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मुन्ना का एक सहपाठी था जंगली, जो विशाल के घर के ठीक पीछे रहता था। उसके स्कूल का नाम तो बड़ा अच्छा था ‘धरणी धर सिंह’ लेकिन न जाने क्यों सभी उसे ‘जंगली’ कह कर बुलाते थे । था तो वह,‘मुन्ना’.का सहपाठी लेकिन दोनो के स्वभाव की भिन्नता,पढ़ाई में कट्टर प्रतिद्वंदिता और पिता के कड़े अनुशासन के कारण आपस में अधिक नहीं बनती थी। जंगली एक पढ़ाकू लड़का था। अपने माता-पिता का एक मात्र पुत्र,.उनकी ‘आँखों का तारा’। उसके पिता बिजली विभाग में एक मामूली कर्मचारी थे, ‘श्री त्रिलोकी सिंह’ मगर मोहल्ले में,.सब उन्हें जंगली के पिता के नाम से ही बुलाते थे। उनका एक मात्र स्वप्न था,अपने बेटे को इंजिनीयर बनाना और बिजली विभाग के उसी पद पर बिठाना जहाँ बैठकर उनका अधिकारी रोज उन पर हुक्म चलाता था।
वे घूम-घूम कर मोहल्ले में खुले आम कहते, “हे देखो, यह मेरा बेटा है, दूसरे आवारा बच्चों की तरह नहीं, जो दिनभर गलियों में घूमते रहते हैं। रात-दिन कड़ी मेहनत करता है। देखना, एक दिन ‘इंजिनीयर’ बनेगा और जो तुम सब इसे जंगली-जंगली कह कर चिढ़ाते हो ना, हे देखो, बड़का साहब बन कर जब मोहल्ले में आएगा न, तो..हे देखो,..तुम सब उसको सैल्यूट मारोगे..!” मोहल्ले के लोग उन पर हंसते, “का मालिक,सबेरे-सबेरे भांग चढ़ा लेहले हौआ का ? शुरू हो गइला ! अरे, तू अपने बेटवा के इंजिनीयर नाहीं, बड़का कलेक्टर बना दा, हमनी के का परेशानी हौ ? ई त खुशी कs बात हौ कि मोहल्ले कs लइका इंजिनीयर बनी लेकिन इतना रूआब काहे दिखावला ? अऊर सब लइका का गदहा हौवन ! जा हटा, दिमाग मत खराब करा ! ई झोला मे का हौ ?“ जंगली के पिता चहक कर बोलते, “हे देखो, जिंदा रोहू.s.s.s...तभी न बुद्धि तेज होती है ! तुम सब घास-पात खिला कर सोचते हो कि मेरा बेटा ‘फस्ट’ आएगा ! ऐसे थोड़े न होता है ! हे देखो, मछली खाता है मेरा बेटा ! तभी न सबसे तेज है। मुन्ना, विशाल, आनंद ये सब दिन भर आवारा गर्दी करते हैं गली में, कैसे अच्छा नम्बर लाएंगे ?..हे..देखो..मेरा बेटा अभी पढ रहा होगा।“
“राम..राम..राम..राम...सबेरे-सबेरे मछली ! छी..छी..! तोहे छू लेहली ! अब हमके फिर गंगा नहाए पड़ी ! जा मालिक, तबियत झन्न हो गयल ! जा पहिले अपने बेटवा के इंजिनीयर बना के आवा।“ वे फिर चीखते,”और नहीं तो क्या, बनेगा ही ! तुम सब लाख जलो, लेकिन हे देखो, एक दिन सब उसको सलाम करोगे।“
“राम..राम..राम..राम...सबेरे-सबेरे मछली ! छी..छी..! तोहे छू लेहली ! अब हमके फिर गंगा नहाए पड़ी ! जा मालिक, तबियत झन्न हो गयल ! जा पहिले अपने बेटवा के इंजिनीयर बना के आवा।“ वे फिर चीखते,”और नहीं तो क्या, बनेगा ही ! तुम सब लाख जलो, लेकिन हे देखो, एक दिन सब उसको सलाम करोगे।“
ऐसे थे ‘जंगली के पिता’ और ऐसा था उनका ‘पुत्र प्रेम’। ‘हे देखो’ उनका ‘तकिया कलाम’ था। कई बार तो मोहल्ले के लोग सिर्फ उनकी बातें सुनने के लिए ही उन्हें राह चलते रोक लेते थे। उनका पुत्र मोह सभी के लिए आकर्षण व मनोरंजन का केन्द्र बिन्दु था। वे साए की तरह अपने पुत्र से आठों पहर चिपके रहते थे। जब वह स्कूल जाता या ट्यूशन पढ़ने जाता बस उतनी ही देर उनकी नज़रों से ओझल हो पाता। हालांकि जंगली की एक बड़ी बहन भी थी लेकिन उन्होने उसे कभी स्कूल नहीं भेजा ! पूछने पर कहते , “हे देखो, लड़कियों का जो काम है, सभी तो वो करती है। सिलाई-कढ़ाई जानती है। खाना इतना बढ़िया बनाती है कि हेदेखो,खाओगे तो बस उंगलियाँ चाटते रह जाओगे। का होगा, पढ़ा लिखा के ? काम भर का तो हम खुद ही पढ़ा दिए हैं दूसरे के घर जाएगी, कोई जीवन भर थोड़े न रखना है उसे। हे देखो, जब मेरा जंगली इंजिनीयर बन जाएगा न.... तो इतने धूम-धाम से शादी करूंगा कि सब देखते रह जाओगे। लड़का मालदार होना चाहिए! हे देखो, दहेज से इतना लाद देंगे न...कि हमेशा मेरी बेटी को खुश रखेगा ! का होगा पढ़ा के लड़कियों को ? जितना पढ़ाओ आखिर वही चूल्हा-चौका ही तो है उनके नसीब में !
