्रीकांत की माँ जिन्हें दोनो आँखों से बहुत कम दिखाई देता था, भी पास बैठकर, “काय झालs रे ! काय झालs रे !” पूछती रहतीं। फागू महराज इतनी तनमयता से खेल में जुट जाते कि उन्हें श्रीकांत की माँ का बीच-बीच में पूछकर व्यवधान डालना नागवार गुजरता। उनकी लाल हो रही गोटी पिट गई हो, तीनों बच्चे मारे खुशी के चीख रहे हों और ठीक उसी समय श्रीकांत की माँ का अपने पति देव से, अपनी अंधी आँखों की पलकों को चिमचिमाते हुए पूछना, “काय झालs रे….! काय झालs रे….!” फागू महराज को इतना नागवार गुजरता कि वे झल्ला कर, अपने दाएँ हाथ का अंगूठा दिखाते हुए कहते, “बोम झालs ! ओर्डुन राएली आहे मुर्खा ! जाए पानी घेऊन ये !”(खाक हुआ ! चीख रही है मूर्ख, जा पानी लेकर आ !) आनंद ‘बोम झालs’ का अर्थ नहीं समझता था लेकिन श्रीकांत के पिता के हाव-भाव के देखकर मस्त हो जाता और खुशी से ताली बजाते हुए चीखने लगता, “हे s s s s……!” श्रीकांत के पिता और खीझते, “चुप कर ! मी जिंकुण राहेलाए, आप्ली चाल चल, तुझा पाशा शुन्य सांगेल।“ (अपनी चाल चलो, मैं जीत रहा हूँ, तुम्हारे पाशे में शून्य आएगा) खेल फिर दो मिनट के लिए गंभीरता से चलता और अगले ही पल कोई नई मजेदार घटना हो जाती।
श्रीकांत की माँ त्याग, ममता, सेवा की साक्षात देवी होने के साथ-साथ इतनी सीधी, सरल थीं कि उनकी याद आते ही मन श्रद्धा से झुक जाता है। आनंद को खूब प्यार करती थीं। ऐसा शायद ही कोई दिन हुआ हो कि आनंद घर में आया हो और ‘आई’ ने उसे खाने के लिए कुछ न दिया हो। आनंद को भी पता होता कि रसोई घर में पीतल का कौन सा वह बड़ा सा पात्र है जो बेसन से बने देसी घी के लड्डू से भरा पड़ा है ! लेकिन आनंद को कभी मांगने या चुराकर खाने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती थी। आई उसे कीचन के द्वार के आसपास ही देखकर एक छोटी सी कटोरी में दो लड्डू निकाल कर दे देतीं। कभी-कभी तो श्रीकांत भी आनंद के प्रति आई का दुलार देख जल-भुन जाता ! आनंद, श्रीकांत से कई बार पूछता कि जब उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता तो वे अपना सब काम कैसे कर पाती हैं ? श्रीकांत बस इतना ही कहता, “मेरी माँ सब कर सकती हैं।“ आशा ताई समझातीं, “ हल्का-फुल्का दिखता है, बिलकुल न के बराबर। अधिक जानना हो तो अष्टमी के दिन पूछ लेना ! सब बता देंगी।“
दरअसल सभी का मानना था कि नवरात्रि में अष्टमी के दिन ‘आई’ पर देवी सवार हो जाती हैं ! उस दिन उन्हें और मंदिर को सुंदर ढंग से सजाया जाता । दिन ढलते ही आस पास के मोहल्लों की बहुत सी औरतें मंदिर में जमा हो जातीं । श्रीकांत की माँ को भी सुंदर वस्त्रों और आभूषणों से खूब सजाकर मंदिर में लाया जाता। उस दिन ‘आई’ इतनी सुंदर दिखतीं कि आनंद को भी लगता कि ये तो साक्षात देवी है ! एक पीतल का घड़ा अपने दोनो हाथों से पकड़े, घड़े के मुँह में बार-बार फूँक मारते, ‘आई’ का मंदिर में इधर से उधर पूरी रात घूमते रहना आनंद के लिए अचरज और भय का विषय होता। बीच बीच मे वे भक्तों के प्रश्नों का जवाब भी देती रहतीं। आशा ताई का यह कहना कि ‘अष्टमी के दिन पूछ लेना’ ही आनंद को चुप कराने के लिए काफी था। आनंद के लिए भगवान, प्रेम व श्रद्धा की मूर्ति नहीं, एक ऐसी शक्ति थे जिनसे सभी को डर कर रहना चाहिए ! जो गलती करते ही भयंकर सजा दे सकते हैं ! अपराध बोध और भय के बीज बच्चों के ह्रदय में छींटने वाले माता पिता को इस बात का एहसास ही नहीं हो पाता कि बड़े होने पर ये बीज न केवल अंकुरित होने की संभावना रखते हैं बल्कि एक विष-वृक्ष का रूप भी ले सकते हैं ! बच्चों के जीवन पर इसका कितना गहरा प्रभाव पड़ सकता है इसकी कल्पना भी माता-पिता को उस समय नहीं होती जब वे उन्हें अकारण ही डरा रहे होते हैं।
(जारी....)
लाजवाब ,बाल मनो विज्ञानं को अभी और खुलने दीजिये .
ReplyDeleteइन खेलों में बेईमानी की भरपूर गुंज़ायश होती थी ! ईश्वर की सत्ता और भय के मनोविज्ञान पर आपसे सहमत !
ReplyDeleteHappy Anant Chaturdashi
ReplyDeleteGANESH ki jyoti se noor miltahai
sbke dilon ko surur milta hai,
jobhi jaata hai GANESHA ke dwaar,
kuch na kuch zarror milta hai
“JAI SHREE GANESHA”
आप की आनन्द की यादे पढने फिर आऊगी और फिर इन लेखो पर टिप्पणी करुंगी ।
ReplyDeleteJAI SHREE GANESHA”
Sweet memories...
ReplyDeleteपुराने सभी धर्म भय और लालच पर ही आधारित हैं.यैसा करोगे तो स्वर्ग जाओगे वैसा करोगे तो नर्क जाओगे.यैसी-ही बातों ने आदमी को बहुत गंभीर और ग्लानि से भरा हुआ बना दिया है.आखिर आदमी यैसी बहुत सी बातें करता है प्राकृतिक कारणों से,जिनको धर्म के ठेकेदारों ने गलत कहा है.
ReplyDeleteऔरत का सीधा-सादा,और पतिका आग्यांकारी होना में, मुझे तो कोई श्रद्धावाली बात नजर नहीं आती.
बचपन को शिद्दत से संजोया है
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