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रविवार की सुबह तीनो ने मिलकर उत्साह के साथ घंटों कमरे की सफाई की। मुन्ना कहीं से कूची, चूना, छोटी सीढ़ी ले आया और तीनो ने मिलकर शाम तक पूरे कमरे की बकायदा सफेदी कर दी। आठ बाई छः फुट का छोटा सा कमरा उत्साही बालकों की मेहनत से चमचमा उठा। कमरे के साथ-साथ तीनो ने अपनी सफेदी करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी। कपड़े तो बुद्धिमानी पूर्वक अलग रख दिए गए थे लेकिन चढ्ढी-बनियाइन के साथ-साथ तीनो की हालत भी देखने लायक थी। तीनो ने तय किया कि इस हालत में घर जाने से बेहतर है गंगा जी जाकर नहा लिया जाय वरना घर वाले फिर कभी घर की सफेदी के लिए दूसरे मजदूर नहीं बुलाएंगे। रास्ते में एक सिक्का साबुन खरीद लिया जो उन दिनो कपड़ा धोने के लिए खूब इस्तेमाल होता था। घर से गंगा जी की दूरी बहुत कम थी लेकिन मोहल्ले में निकलते ही उनकी उम्र के दूसरे लड़कों को यह खबर मिल चुकी थी कि तीनो ने जाड़े में खूब होली खेली है और शाम के समय गंगा जी रंग छुड़ाने गए हैं। एक कान, दुई कान, मैदान होते हुए यह खबर तीनो के घर पहुंच चुकी थी कि आज तीनो, शाम के समय गंगा जी नहाने गए हैं। घर से छुपाने के चक्कर में तीनो ने पूरे मोहल्ले को जता दिया और मोहल्ले से घर को खबर हुई सो अलग।
तीनो ने जमकर चूना छुड़ाया, खूब नहाया और कंपकपाते-दांत किटकिटाते जब घर पहुंचे तो तीनो के स्वागत में उनके पापा दरवाजे पर और माताएं अपने-अपने घरों के बरामदे-खिड़कियों पर ईश्वर को हाथ जोड़े भयभीत मुद्रा में खड़े दिखाई दिए। माताएं प्रार्थना कर रही थीं कि हे ईश्वर, गंगा मैया से तो मेरा बच्चा सकुशल वापस आ गया अब इसके बाप से भी आप ही बचा सकते हो। कहना न होगा कि तीनो के दिनभर के श्रम का फल उन्हें भरपूर मिला । उन्होने यह तो कबूल कर लिया कि वे मुन्ना के घर में चूना लगा रहे थे मगर लाख तोड़ाई के बाद भी यह नहीं बताया कि वे चूना क्यों लगा रहे थे। जो बच्चे घर का कोई काम अपनी ईच्छा से नहीं करना चाहते वे आज दूसरे के घर में जाकर सफेदी कर रहे हैं यह बात घरवालों के लिए कौतूहल व चिंता का विषय था।
003 की स्थापना के पश्चात तीनो प्रायः कमरे में बैठकर गंभीर मंत्रणा किया करते। मुन्ना एक रजिस्टर ले आया था। पैसे गुल्लक में डाले जाने लगे थे। मुन्ना रजिस्टर में बकायदा आय और खर्च का हिसाब रखता। इस समय उसका रजिस्टर बता रहा था कि आय में 3 रू और व्यय में 6 रू पचहत्तर पैसे जमा हो चुके हैं। यह व्यय कमरे की सफाई में लगे चूने, रजिस्टर, गुल्लक, बल्ब, कलम, कापी आदि के कारण हुए थे। आनंद और विशाल इस बात के लिए खूब झगड़ चुके थे कि यह कमरा तो मुन्ना का ही है, इसकी सफाई का खर्च हम क्यों वहन करें चालाक मुन्ना उन्हें समझा चुका था कि यह कमरा मैने 003 नामक संस्था को दिया है। मैं इसका किराया नहीं लेता यही क्या कम है। अम्मा तो कई बार कह चुकी हैं कि कमरा 10रू महीने पर उठा देते हैं मगर मैं ही अपनी पढ़ाई के नाम पर इसे नहीं जाने देता। इसके बाद फिर किसी ने कुछ नहीं कहा।
(एक दिन तीनो कमरे में बैठकर संस्था के बारे में विचार-विमर्श कर रहे थे)
मुन्नाः आखिर कब तक हम यूँ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे….?
आनंदः हाँ, यह तो है। जासूस लोग तो जगह-जगह घूमने जाते हैं तब उन्हें कोई अपराधी हाथ लगते हैं।
विशालः क्यों न हम भी घूमने चलें...! वहाँ, जहाँ अपराधियों के मिलने की संभावना हो..!
