“कार्तिक पूर्णिमा के दिन इधर दीप जलते उधर दुर्गाघाटी मुक्की शुरू हो जाती । होली की मुक्केबाजी का जो कसर शेष रह जाता उसे आज के ही दिन चुकाया जाता। दरअसल होता यह था कि होली के दिन मोहल्ले के छोरे, रंग खेल कर दुर्गाघाट स्थित राम मंदिर के सामने चौड़ी गली पर जमा होते और वहीं ताल ठोंक कर इक-दूजे को मुक्केबाजी का निमंत्रण देते। मोहल्ले के बूढ़े-बड़े निर्णायक की भूमिका निभाते और जम कर मुक्केबाजी होती। होते-होते बात अक्सर बिगड़ भी जाती। अपने छोटे भाईयों को पिटता देख बड़े भी शामिल हो जाते। बड़ों के शामिल होने का मतलब बड़ी लड़ाई का दावत। प्रायः ऐसा भी होता कि ये भांग या शराब के नशे में चूर एक-दूसरे से इतना उलझ जाते कि मरने मारने पर आमादा हो जाते। होते-होते बात इनके घरों तक पहुँचती। घर के बुजुर्ग मैदान में उतर कर अपने-अपने पक्ष को डांट-डपट कर शांत करते...कमजोर पक्ष अपेक्षाकृत अधिक ताकतवर के सम्मुख नतमस्तक होता । कोई कहता, “होली कs त्यौहार हौ मालिक ! खेल-खेल में त्यौहार कs सत्यानाश मत करा ! ई त प्रेम कs त्यौहार हौ ! चला गले मिला।” दूसरा चीखता, “अबे चुप रे मादर.....! अब बोलले तs यहीं काट के फेंक देब ! देखत ना हौए, गुरूजी कहत हौवन..! भाग रे भोनुआं...भाग रे बचनुआँ...छोटे तनिक समझाव सारे के...!” इन सब धमाचौकड़ी, गाली-गलौज, मान मनौव्वल के बाद किसी तरह झगड़ा शांत होता लेकिन जो कसक मन में दबी रह जाती, वह कार्तिक पूर्णिमा के दिन पूर्ण करने का संकल्प, हारा हुआ पक्ष मन में लिए रहता। इसी प्रकार कार्तिक पूर्णिमा के दिन जो मुक्केबाजी होती, उसमें हारा हुआ पक्ष दूसरे को होली के दिन देख लेने की धमकी देता। कालांतर में एक भीषण घटना घटी जिसके कारण आपस में वैमनस्व इतना बढ़ गया कि चोट खाकर भी हँसते हुए पान घुलाकर गले मिलने की दुर्गाघाटी मुक्की की पुरानी स्वस्थ परंपरा पूर्णतया विलुप्त हो गई।“
आज कार्तिक पूर्णिमा है। सुबह से गंगा-स्नान करने वालों की भीड़ से गंगा के घाट गुँजायमान हैं। संपूर्ण बिंदु तीर्थ और आस पास के मोहल्लों का उत्साह देखते ही बनता है। एक ओर घाटों की साफ-सफाई का कार्य जोरों पर है तो दूसरी ओर दुर्गाघाटी मुक्की की तैयारी। दुर्गाघाट की ऊँची खड़ी सीढ़ी पर जहाँ दिन ढले देव दीपावली मनाने की तैयारी चल रही है तो मोहल्ले-मोहल्ले में हम वय छोरे, घूम-घूम कर इक-दूजे को ताल ठोंक, मुक्केबाजी का चैंलेज देते फिर रहे हैं।
दो-चार दिन में आनंद पूर्णतया ठीक हो गया था मगर गंगा जी में डूबने की घटना ने पूरी जासूस मंडली के होश-ठिकाने ला दिए थे। कोई कहीं पिटाया तो कोई कहीं। घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। हालांकि आनंद ने पूरा इल्जाम अपने सर पर ही लिया मगर सभी समझ गए कि यह इन तीनों बच्चों की बेवकूफियों का ही परिणाम था। घर से बाहर निकलते ही तीनो में से किसी को भी देख, सब ऐसे हंसते मानो इनसे बड़ा बेवकूफ धरती पर दूसरा नहीं है। कोई कहता, “का गुरू ? चला हमहूँ के सिखाय दा.. हाथ-पैर बांध के कैसे तैरल जाला !” तो कोई कहता, “बच गईला बच्चू नाहीं तs गैले रहला !” घर से गंगा जी नहाने की सख्त मनाहीं हो गई सो अलग। तीनो मारे भय के एक दूसरे से मिलने की भी हिम्मत नहीं कर पाते थे।
