29 December, 2010

यादें-27 ( जासूसों का जासूस )



           कल की घटना, आज का ताजा समाचार और नन्हें जासूस। वे जितना सोचते बात उतनी उलझती जाती। जासूसी उपन्यासों की कहानियाँ और सच्ची जासूसी में कितना फर्क है वे अच्छी तरह जान चुके थे। उन्हें जासूसी का काम उनके हीरो राम-रहीम के कारनामो से कहीं कठिन प्रतीत होने लगा। भले ही उनके पास ईमानदार इंस्पेक्टर नहीं था, उनके घर का माहौल ऐसा नहीं था कि वे उन्हें अपने मन की बातें बता सकें, हथियार नहीं थे मगर एक चीज थी साहस। इसी साहस और जूझने की इच्छा शक्ति से प्रेरित होकर वे अपने किशोरावस्था के हसीन लम्हों का भरपूर आनंद ले रहे थे।    

           एक दिन तीनो पंचगंगा घाट से छोटू नाव वाले की कटर (छोटी नाव) लेकर खुद ही चलाते हुए, अपने पूर्वनिर्धारित योजना के अनुरूप पहँच गये अड़डा न0-1, दशास्वमेध घाट। अपने नाव को थोड़ा किनारे लगा कर जैसे ही वे घाट की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे उन्हें सीढ़ियों पर बैठा विशाल का भाई झिंगन दिखाई दे गया। उसकी मुस्कान बड़ी रहस्यमई थी ! वे जैसे ही पास आए खिलखिला कर हँसने लगा,“अच्छा ! तो अड्डा न0-1 यह है ! चलो जासूसों के दो अड़डों का पता तो चल गया। अड़डा न0-1 दशास्वमेध घाट, अड़डा न0-2 कंपनी गार्डेन। बाकी के अड़डों का पता भी जल्दी ही चल जाएगा। झिंगन की नज़रों से कोई नहीं बच सकता हा..हा..हा...। उसकी हंसी सुन तीनो जल-भुन गये। आनंद मुन्ना से बोला, यह जरूर विशाल की बेवकूफी है। वरना इसे कैसे पता चला...! मुन्ना ने सफाई देनी चाही, हम तो यहाँ वैसे ही घूमने आए हैं। तब तक विशाल बोल पड़ा, नहीं, नहीं मैंने कुछ नहीं कहा। आनंद विशाल से उलझ पड़ा, तब इसे कैसे पता चला ?” उनके झगड़ों को सुनकर मुन्ना की सफाई धरी की धरी रह गई। झिंगन हंसते हुए कहने लगा, तुम लोग आपस में मत लड़ो। हम मूर्ख नहीं हैं। जबसे तुम लोगो ने मुझे अपने साथ खिलाने से मना कर दिया है तभी से मैं तुम लोगों की जासूसी कर रहा हूँ ! तुम लोग जब अड़डे बना रहे थे मैं दरवाजे से कान लगाए बाहर गली में खड़ा तुम लोगों की सब बातें सुना रहा था एक दिन तो तुम लोगों को शक भी हुआ था मगर मैं साफ बचकर निकल आया था ! याद करो। उसकी बातें सुनकर आनंद को सहसा याद आ गया कि उसे कब शक हुआ था। वह खिसियाकर चुप हो गया। झिंगन अपने पूरे लय में था....तुम लोग जब अपना संदेश कागज का गोला बनाकर बरामदे में फेंकते हो तो मैं पहले ही पढ़कर वैसे ही रख देता हूँ ! उस दिन मैं कंपनी गार्डेन भी गया था। उस गुंडे को देखकर तुम लोग कैसे भागे थे ! हम तो वहीं हँसते-हँसते लोट-पोट हुए जा रहे थे। वाह रे जासूसों इतना डर कर भी कोई जासूसी करता है ?” तीनो एक साथ बोले, तो क्या करते उनसे भिड़ जाते ? तुमने उनकी बातें सुनी थी !” झिंगन बोला, मैंने उनकी बातें नहीं सुनी। मैं इतना जानता हूँ कि ऐसे लोग अक्सर ही बैठकर ताश-जूआ खेलते हैं, अंधेरा होते ही शराब पीते हैं। उनको देखकर भागने की क्या जरूरत थी ?” “बस-बस चुप करो। तुमने जब उनकी बातें सुनी ही नहीं तो ......मुन्ना ने बीच में ही विशाल को टोक कर इशारा किया कि चुप रहो। इसने जितना जान लिया है उतना ही बहुत है। फिर झिंगन से पूछा, तुमने और किसी से इसकी चर्चा तो नहीं की !” झिंगन: अब तक तो नहीं की मगर अब हमें अपने में शामिल नहीं किया तो मैं सबको बता दुंगा। मुन्ना ने समझाना चाहा, अभी तुम छोटे हो यही सोचकर.....झिंगनः बस दो साल। दो साल मैं विशाल से छोटा हूँ। अभी चाहो तो रेस करा लो ! कुश्ती लड़वा लो ! मैं इसे यहीं पटक सकता हूँ। विशाल इतना सुनते ही मारे गुस्से के झिंगन को मारने दौड़ पड़ा। मुन्ना ने तुरंत बीच बचाव कर दोनो को शांत किया फिर झिंगन से बोला,ठीक है। हम लोग तुम्हें अपने दल में शामिल कर लेंगे मगर तुम्हें हमारा कहना मानना होगा और एक लिखित और शारीरिक परीक्षा पास करनी होगी। हमारे संविधान में नये सदस्य को शामिल करने की यही शर्त है। झिंगनः मुझे मंजूर है। मुन्नाः तो कल सुबह मेरे घरआ जाना। दिन में 12 बजे। विशालः समझ गया ? अब भाग यहाँ से। विशाल की डांट सुनकर झिंगन अपने दोनो पैर पटकते हुए वहाँ से पलक झपकते ही ओझल हो गया मगर उनकी शर्मिंदगी बता रही थी कि वे झिंगन की बातों से कितने मर्माहत हैं। मुन्ना ने खिसियाकर कहा..साला ! असली जासूस तो यही निकला।विशाल तुरंत बोला, देखो गाली मत दो !” तीनो खिलखिलाकर हँसने लगे।    