आनंदः ऐसा करते हैं, हम भी अपराधियों की तरह अपना अड्डा बनाते हैं ! जब हमें मिलना हो तो सिर्फ नम्बर बता दें और पहुँच जांय…! विशाल का छोटा भाई आजकल हम लोगों पर कड़ी नजर रखता है। कहीं उसने हमारी जासूसी कर दी, घर वालों को खबर कर दिया तो लेने के देने पड़ जायेंगे…!
मुन्नाः हाँ, सही कह रहे हो..। अब हमें खतरनाक जगह की तलाश कर उसके कोड निर्धारित करने पड़ेंगे। ताकि उसी कोड से एक-दूसरे को संकेत दे सकें। साथ ही सभी को साइकिलिंग, तैराकी, जूडो-कराटे आदि भी सीख लेनी चाहिए ताकि कोई हम पर आक्रमण न कर सके।
विशालः तैरना, साइकिल चलाना सभी को आता है। जूडो-कराटे के लिए किसी सिखाने वाले की आवश्यकता होगी। वह तो हमें कहीं नहीं दिखता !
मुन्नाः हाँ, जूडो कराटे के लिए प्रशिक्षक की आवश्यकता है मगर तब तक हम काशी व्यायाम शाला जाकर मलखम्भ, जिमनास्टिक सीख सकते हैं...वेट लिफ्टिंग से अपना दम-खम बढ़ा सकते हैं...भोर में उठकर दौड़ लगा सकते हैं।
आनंदः यह सुझाव बहुत अच्छा है । रूको > सब गड्डमगड्ड मत करो > एक-एक कर सब रजिस्टर में नोट कराते जाओ...पहले अड्डे तय कर लो..। मैं समझाता हूँ...> अड्डा न0-1..’दशाश्वमेध घाट’ ठीक रहेगा। यह घाट ‘धार्मिक और पर्यटन’ की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। वहाँ अपराधियों के आने की पूरी संभावना है।
विशालः हाँ...अड्डा न0-2 ‘कम्पनी गार्डेन’ ठीक रहेगा...वहाँ सुबह तो बुढ्ढे और रोगी ही मिलते हैं लेकिन शाम के समय अपराधी भी मिल सकते हैं।
मुन्नाः हा..हा..हा...सुबह तो तुम्हारे बाऊजी भी मिल सकते हैं !
विशालः तभी तो कह रहा हूँ...शाम के समय।
मुन्नाः ठीक है....मेरे विचार से अड्डा न0-3 के लिए ‘राजघाट’ का ‘मालवीय पुल’ या वहीं ‘बसंत कॉलेज’ के पीछे का ‘वरूणा का कछार’ ही सर्वोत्तम रहेगा...मैं गया हूँ वहाँ...वह इलाका काफी सुनसान रहता है।
आनंदः अड्डा न0-4 ‘सारनाथ का खण्डहर’ और अड्डा न0-5 ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ का ‘विश्वनाथ मंदिर’ ठीक रहेगा। इस प्रकार हम सम्पूर्ण बनारस का ध्यान रख सकेंगे और अपराधी हमारी नजरों से बच नहीं सकते।
मुन्नाः हा..हा..हा..तुम तो ऐसे कह रहे हो कि अब कल से शहर में अपराध होगा ही नहीं..! सिर्फ अपराधियों की तरह अड्डा बना लेने से अपराधी पकड़े जाते तो यह काम पुलिस बहुत पहले कर लेती !
विशालः अब मीन मेख मत निकालो...! जो काम हो रहा है उसे होने दो...(मुन्ना के बोलने के तरीके की नकल करते हुए) मेरे विचार से अड्डा न0-3 राजघाट रहेगा कौन कहा था ? बात करते हो…!
आनंदः तुम तो मजाक उड़ाने लगे...! मजाक ही उड़ाना था तो सहमत क्यों हुए ?
मुन्नाः अरे..रे...गुस्सा मत करो....! मैं तो मजाक कर रहा था। अब जासूस बन गए तो क्या एकदम से खड़ूस बनकर गंभीर चर्चा ही करेंगे...! थोड़ा हंसना भी तो जरूरी है। तुम लोगों ने अड्डे तो खूब बनाए लेकिन सब बहुत दूर-दूर.....! अरे एकाध नजदीक का स्थान भी रख लिया होता ताकि वहाँ वाकई पहुँजा जा सके।
विशालः हाँ, अपने बुद्धि का ठीक ऐसे ही सीधे इस्तेमाल किया करो...उल्टी खोपड़ी मत चलाया करो। नजदीक का अड्डा तो बहुत जरूरी है।
आनंदः तो इसमें कौन सी समस्या है सबसे नजदीक ‘पंचगंगा’ घाट तो है ही...उसे अड्डा न0-6 बना लो। ‘पंचगंगा’ घाट में अपराधी नहीं आते यह ठीक है लेकिन एकाध स्थान तो ऐसा भी होना चाहिए जहाँ बैठकर हम शांति पूर्वक अपनी योजना बना सकें।
मुन्नाः यह ठीक है। अब बस किया जाय। 6 अड्डे पर्याप्त हैं। क्या तुम सब इतनी दूर-दूर जा आओगे ? सबके पास साईकिल भी तो नहीं है !
