01 October, 2010

यादें-13 ( नाम हौ हाथी गली, जात नाहीं बकरी )



            प्राइमरी की कक्षाओं में पढ़ने तक आनंद और श्रीकांत की दोस्ती खूब निभी मगर ज्यों ही कक्षा पाँच पास करने के पश्चात दोनों का दाखिला अलग-अलग इण्टरमीडिएट स्तर के कॉलेजों में हुआ तो वे एक दूसरे को लगभग भूल से गये। एक ही मोहल्ले में रहने के कारण कभी-कभार का आना जाना अलग बात है मगर पहले जैसी यारी अब नहीं रही। नया स्कूल, नये दोस्त, नई ट्रेन, नये यात्री, नई पहचान, नये रिश्ते, नए रास्ते......
            बचपन के दोस्त भी अजीब होते हैं। मिलते हैं तो विपरीत दिशाओं से बहकर आती दो नदियों की तरह जिन्हें संगम तट के बाद देखकर पहचानना असंभव हो जाता है कि कौन गंगा है, कौन यमुना ! बिछुड़ते हैं तो ऐसे कि जैसे ट्रेन के सहयात्री जो स्टेशन पर उतरते ही, घंटों के सफर की दोस्ती को एक झटके में भूलकर अपनी-अपनी मंजिल की ओर चल देते हैं । कभी इक-दूजे को याद भी नहीं करते, करते भी हैं तो मिलने का प्रयास नहीं करते ! प्रायः तो पहचान में ही नहीं आते मगर सौभाग्य से कभी राह चलते पहचान लिए गए तो निर्धारित से प्रश्न  पूछते हैं,  “अरे ! आजकल यहीं हो ! कहाँ काम करते हो ? घर बना लिया ? कितने बच्चे हैं ? कितने में पढ़ते हैं ?”  बचपन की दोस्ती गाढ़ी रही तो कुछ बेवकूफियों पर चर्चा करने के सिवा उनके पास बात करने के लिए कुछ  शेष  नहीं रह जाता । अच्छा तो चलते हैं, कभी घर आओ पत्नी को लेकर। नमस्कार-नमस्कार ।
          बाल मन, युवा मन, प्रौढ़ और वृद्ध सभी के जीवन जीन के ढंग अलग-अलग होते हैं । सभी अपने-अपने सुरों में हंसते, रोते, गाते दिख जाते हैं। बाल-मन जहाँ ऊँचे हिम-शिखरों से झरते नर्मल झरने के समान हैं, तो युवा-मन उन पहाड़ी नदियों की तेज धारों के समान हैं, जो जीवन के मैदानी धरातल पर फैल कर विस्तार पाती हैं। प्रौढ़, दुषित हो चुकी नदियों के समान कहर-ठहर कर बहते हैं तो वृद्ध, समुंदर में फना होने को लालायित। आनंद भीगना चाहता है झरनों मे, आनंद डूबना चाहता है, गहराई की थाह लेना चाहता है । आनंद चाहता है कि नदियों की गंदगी कुछ कम हो, आनंद चाहता है कि समुंद्र से मिलन की पथरीली राह कुछ नम हो । भीगते, डूबते उसके हाथ लगते हैं यादों के मोती, साथ बीने सीप-शंख और पुरानी डायरियाँ जिनमें संभाल कर रखे मोर पंख, गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ, किसी अनाम वृक्ष का एक सूखा, चलनी-चलनी हो चुका पीला पत्ता जो हर पल एक नई कहानी कहते हैं ।
            आनंद के मोहल्ले का कोई लड़का उसके कॉलेज में नहीं पढ़ता था। कितने तो पढ़ते ही नहीं थे। जो पढ़ते थे, वे भी अलग-अलग स्कूलों में। यही कारण था कि स्कूल का माहौल कुछ और मोहल्ले का कुछ और था । बच्चों के मनोभावों को प्रभावित करती तीन समानांतर कक्षाएँ हमेशा चलती रहती थीं..एक घर में, दूसरी मोहल्ले की संगति में और तीसरी स्कूल में। स्कूल बदला, श्रीकांत का साथ छूटा तो नए दोस्त बनते गए। नया पड़ोसी मुन्ना अपना साज-बाज जमा चुका था। वह आनंद से दो कक्षा आगे था, उम्र में बड़ा था, दूसरे स्कूल में पढ़ता था लेकिन एक खास बात यह थी कि दोनो के घर का बरामदा बिलकुल आमने-सामने था। इतने करीब कि बरामदे में खड़े होकर आराम से वस्तु विनिमय की प्रथा को जीवंत किया जा सकता था। यह बनारस की संकरी गलियों का प्रताप है कि लोग आपस में एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। दो पड़ोसियों में वैमनस्व हो तो उनके झगड़ों से न केवल उनका बल्कि अगल-बगल के दो-चार घरों का जीना मुश्किल हो जाता है । न चाहते हुए भी लोग इक-दूजे से बंधे रहते थे। बनारस की संकरी गलियों के संबंध में भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अपने एक नाटक में लिखा है, नाम हौ हाथी गली, जात नाहीं बकरी, रजा ई काशी हौ।बाहर से आने वाले किसी भी दर्शनार्थी को इस बात का सहज ही अचंभा हो सकता है कि आखिर इस गली का नाम हाथी गली क्या सोच कर रखा गया होगा ! वहीं किसी चबूतरे पर उघाड़े, मात्र अंगोछा पहने, तोंद फुलाए, अपनी घनी मूँछों को ऐंठते, बेकार बैठे किसी पहलवान से एक दिन आनंद ने पूछा था, ”सरदार ! ई बतावा, तोहरे गली क S नाम हाथी गली काहे पड़ल ?” सरदार ने तपाक से उत्तर के बदले प्रश्न दाग दिया, पहिले ई बतावा कि बनारस में बड़का वीर कहाँ हौ ?” ( दरअसल बनारस में एक प्रसिद्ध चैराहा है लहुरावीर। लहुरा का अर्थ होता है छोटा। सरदार के पूछने का आशय यह था कि जब छोटा वीर है तो बड़ा वीर बड़ा भाई कहीं होना चाहिए ! यदि है तो बताओ ? )  सकपका सा गया था आनंद !.... ”का सरदार, हम तोहसे पूछत हई कि ई गली क S नांव हाथी गली काहे हौ, S तू उल्टे हमहीं से पूछत हौवा कि बड़का वीर कहाँ हौ ! लहुरा वीर त हौ, लेकिन बड़का वीर कत्तो ना हौ । सरदार फिर चमका ! काहे ? जब लहुरा वीर हौ, S बड़का वीर न होई ! कैसन पढ़ल-लिखल हौआ ! जा पहिले पता लगा के आवा कि बड़का वीर कहाँ हौ ! S तोहें बताई कि ई गली क S नांव हाथी गली काहे पड़ल ! आनंद को तभी अच्छी तरह से समझ में आ गया था कि बनारस के बारे में यह क्यों कहा जाता है कि बनारस के कंकड़-कंकड़ में शंकर और गली-गली में विद्वानों के दर्शन सहज ही हो जाते है ! बस उन्हें देखने-पहचानने की दृष्टि होनी चाहिए।
(जारी.....) 