विशाल और श्रीकांत के बीच होने वाले संभावित मुक्केबाजी की उत्सुकता आनंद और मुन्ना को भी घाट तक खींच लाई थी। गोधूली बेला बीत चुकी थी। चँद्राकार बनारस की घाटों में पंचगंगा घाट का ‘हजारा दीपस्तंभ’ और दुर्गाघाट की सीढ़ियों पर जल रहे दीप, अलग ही आभा बिखेर रहे थे। चम-चम चाँदनी से नहाई गंगा की लहरें और ठीक ऊपर आकाश में टंगे पूर्ण चन्द्र को देख कर यूँ प्रतीत हो रहा था मानो भगवान शिव स्वयम् देवताओं के साथ उपश्थित हो इस दीप पर्व और मुक्केबाजी प्रतियोगिता का आनंद ले रहे हैं। किशोरों में दीप जलाने की होड़ लगी थी। श्रीकांत के पिता और मराठी समाज की दीप जलाने में महति भूमिका होती थी। श्रीकांत ऊपर खड़ा पिता के जाने की प्रतीक्षा कर रहा था तो नीचे से विशाल बार-बार श्रीकांत को मैदान में उतरने के लिए ताल ठोंक रहा था। आनंद और मुन्ना कभी सीढ़ी के सामने चौड़े पत्थर के घाट पर हो रहे धमाल को देखते तो कभी श्रीकांत की विवशता का आनंद लेते।
कभी-कभी बड़ा ही रोचक दृश्य उपस्थित हो जाता। कोई सीकिया पहलवान किसी मोटे पहलवान को ताल ठोंककर चुनौती दे आता...! मोटा ऐसे गुर्राता मानो कोई हाथी चूहे को सूंड़ में लपेटकर सौ योजन दूर फेंक देना चाहता हो ! भीड़ चीखती, “हाँ..हाँ होई...! का भयल हौ...? तू आवा न…! हाँ रे बेटा, चल आगे… ! आवा पहलवान...!” कोई चीखता, “हड्डी पे कबड्डी होई ताक धिना धिन..।” पूरी भीड़ अचानक से गोल घेरा बना कर उछलने-कूदने लगती। चूहा जब तक पकड़ में न आता, गोल-गोल खूब घूम कर ताल ठोंकता मगर जैसे ही हत्थे चढ़ जाता, मोटा पहलवान उसे दोनो हाथों से ऊपर उठाकर चारों तरफ घूमाता... “यहीं फर्श पर पटक देब सारे के...! जिनगी में केहू से कब्बो मुक्की लड़े कs नाम न लेई...!” भीड़ फिर चीखती.. “अरे रे...! जाय दा सरदार...! मर जाई बेचारा...! तोहें फेके कs मन हौ तs फेंक दs सारे के.. ऊ..s.s.. मढ़ी से, सब पाप धुल जाई।” मोटा पहलवान हँसता हुआ सीकिया पहलवान को मढ़ी से पानी में फेक देता। सभी नारा लगाते “हर हर महादेव।” कभी कोई मुक्की खा कर अपने दांत तुड़वाता ..फर्श पर खून की बूंदें गिराता...देख लेने की धमकी देता घर की राह पकड़ता।
ऐसी रोचक घटनाओं के बीच छोटे-छोटे किशोर भी लड़वाये जाते। जैसे ही श्रीकांत के पिता जी घर गए, विशाल और श्रीकांत ने भी अपने-अपने हाथ आजमाए...। बात आगे बढ़ती इससे पहले ही बड़े पहलवानो ने दोनो को गले मिलवाया, एक-एक माला पहनाई और दोनो हँसते हुए अपने साथियों के साथ घर की ओर चल पड़े।
(जारी....)
रोचकता प्रवाहमान है।
ReplyDeleteमजेदार ,बनारसी जीवन का यह अनछुआ संस्मरण अबाध चलता रहे ....
ReplyDeleteजबरदस्त लेखन , परम्पराओं में खुन्नस निकालने के पूरे मौके होते हैं ताकि शेष 'केवल भले सम्बन्ध' रह जाएँ पर अक्सर ऐसा हो नहीं पाता !
ReplyDeletebahut hi rochak bani hue hai yaaden.....
ReplyDeleteमजा आ गया सर आज बनारस याद आ गया ....
ReplyDeleteआज बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी याद आ गयी ......
अस्सी घाट पर बिताए वो दिन याद आ गये ....
धन्यवाद भाई ........
Hmmmmm…………..यहां तो पूरी किताब लिख दी है आपने ……..यह भाग पढ़ा …..रोचक है …. साथ ही कथा का प्रवाह बाधे रख रहा है …..अब नियमित पढ़ेगे .............अगली बार फिर डांट नहीं खानी है :) :)
ReplyDeleteआंचलिकता का पुट भी दिख रहा है और रोचकता के तो क्या कहने
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