14 September, 2010

यादें-8 ( बनारस की गलियों में गर्मियों की छुट्टियाँ )

                उन दिनों बच्चों के लिए परीक्षा समाप्त होने के पश्चात गर्मियों की छुट्टियाँ उतनी ही उत्साह वर्धक होती थीं जितनी की युवाओं के लिए पतझड़ के बाद बसंत का आगमन। यह वह दौर था जब गर्मी की छुट्टियाँ आज की तरह भारी बस्तों के तले रौंदी नहीं जाती थीं। परीक्षा समाप्त होने और स्कूल खुलने के दिनों के बीच, बच्चे अपना सम्पूर्ण जीवन जी लेना चाहते थे। मध्यम वर्गीय परिवारों में, बड़ों को इतनी फुर्सत नहीं होती थी कि वे बच्चों की छोटी-मोटी गलतियों पर नज़र रख सकें और बच्चों को सिर्फ इस बात का ध्यान रखना होता था कि अंधेरा होने से पहले घर वापस जाना है।
       बनारस की गलियों में गर्मियों की छुट्टियों का एक अलग ही आनंद था। सुबह-सबेरे गंगा घाट पर मेले जैसा दृश्य होता था। कहीं मंदिर की घंट्टियों की धुन तो कहीं मंत्रोच्चार की गूँज, कहीं ऊँची मढ़ी से गंगा में हेडर साधते किशोर तो कहीं किनारे छपाक-छपाक हाथ-पैर पटकते, तैरना सीख रहे छोटे-छोटे बच्चे। यह संभव ही नहीं था कि बनारस की गलियों में रहने वाला कोई बालक गंगा जी न जाता हो या उसे तैरना न आता हो। तैरना सीखना-सीखाना यहाँ के लोगों की आवश्यक आवश्यकता में शामिल था। जब वे जान जाते थे कि उनका बालक तैरना सीख चुका है तभी वे उसकी तरफ से निश्चिंत हो पाते थे। आनंद को भी उसके पिता ने एक पंडे के हवाले कर दिया था । जब वे जान गए कि अब यह तैरने की कला में पारंगत हो चुका है तो वे भी उसकी तरफ से निश्चिंत हो गए। सुबह-सबेरे घंटों गंगा जी नहाना, खाना खा कर दिन भर गलियों में खेलना और शाम ढले घर वापस आना उसकी दिनचर्या बन चुकी थी।