           दशास्वमेध घाट का प्रचीन नाम रूद्रसरोवर था। स्कंध पुराण के अनुसार एक बार भगवान शंकर के आग्रह पर स्वयम् ब्रह्मा, वृद्ध साधन हीन ब्राह्मण के रूप में दिवोदास की राज्य सभा में गए। राजा की मदद से, बड़े ठाट-बाट से गंगा के तट पर दश अश्वमेध यज्ञ किया। यज्ञ के पश्चात रूद्रसरोवर का नाम दशास्वमेध घाट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यहाँ ब्रह्मा ने दशाश्वमेधेश्वर शिवलिंग को भी स्थापित किया। वर्तमान में यह शिवलिंग शीतला देवी की मढ़ी में है। यह घाट काशी के मध्य भाग गोदौलिया से जुड़ा हुआ है। वर्तमान में यहाँ सर्वाधिक भीड़ रहती है। नियमित गंगा आरती के आयोजन और प्रतिवर्ष होने वाले सुप्रसिद्ध गंगा महोत्सव ने भी इस घाट को पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बिंदु बना दिया है।

           झिंगन के जाने के बाद तीनो मित्र वहाँ काफी देर तक घूमते रहे। उन दिनो वर्तमान की तरह गंगा आरती तो नहीं होती थी लेकिन तीर्थयात्रियों, स्नानार्थियों की भीड़ हमेशा रहती थी। तीनो ने देखा कि कैसे घाट किनारे बैठे दलाल या मल्लाह यात्रियों को देखते ही उनके रंग, उनके वस्त्रों, सामानो का नाम लेकर उसे अपना बना रहे हैं।  इनमें परस्पर कड़ी प्रतिस्पर्धा है। जिसने जिसको पहले देखा वह उसका माल हो गया। दूर से आने वाला हर यात्री उनके लिए सिर्फ आसामी है। जिसे मौका मिला उसने उसे फंसाया। दर्शन पूजन के नाम पर, घुमाने के नाम पर, जबरदस्त ठगी यहाँ की आम बात थी। बनारसी ठग की लोकोक्ति प्रसिद्ध करने में इनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता ! इन दलालों से पंडो का सीधा संबंध होता होगा। जैसा जजमान वैसी पूजा। प्रसाद की गठरी बांधे खाली हाथ घर लौटते वक्त यात्री ठगा सा महसूस करता मगर मुख से  यही कह कर संतोष करता कि धन्य भाग जो दर्शन पायो। यही आस्था उन्हें काशी की धरती पर खींच लाती है।

