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जंगली के पिता को जासूसी उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था । अपने इसी शौक के कारण वे जंगली को बनारस की इन्हीं तंग गलियों में, ‘रंगीन दास के फाटक’ पर स्थित ‘सिंघल पुस्तकालय’ में किताबें लाने भेजते। आनंद के घर का माहौल भी बड़ा पढ़ाकू टाइप का था। धर्म युग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, कादंबिनी, नववीत, नंदन, पराग जैसी नियमित पत्रिकाएँ, उसके पिता जी दफ्तर से बिना नागा लाते और कार्टून कोना ढब्बू जी, खेल-सिनेमा के मनोरंजक आलेख पढ़ते-पढ़ते घर के प्रायः सभी सदस्यों को पुस्तकें पढ़ने का शौक अनायास ही हो चुका था। दरअसल यह माहौल केवल आनंद के घर का ही नहीं,बल्कि प्रायः हर नौकरी पेशा, पढ़े-लिखे मध्यम वर्गीय परिवारों के घरों का था। उन दिनों खेल, पुस्तक और सिनेमा प्रमुख मनोरंजन के साधन हुआ करते थे। आम जन दूरदर्शनी संस्कृति से कोसों दूर था । पुस्तके आनंद की कमजोरी बन चुकी थीं। एक किताब पा जाय तो उसे खत्म करके ही छोड़ता था। कोई यह तय करने वाला नहीं था कि कौन पुस्तक पढ़ो, कौन न पढ़ो। जो मिल जाय, जो अच्छी लगे, वही पढ़ना है। जब उसे पता चला कि जंगली, किताबें लाने ‘सिंघल पुस्तकालय’ जाता है तो वह भी उसके साथ जाने लगा। उसका और जंगली का शुरू-शुरू का साथ सिर्फ किताबों के आदान-प्रदान तक ही सीमित था। पिता को पढ़ाते-पढ़ाते जंगली को भी पुस्तकों की लत लग चुकी थी। उसके पिता उसे पुस्तकें पढ़ने से कभी नहीं रोकते। पुस्तकें क्या ताश, शतरंज खेलने या सिनेमा देखने से भी नहीं रोकते थे मगर शर्त वही कि वे साए कि तरह हर जगह साथ-साथ लगे रहते। उनके लिए बस इतना ही काफी था कि उनके ‘आँखों का तारा’ जो कर रहा है वह मेरे सामने कर रहा है। कितनी देर तक खेलना है और क्या खेलना है, इसका निर्धारण भी वही करते थे।
वह एक ऐसा दौर था जब सिनेमा की कहानियाँ.. आदर्श प्रस्तुत करती थीं, कहानियों के पात्रों का चरित्र बल इतना उज्ज्वल होता था कि चोर, गुंडे, वेश्या, खूनी भी अपने कर्मों के पीछे की मजबूरी सिद्ध करते प्रतीत होते थे। गीत... दिलकश व प्रेरक लिखे जाते थे, संगीत.. मधुर और गायकों की गायकी.. झूमने के लिए विवश कर देती थी। साहित्य के प्रति आम जनता का रूझान था, छात्रों के पास कोर्स की किताबों के अतिरिक्त दूसरी पुस्तकों को पढ़ने की रूचि व समय, खूब होता था। माता-पिता भी बच्चों को पढ़ते देख कर खुश ही होते थे। बाहरी आबोहवा इतनी जहरीली न थी कि मात्र आवारगी से आनंद जैसे बच्चे चोर-डाकू बन जांय। कभी किसी के बिगड़ने की नौबत आती भी थी तो साहित्य उन्हें संभाल लेता था। गलाकाट प्रतियोगिता,.भौतिक आवश्यकताओं के पीछे अंधे होकर दौड़ने की प्रवृत्ति और दूरदर्शनी संस्कृति ने आम जन को साहित्य से दूर कर दिया। समाज में व्याप्त कटुता, चलचित्रों में दिखाई जाने वाली क्रूरता/अश्लीलता, गीतों में घुलती कर्कशता भी इसी का परिणाम है। संगीत, साहित्य और कला से दूरी का सीधा अर्थ होता है नैतिक पतन, जो हमें आज चहुँ ओर दिखाई पड़ता है।