18 comments:

  1. इस लेखन पर बलि बलि जाऊँ। सारे पढ़ गया।

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  2. आज की बोहनी अच्छी है!

    अतिथि द्वय के लेखन कला का मैं जबरदस्त प्रशंसक हूँ। आज वे ही मेरे इस ब्लॉग में अवतरित हुए! धन्य भाग।

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  3. आज की कड़ी वाकई बहुत रोचक है, स्थानीय भाषा का आनंद अलग ही होता है और फ़िर ऐसे नहले पर दहले, बहुत खूब।
    देवेन्द्र जी, आगे भी इंतज़ार रहेगा।

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  4. आज की कड़ी में स्थानीयता [ देशज ] ने समां बांध दिया ! बाकी तो आप हैं ही !

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  5. sthaaniye bhashaa ke mithaas ke sath acchhi yaden...badhai.

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  6. औचित्यों पर जायें तो हर स्थान के नाम अचंभित करते नज़र आयेंगे. चाहे वह लहुराबीर हो या चौका घाट या फिर गोदौलिया या हाथी गली.
    लेखन में पकड़ और विस्तार सुखद है

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  7. ई बड़का बीर त हमको भी नहीं पता भाई -बतावल जाईं !

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  8. @आदरणीय वर्मा जी,
    आपका कड़ी दर कड़ी, अपने विचारों की अभिव्यक्ति के साथ आनंद यादों मे खो जाने के लिए आभारी होने के साथ-साथ प्रफुल्लित भी हूँ..

    @आदरणीय अरविंद जी,
    ई बड़का वीर कs ज्ञान तs हमहूँ के अबहिन ले ना भईल! आपके का बताई! पहलवान मूरख बना के भगा देहले होई!

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  9. बढ़िया । बनारस ,बनारस ही है जहाँ की और भी तमाम बातें जगप्रसिद्ध हैं ।

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  10. bahut badiya lekh....

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  11. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  12. @सुरेन्द्र जी व अजय जी,
    देवेन्द्र के स्थान पर बेचैन आत्मा को भेज दूँ तो चलेगा ?

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  13. सुन्दर प्रस्तुति.

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  14. कचौड़ी गली तो है मगर मीठाई गली नहीं है जो कि बनारस की एक प्रशिद्ध चीज है.यैसा नहीं होना चाहिए था,कि है कहीं पर ? न पूडी गली है और न हलुवा गली केवल कचौडी गली.ये माजरा क्या है ?

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  15. इस सुंदर से नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए आपको शुभकामनाएं !!

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  16. हर गली में विद्वान् तो अपने ब्लॉग जगत में भी मिलते हैं ...

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