           इधर-उधर निरर्थक भटकने के पश्चात वे शाम होते ही अपनी नाव लेकर वापस पंचगंगा घाट पहुँचे, जहाँ नाव वाला उनकी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। उन्हें देखते ही चीखना लगा, काली से नाव ले जाये के होई तs अपने बाहू के लेहले अहिया...! एक घंटा बदे मांग के ले गइला और सांझ ढले आवत हौवा ? तनने पढ़ाई-लिखाई कब कर ले हांय ! चला कल भिन्नए आवत हई तोहरे घरे। बताईब तोहरे बाबू जी से तोहार कारगुजारी।“ तीनो नाव वाले को देर तक मनाते, अरे नाहीं छोटू चचा..अब ऐसन गलती न होई। हमें माफ कर दा। ऊ दशास्वमेध घूमे में सांझ हो गयल।“ छोटू माझी फिर चीखता, अब घरे जैबा कि रात भर यहीं रहबा !” तीनो तेजी से अपने घाट की सीढ़ियाँ तय करते। यह वह जमाना था जब मात्र पचास पैसे या एक रूपैया पा कर भी नाव वाला उफ नहीं करता था बल्कि उसका पूरा ध्यान रहता था कि मोहल्ले के लड़के बिगड़ने न पायं। क्या मजाल कि आप जरा भी गलत करें और घर तक खबर न पहुँचे ! मल्लाहों, धोबियों, पेंटरों, राज मिस्त्री या ऐसे ही छोटे-मोटे काम करने वालों को त्योहारों के मौकों पर दी जानी त्यौहारी या उनके आड़े वक्त दी जाने वाली छोटी-मोटी सहायता के बदले ये हमारे समाज का ताना-बाना कितनी मजबूती से थामे रहते थे इसकी कल्पना भी  वर्तमान के टूटते सामाजिक परिदृष्य में करना  मुश्किल है।
(जारी.....)

12 comments:

  1. इन जासूसों पर हमारी भी नजर है। :-)

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  2. दशाश्वमेध

    @तीनो ने देखा कि कैसे घाट किनारे बैठे दलाल या मल्लाह यात्रियों को देखते ही उनके रंग, उनके वस्त्रों, सामानो का नाम लेकर उसे अपना बना रहे हैं। इनमें परस्पर कड़ी प्रतिस्पर्धा है। जिसने जिसको पहले देखा वह उसका माल हो गया। दूर से आने वाला हर यात्री उनके लिए सिर्फ आसामी है। जिसे मौका मिला उसने उसे फंसाया।

    आज की कड़ी बहुत ही अच्छी लगी। लगा कि आप स्वयं भी एक पात्र हैं।


    ग़जब!

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  3. अड्डों का अपनत्व, जीवन का बालतत्व।

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  4. shershah suri ke bare mein ek bat suni thi. unki grand trunk road ke dono taraf pani pilane wale intelligence ke admi the.
    un dino mein hamare samaj ko thamne mein jin logon ne yogdan nibhaya hai ham sach mein aj ke paridrishya main (jab ki apne padosiyon ke nam bhi ham nahi jante) uski kalpana bhi nahi kar sakte...

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  5. बाप रे जासूसों की भी जासूसी -दशाश्वमेध घाट की पुराकथा रोचक है !

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  6. आप को सपरिवार नव वर्ष २०११ की ढेरों शुभकामनाएं.

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  7. नई-नई जानकारियाँ मिल रही हैं,धन्यवाद.समाज में आरहे परिवर्तनों का भी रुचिकर वर्णन हुआ है.आदमी धीरे-धीरे भावनाओं से दूर ,केवल पैसे में रूचि रखने वाला एक मशीन बन रहा है.लगता है आदमी में आदमियत खत्म हो रही है.

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  8. आज की कहानी झिंगन दि ग्रेट के नाम :)

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  9. vartmaaan ke badlaavon ko bakhooobilikha hai,
    dhanyvaad.
    nav varsh ki haardik shubhkaamnayein.

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  10. जासूसी की शगल भी खूब रही. परत दर परत सांस्कृतिक परिवेश भी बखूबी समेट रहे हैं.

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  11. आनंद कैसे फिर से पुरानी बातें याद आयें ? लगता है वर्तमान में कुछ ज्यादा ही खो गया है.

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