जीवन में घटित होने वाली घटनाएँ अपनी यादें छोड़ जाती हैं। कुछ धुंधली तो कुछ गहरी। कभी कोई घटना इतनी महत्वपूर्ण होती है कि आदमी सोचता है कि यह तो मेरे जीवन की सबसे बड़ी घटना है ! इससे बड़ा दुर्दिन तो जीवन में दूसरा आ ही नहीं सकता ! कभी किसी दिन, ऐसी घटना भी घट जाती है कि आदमी खुशी से झूमने लगता है । जीवन मे घटित होने वाले शाश्वत सच पर आधारित इन विशिष्ट पलों को, जख्मों को या खुशियों को, असफलता को या सफलता को, उस वक्त बहुत बड़ा मानकर आदमी दुःखी या हर्षित होता है। समय करवट बदलता है। धीरे-धीरे उसके ज़ख्मों को भर देता है या उसकी खुशियों को नए जख्म दे फिर से दुःख के महासागर में डुबो देता है और देखते ही देखते वह घटना उतनी महत्वपूर्ण नहीं रह जाती जितनी उस समय थी जब वह घटित हुई थी। शेष रह जाती हैं तो सिर्फ यादें । खुशियों भरी यादें, दुःख भरी यादें। यदि देखा जाय तो इंसान, समय बीतने के पश्चात, दुःख भरी यादों को ही अधिक महत्व देता है। जीवन में मिले ज़ख्मों को याद कर रोमांचित भी होता है और हर्षित भी। हर्षित यूँ कि कैसे उन विषम परिस्थिति में कितने धैर्य और साहस के साथ उसने कष्टों का सामना किया ! किस दिलेरी व शौर्य से उनका मुकाबला किया ! वह उन पलों को याद कर अपने पौरूष पर गौरवान्वित होता है। कहने का मतलब यह कि महत्व इस बात का नहीं है कि जीवन में संकट आते हैं या खुशियाँ। महत्व इस बात का है कि उन घटनाओं का मुकाबला किस प्रकार किया जाता है ! वर्तमान जब अतीत बन जाता है तो यक्ष की तरह प्रश्न करने लगता है ! प्रत्येक व्यक्ति को भविष्य में होने वाले उन संभावित प्रश्नों के लिए तैयार रहना चाहिए। स्वयम् ब्रह्मा भी धिक्कारे तो आदमी पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता किंतु जब आत्मा कहती है कि तुम गलत थे तो कष्ट होता है। आत्मा धिक्कारती है ! बुरी तरह धिक्कारती है ! तुमने उस वक्त अमानवीय व्यवहार किया जब तुम्हें उदारता दिखाने की सबसे अधिक जरूरत थी ! तुमने अमुक घटना के समय हिम्मत से काम नहीं लिया और नपुंसकों की तरह घर में बैठे रहे जब कि तुम्हें चाहिए था कि आगे बढ़कर मुसीबतों के मारों की मदद करते ! तुमने थोड़े से लोभ में पड़कर अपने मित्र के साथ विश्वासघात किया ! तुमने अपने निजी स्वार्थ में देश के साथ...! तुमने अपनी कामुकता में जीवन साथी के साथ....! अंतरात्मा जब धिक्कारती है तो दुःख होता है । अपनी गलतियों, अपनी नपुंसकता और अपने पापों का एहसास आदमी को सुख से जीने नहीं देता । यह वक्त का चमत्कार ही है कि जैसे यह दुःख को सुख में और सुख को दुःख में परिवर्तित कर देता है वैसे ही आदमी के द्वारा किए गए कर्मों का हिसाब भी लेता है। जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना का अपना महत्व होता है। इन्हीं घटनाओं को जीने के अंदाज पर आदमी का पूरा जीवन निर्भर करता है और इंसान पूर्णता को या अंधकार को प्राप्त करता है। स्वर्ग भी यहीं हैं, नर्क भी यहीं। यह स्वयम् व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि वह पूर्णता को प्राप्त कर खुद भी देदीप्यमान हो और दूसरों को भी अपनी आभा से प्रकाशित करे या अंधकार को गले लगाकर जीवन भर अपने भाग्य को कोसता, दूसरों पर बोझ बन जीवन यापन करता रहे।
( जारी.....)