विशालः क्यों न हम अपने दल के सदस्यों की संख्या बढ़ा लें ? ताकि एक ही दिन सभी अड्डों की निगरानी की जा सके। मेरा भाई झिंगन भी बहुत बहादुर है...!
आनंदः ठीक है मगर वह अभी बहुत छोटा है...।
मुन्नाः हाँ, उसके द्वारा राज खुल जाने का खतरा है। राज खुल जाने पर घर से बाहर निकलना भी मुश्किल हो जाएगा। अभी हमें अपनी पढ़ाई भी तो.....
आनंदः रूको...! देखो बाहर गली से कोई दरवाजे पर खड़ा हमारी बात......
विशाल: (दौड़कर बाहर जाते हुए) मैं देखकर आता हूँ.....(वापस आकर) नहीं..बाहर कोई नहीं था मैं देखकर आया हूँ...! तुम्हारा वहम होगा..!
आनंदः (सशंकित हो )....पता नहीं, मुझे ऐसा लगा मानो कोई हमारी बात सुन रहा था....! अगर ऐसा हुआ तो बड़ा खतरा होगा...!
मुन्नाः नाहक डर रहे हो...अब आगे से हम खुले मैदान में अपनी योजनाएँ बनाएंगे...ताकि इस प्रकार की कोई समस्या ही न रहे..।
विशालः हाँ, यह ठीक रहेगा...यहाँ तो कमरे से बाहर कोई भी हमारी बात सुन सकता है !
आनंदः ठीक है....अब चलो थोड़ा....(हवा में बैट चलाने का अभिनय करते हुए)…हो जाय..
विशालः चलो चलें.....(मुन्ना से विदा लेते हुए) कल अड्डा न0-6 दिन में 3 बजे.....
(जारी...)
बचपन को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। आभार।
ReplyDeleteअभी अभी अपने प्रोफाइल में यह शेर लिखा। सुनाता चलूँ:
थोड़ा बैठो मेरे पास कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं।
गर पूछोगे तफसील तो कह दूँगा - मुझे कुछ नहीं पता ;)
शृंखला चालू रहे। अपन साथ साथ चल रहे हैं।
सुंदर शेर गिरिजेश जी,
ReplyDelete..यूँ लगा मानो किसी ने बच्चों के कलरव गान को सुन, चुपके से एक दीपक जलाया और दोनो बाहें ऊपर उठाकर, शुक्रिया अदा कर, चल दिया।
बचपन भी कितना सरल सहज होता है शायद जीवन के जुगाड भी इसी सरलता मे सीखने शुरू कर देता है। रोचक हो रही है कहानी।
ReplyDeleteखूब अड्डे तय किये बच्चों ने... और गिरिजेश जी ने तुक मिला दी :)
ReplyDeleteसाथ तो हम भी बने हुए है भाई :)
आज जल्दी में लौटकर जाना पड़ रहा है! ठीक से पढ़ भी नहीं पाया...फिर आऊँगा!
ReplyDeleteअरे मेरी टिप्पणी कहाँ गयी और किसी के बाक्स में डाल दी क्या ? उम्र का असर होने लगा है ...
ReplyDeleteअड्डे अडियों में बदल जायेगें !
काश उस समय तक मोबाईल भी आ गया रहता ,,,
ReplyDeleteकोई बात सुने या न सुने ,यह बात सवा सेर की है की दीवार के कान होते हैं इसलिए सजगता पसंद आयी ..
इसी बहाने सुबह सुबह ही सुबहे बनारस का एक पर्यटन भी हो गया ..
पहली टिप्पणी से कुछ याद कर यहाँ उकेर दिया ...
चलिये अड्डा तो तैयार हुआ!
ReplyDeletewah re bachche
ReplyDeleterachna achhi chal rahi hai, padhate rahiye
गजब की यादें हैं। पढ़कर अपना भी मिलता जुलता बचपन याद कर लेते हैं।
ReplyDelete'उन्होने यह तो कबूल कर लिया कि वे मुन्ना के घर में चूना लगा रहे थे मगर लाख तोड़ाई के बाद भी यह नहीं बताया कि वे चूना क्यों लगा रहे थे।'
ReplyDeleteबता देते तो फिर जासूस कैसे