आनंद के दुसरे नम्बर के बड़े भाई साहब ‘श्रद्धानंद’ भी साहित्य प्रेमी थे। वे बांसफाटक स्थित प्रसिद्ध ‘कारमाइकेल लाइब्रेरी’ के नियमित सदस्य थे। ‘काशी हिंदू विश्विद्यालय’ से लौटते वक्त एक-दो उपन्यास लेकर ही घर लौटते थे। आनंद के क्रोधी पिता, जब सबको ‘श्रद्धा’ भैया की पढ़ाई का बखान कर डांट रहे होते, तो आनंद मन ही मन हंसता रहता था क्योंकि वह वह भली भांति जानता था कि भैया इस वक्त अपने कमरे में बैठकर कौन सी किताब पढ़ रहे हैं ! शायद ही कोई ऐसी किताब होती हो जिसे आनंद ने न पढ़ी हो और उसके भैया ने उसे वापस कर दिया हो। कभी-कभी तो जब्त करके रोके गई हंसी बाहर फूट पड़ती और उल्टे प्रसाद सहित उसी की धुनाई हो जाती, साथ में वचनामृत भी मिलता, “समझा रहा हूँ तो हंसता है !...बद्तमीज ! क्यों हंस रहा था बोल..?” लाख पिटने के बावजूद भी आनंद को सच बताने की हिम्मत नहीं होती थी। अच्छी तरह से जानता था कि यदि बता दिया तो भैया की पिटाई तो होगी ही,.पिता जी के ऑफिस जाने के बाद, भैया उसे कहीं का न छोड़ेंगे।
आनंद का शौक यहीं तक सीमित हो तो क्या कहना ! वह जंगली के साथ ‘सिंघल पुस्तकालय’ जाता तो वहाँ से भी एक-दो पुस्तकें, शर्ट के नीचे, पेट से चिपकाकर, बिना बताए ले आता और दूसरे दिन, जंगली से साथ जाकर वापस वहीं रख आता। वहाँ से लाई जाने वाली किताबों में प्रायः इंद्रजाल कॉमिक्स, चंदामामा, मैंड्रिक, राम-रहीम के जासूसी बाल उपन्यास आदि होते। लाइब्रेरियन भी उसकी आदतें जान चुका था ! आखिर जाने भी क्यों न ? एक दिन की चोरी तो छुप भी सकती है मगर कोई चोरी का धंधा ही अपना ले तो कब तक बचा रह सकता है ! एक दिन लाइब्रेरियन ने बुला कर पूछा, “तुम ‘विजयानंद’ के सबसे छोटे भाई हो न ? फिर तुम्हें किताबें चुराकर ले जाने की क्या जरूरत है ? दूसरे ही दिन, वापस भी कर देते हो ! तुम चाहो तो वैसे भी उनके नाम से ले जा सकते हो !” आनंद को काटो तो खून नहीं ! मारे शर्म के गड़ा जा रहा था, अपने दाहिने पैर का अंगूठा धरती में रगड़ते हुए बस इतना ही कह सका,“भैया को मत बताइएगा।“ इसके बाद दुबारा पुस्तकालय तभी गया जब भैया से ज़िद कर के बकायदा अपने नाम की सदस्यता हासिल कर ली। (जारी......)
कभी न कभी सब बच्चे ऐसे ही छुप कर उपन्यास और पत्रिकायें पढा करते हैं । याद आ गया वो बचपन जब हम लोग सरिता आदि पिता जी से छुपा कर पढा करते थे। रोचक चल रही है कहानी। शुभकामनायें।
ReplyDeleteउपन्यास / पत्रिकायें...चोरी से पढना ! लगा जैसे मेरी ही कथा हो !
ReplyDeleteबहुत किताबें हमने भी पढ़ी हैं चोरी से।
ReplyDeleteबहुत रोचक जी, वेसे हम ने भी कोर्स की किताबो मे बहुत से उपन्यास पधे हे छुपा कर
ReplyDeletekala se doori hamein naitik patan ki aur le jati hai aur wo aj chahun or hamein dikhlayi pad rahi hai...
ReplyDeletePhir bhi kuchh sahitya premi hain, jo kala ko zinda rakhne ki koshish main lage hain, aur kuchh is kala main aj bhi rochakta dhoondh rahe hain.
Iske liye apko bhi aur sabhi pathkon ko bhi badhai.
लोगों ने मेरी किताबे चुराई हैं और मंगनी मांग कर ले गए लौटाई नहीं ....अब मेरा दर्द कौन बांटेगा ?
ReplyDeletesradhdhanand jaise logan ke maaii-baap kitane siidhe-saade hote hain.aur aajakal ke baap to bachchon ko ye padho,ye mat padho ya ye chainel dekho ye mat dekho jaanate huye bhii nahiin kah paate.
ReplyDeleteअरे भाई! किताबों की चोरी भी कोई चोरी है
ReplyDeleteलाईब्रेरियन अच्छा था. लगता है चोरी का मौका देता था.