(जारी....)
जंगली मच्छी महकमें में भर्ती हुआ न !
ReplyDeleteअरे क्या अरविन्द जी को सब पता चल जाता है ? पुत्र मोह और उसके भविष्य को बनाने का खब्त कमोबेश हर पिता में होता है ! संस्मरण सही दिशा में जा रहा है !
ReplyDeleteभाई यह जंगली जरुर किसी बडे पद पर होना चाहिये, ओर यह मच्छी क्या बला हे जी? कही मच्छली तो नही?
ReplyDeleterochak hota ja raha hai sansmaran.
ReplyDeleteUnka putra-prem aur putri ki shiksha ki taraf se ankhen mod lena.
ReplyDeletevidambanayen aur vishwas, dono ka ek behad santulit mishran.
एक मात्र स्वप्न था,अपने बेटे को इंजिनीयर बनाना और बिजली विभाग के उसी पद पर बिठाना जहाँ बैठकर उनका अधिकारी रोज उन पर हुक्म चलाता था।
Jangli ke bapu ko three idiots dikho re bhai, :P
अरे वाह!!!!!! आपका नया ब्लॉग तो आज देख पाई. अभी पढ़ा नहीं है.पढ़ने के बाद प्रतिक्रिया दूंगी वैसे पता ही है आपने लिखा है तो लाजवाब तो होना ही है. फिर भी पढ़ना तो है
ReplyDeleteआगे का भईल ? बहुत्ते मजेदार है.. आगे का इन्तेजार है
ReplyDeleteहे देखो, देवेन्द्र जी - बहुत दिनों के बाद नेट पर आये हैं कल से और इन दिनों में मन बहलाने के नाम पर कई बार काका और बच्चन जी की ’आनंद’ देखी। और गुरू जितनी बार आनंद देखी, उतनी बार आपके आनंद की याद आई।
ReplyDeleteभरपूर रोचक हो रही है श्रृंखला, शुभकामनायें।
..जंगली मच्छी खाता था इसलिए मच्छी विभाग..हा..हा..हा..
ReplyDelete..पिता के विश्वास...बच्चों के कर्म ..देखें क्या होता है..!
..इस ब्लॉग से जुड़ने के लिए सभी का आभारी हूँ।
putr prem to anokhaa hai.magar ladake ka naam jangalii kaise padaa hoga ?
ReplyDeleteपीछे शायद कई यादें छूट गयी हैं एक एक करके पढती हूँ। रोचक यादें हैं। आप संस्मरण बहुत अच्छे और विसतार से लिखते हैं। शुभकामनायें।
ReplyDeleteपुत्रमोह कमोबेश हर कोई पालता है .. हाँ प्रदर्शन का स्तर और तरीका भिन्न-भिन्न होता है
ReplyDeletebahut sundar
ReplyDeleteJai ho banaras.............BANA RAHE RAS......
अरे हां ! जंगली के बाऊ को तो मैं पहले से जानता था , बस आपने फिर से मिलवा दिया !
ReplyDeleteयाद आये अस्सी पर रहने वाले एक दोस्त के पिता और याद आये अमृत और विष के पुत्ती गुरू !
ReplyDeleteहे देखो, उ बंगाली था की जि ?
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