आज की प्रविष्टि को एक दार्शनिक की प्रविष्टि कहूँगा ! मेरे लिए महत्त्वपूर्ण यह है कि 'दर्शन' आनंद की यादों का एक हिस्सा है ! इस उपलब्धि के साथ जीनें वाले मनुष्यों की संख्या है ही कितनी ?
ReplyDelete@अली सा...
ReplyDeleteआप जैसे एक पाठक की भी निरंतर उपश्थिति मेरे लिखते रहने के लिए पर्याप्त है। शुरू-शुरू में लोगों के न पढ़ने से निराश हो रहा था लेकिन अब लिखते रहने का मन बना लिया है।
..आभार।
इस दार्शनिक भूमिका को मूल घटना के प्रारम्भ तक पहुंचाना था !
ReplyDeleteचलिए अगले अंक में ....
रोचक चल रहा है संस्मरण....एक प्रश्न ....क्या आनंद और देवेन्द्र एक ही व्यक्ति हैं?
ReplyDeleteआनंद और देवेन्द्र एक ही होते तो देवेन्द्र की यादें लिखता. हाँ, आनंद की यादें, देवेन्द्र लिख रहा है तो स्वाभाविक है कि आनंद पर उसकी छाप तो पड़ेगी ही। यह नहीं जानता कि क्या लिख रहा हूँ, क्यों लिख रहा हूँ, आनंद की यादें लिखकर किसी को आनंद दे भी पा रहा हूँ या नहीं ! बस इतना जानता हूँ कि लिखने में आनंद आ रहा है । अब तो यह संस्मरण से आगे जाना चाहता है।
ReplyDeleteस्वयम् ब्रह्मा भी धिक्कारे तो आदमी पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता किंतु जब आत्मा कहती है कि तुम गलत थे तो कष्ट होता है।
ReplyDeleteहोता है तभी तो हम कई बार आत्मा की आवाज़ सुन कर भी अन्सुनीकर देते हैं। आज ही देखा कि ये तो किसी बैचैन आत्मा का चिन्तन है। वाह देवेन्द्र जी बहुत खुशी हुयी कि ये आपका ब्लाग है पहले मैने ध्यान नही दिया था बस पडःाना अच्छा लगता था सो पढ कर चली जाती। बहुत बहुत बधाई। इसे जारी रखिये।
देवेन्द्र जी,
ReplyDeleteकथा प्रवाह के साथ बह रहे हैं हम भी। अनदेखी बनारस की गलियाँ, माहौल जानापहचाना सा लग रहा है।
टिप्पणी में नियमित नहीं हूँ, वजह आपसीपन्, निकम्मापन कुछ भी कह सकते हैं। असल में इंतज़ार करता रहता हूँ कि तीन चार कड़ियाँ हो जायें, फ़िर एक बार ही पढ़ा जाये। आप लिखते हैं छोटी छोटी कड़ियां, मैं करता हूँ रश्क - कम शब्दों में अपनी बात कहने वालों से। मैं नहीं कह पाता हूँ न। हा हा हा।
बहुत अच्छी लय में चल रही है आनंद गाथा, वही शंका जो सब कर रहे हैं - आनंद और देवेन्द्र एक ही हैं क्या? वैसे जवाब पढ़ लिया है।
बड़ा अहमकाना सवाल है की आनंद और देवेन्द्र एक ही हैं ? :)
ReplyDeleteक्या फर्क पड़ता है ?
वर्तमान जब अतीत बन जाता है तो यक्ष की तरह प्रश्न करने लगता है !
ReplyDeleteहर वर्तमान अतीत तो बनता ही है चाहे दुख हो या सुख. यक्ष प्रश्नों का सामना तो करना ही पड़ता है.