      गलियों में, गर्मियों की दोपहरी भी लाज़वाब होती थी। प्रायः घर-घर में मंदिर होने का एक सुख यह भी था कि जब कभी दोपहर में घर वापस आए, मंदिर धोया-धाया इतना तर मिलता था कि एक टेबुल फैन ही ए0सी0 का मजा देता था। पतली सी दरी बिछाकर लेटते ही गहरी नींद आ जाती थी। गलियों में खेले जा सकने वाले खेलों के अलावा लूडो, कैरम, ताश, शतरंज आदि घरों में खेले जा सकने वाले सभी खेल उम्र के अनुसार, इस घर में नहीं तो उस घर में, हमेशा उपलब्ध  रहते थे। वह दौर सम्पूर्ण आजादी का दौर था। न तो पढ़ाई का इतना बोझ, न प्रतियोगिता की मारामारी और न ही उपभोक्ता वादी संस्कृति। धार्मिक आस्थाओं, संस्कारों से लोग इतने बंधे होते थे कि अपवादों को छोड़कर, पढ़े-लिखे निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में गलत काम करना भी पाप समझा जाता था । माता-पिता, बड़े भाइयों, समाज और भगवान का इतना भय व्याप्त होता था कि इतनी स्वतंत्रता के बाद भी बच्चों के बिगड़ने की एक सीमा होती थी । बच्चों के फेल हो जाने या प्रथम आने पर ही माता-पिता का ध्यान उनकी पढ़ाई पर जा पाता था । बच्चे जब तक पास हो रहे हैं तब तक चिंता की कोई बात नहीं होती थी ।
       गर्मियों में, शाम का ढलना भी एक अलग रंग लेकर आता था । शाम ढलते ही क्या युवा, क्या बच्चे, सभी अपने-अपने छतों पर दिखाई पड़ते थे। नीचे से पानी ढो-ढो कर लाना, छतों को अच्छे से तर कर देना और अपने-अपने बिस्तर, निर्धारित स्थान पर लगा देना सबकी शाम-चर्या में शुमार था। अक्सर भाइयों के बीच अपने निर्धारित हवा वाले स्थान पर सोने के लिए झगड़े हो जाया करते जिनका निपटारा, बड़े या दबंग भाइयों द्वारा ही किया जाता। गलियों में घर आपस में इतने सटे होते कि एक घर से दूसरे घर की छत पर जाना बिलकुल आसान होता। परिणाम यह होता कि जब तक पिता जी या घर का कोई बुजुर्ग डांटते हुए नहीं आ जाता, बच्चे देर शाम तक, छतों में भी धमाल मचा रहे होते। पल-पल में नज़ारे बदलते रहते । कहीं बच्चों की चौकड़ी अपने शबाब पर होती तो कहीं कोई युवा, दूर किसी घर की छत पर खड़ी षोढ़सी को लाइन मार रहा होता। टुकुर-टुकुर निगाहों से एक टक यूँ ताकता मानों कोई चकोर चाँद को ताक रहा हो। कहीं ट्रांजिस्टर में मुकेश के गानों की धुन तो कहीं टेबुल लैम्प की रोशनी में पढ़ने की आड़ में माता-पिता की आँखों में धूल झोंकता, जासूसी उपन्यास में मशगूल युवा। माउथआर्गन, बांसुरी, बैंजो या गिटार की धुन में अपनी काबलियत दिखाते युवा भी दिख जाते। कहने का तात्पर्य यह कि शाम के समय, संकरी गलियों की छतों पर, सभी योग्यताएँ, चंद्रकलाओं की तरह समयानुकूल घटती-बढ़ती रहती थीं। भोजनोपरांत माता-पिता का छत पर आगमन, अनुशासन की एक अलग ही मिसाल पेश करता था। सभी दुष्ट अचानक से इतने शरीफ़ हो जाते थे कि नील गगन के तारे भी हंसकर टिमटिमाने लगते । सप्तर्षी तारे, ध्रुव तारे, हितोपदेश की कहानियाँ, विज्ञान के चमत्कार या पढ़ाई की चर्चा शुरू होते-होते बच्चे गहरी नींद में सो चुके होते थे।       
(जारी...)

7 comments:

  1. बहुत ही अच्छा लिखा है... आपने
    ये छतें ही तो दिलों की ज़मीनों को मिलाया करती थीं ।
    आपकी यादें बिलकुल अपनी सी लगी ....अपने घर की
    गली की धमाचौकड़ी शायद हर कोई याद करता है......

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  2. अपनें गांव में गंगा की कसर दर्जनों छोटे बड़े तालाब पूरी करते शेष सारी कथा अपनी सी है ! बेहद अपनेपन के माहौल में पढ़ा गया संस्मरण :)

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  3. बहुत सुंदर यांदे जी, धन्यवाद

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  4. मध्यम-वर्गीय लड़ाकोंका बहुमूल्य समय जस तरहसे पहले गुजर जाता था उसका अछ्छा चित्रण हुआ है. काश ये समय कुछ आधुनिक खेलों,जैसे फ़ुटबाल,जिमनास्टिक,तैराकी आदि में लगता तो शायद ओलम्पिक खेलों में इतना बुरा हाल न होता.
    फॉण्ट का आकार बढाने के लिये धन्यवाद.

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  5. लगा जैसे अपना कैशोर्य जागृत हो उठा हो !

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  6. समूचा दृश्य खींच दे रहे हैं और फिर मैं हर कड़ी को बिना रूके जो पढ रहा हूँ

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