10 December, 2010

यादें-25 (कंपनी बाग..देश की सरकारें..और नन्हां जासूस)


             बचपन जितना डरता है उतना ही साहस भी रखता है। वह कब किस बात पर डर जाय और कब हाथ पैर बांधकर नदी में कूद पड़े कहना मुश्किल है। जब तक यह ज्ञान न हो कि जला देगा, बच्चा अंगारे को भी अपनी नन्हीं उंगलियों से पकड़ने के लिए उद्यत रहता है। मगर जैसे ही उसे ज्ञान हो जाता है, वह उसे कभी छूने की हिम्मत नहीं करता। यह साहस ही है कि गंगा किनारे रहने वाले किशोर गंगा को तैरकर आसानी से पार कर लिया करते हैं, यह साहस ही है कि मात्र एक पतंग को लूटने के चक्कर में बनारस की तंग गलियों के बच्चे बंदर की तरह एक छत से दूसरे छत पर कूदते ही रहते हैं, दुर्भाग्य से जरा सा भी पैर फिसला तो गिरे कई मंजिल नीचे गली में। प्रायः हर साल इन गलियों में पतंगबाजी के चक्कर में बच्चों के छत से गिरकर मरने की खबरें अखबारों में छपती रहती हैं मगर आज भी पतंगबाजी का शौक बदस्तूर जारी है।

             कोई दुर्घटना बच्चों को दहला सकती है, जख्म उन्हें रूला सकते हैं मगर यह नहीं हो सकता कि हमेशा के लिए उनकी इच्छाओं का, स्वप्नों का, साहस का गला घोट दे। यदि उनके हाथ-पैर सलामत हैं तो दौड़ेंगे ही, दिल है तो धड़केगा ही, मन है तो मचलेगा ही। वक्त उन्हें अधिक दिनो तक भय रूपी पिंजड़े में कैद करके नहीं रख सकता। यही आनंद के साथ भी हुआ। गंगा जी की घटना ने उसे हिला दिया मगर कुछ ही दिनो के पश्चात दुगने उत्साह और उमंग से उसने खुद को तैयार कर लिया। मुन्ना और विशाल की हिम्मत उसके घर जाने की नहीं थी मगर एक सुबह जब मुन्ना ने अपने कमरे में कागज की गेंद पाई तो उसे आश्चर्य से खोलकर देखने लगा। उसमें सिर्फ इतना ही लिखा था, मिलोअड्डा न0-2 शाम चार बजे।  पढ़कर मुन्ना खुशी से उछल पड़ा। ऊपर देखा तो समझ गया कि आनंद ने बाहर गली से इस रोशनदान के सहारे अंदर फेंका होगा। वैसा ही एक कागज विशाल को अपने घर के बरामदे पर मिला। वह भी प्रसन्ना से नाचने लगा।
                
               बागों के महत्व को ईस्ट इंडिया कंपनी  ने बखूबी समझा था। उन्होंने  भारत के जिन शहरों में अपने फौजी अड्डे बनाये वहां हवाखोरी के लिए सब से पहले सघन बाग संरक्षित किये। ये बाग कंपनी बाग के नाम से आज भी जाने जाते हैं। बनारस में भी मैदागिन चौराहे के पास एक कम्पनी बाग है जिसमें अब भारतेंदु हरिश्चन्द्र उद्यान के नाम की एक पट्टिका लगी है। बाग में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की प्रतिमा है जिसका अनावरण 8 अप्रैल सन् 1988 को माननीय कृष्ण चन्द्र पंत, रक्षा मंत्री, भारत सरकार द्वारा हरिश्चन्द्र महाविद्यालय के छात्र संघ के प्रयासों से किया गया है। इसके अलावा बाग में एक सूख चुका फौव्वारा, तीन छोटे-छोटे घास के मैदान हैं जिसके चारों तरफ ताड़ के वृक्ष लगे हैं। चारों तरफ मैदान को विभक्त करती पक्की सड़क और दूसरे छोर पर एक बड़ा सा तालाब है। तालाब के भी चारों तरफ पक्की सड़क तथा तीन ओर पक्के घाट बने हैं। बाग के पूर्व दिशा की तरफ जो घाट है उसके इर्द-गिर्द जगह-जगह बैठकर, स्थानीय जनता ताश की महफिल भी जमाती है।

              बात सन् 1976 की है । आपातकाल के दंश से अनभिज्ञ आनंद, स्कूल से नजदीक होने के कारण, इसी कम्पनी बाग में भागकर तितलियाँ पकड़ने और तरह-तरह की शैतानियाँ करने में मस्त रहता था। आज की तुलना में बाग का दृष्य भी दूसरा ही था। आज जहाँ एक कोने में जल कल विभाग, दूसरे कोने में बिजली विभाग का कब्जा है, तब यह सब नहीं था। बाग थोड़ा बड़ा और फूल-पौधों से हरा-भरा दिखता था। फौव्वारे में पानी था जिसमें शाम के समय रंगीन बल्ब की रोशनी में इसकी सुंदरता देखते ही बनती थी। तालाब में मछलियाँ थीं। कहीं-कहीं कमल के फूल भी खिले दिखलाई पड़ते थे। इस क्षेत्र के लोगों के लिए ले दे कर यही जगह थी जहाँ वे अपनी शामें बिता दिया करते थे। आज जहाँ ताश की अड़ी जमती है वहीं देश के भविष्य और आपातकाल पर बुजुर्ग गंभीर बहस में व्यस्त रहते थे।
            
             आज आनंद नहीं, नन्हां जासूस स्कूल से सीधे अपने अड्डे पर साड़े तीन बजे से, तालाब के पश्चिमी घाट पर बैठा, अपने दो साथियों की बाट जोह रहा था। अभी गार्डेन में कोई खास चहल-पहल नहीं थी। उसने देखा, जहाँ वह बैठा हुआ है उसके कुछ ही दूरी पर घाट के दोनो ओर बने चबूतरों में से एक चबूतरे की सीढ़ी पर, तालाब के किनारे, एक वृद्ध सज्जन बैठे हुए हैं। उनके बायें हाथ में एक प्लास्टिक की थैली है जिसमें आंटे की नन्हीं-नन्हीं गोलियाँ रखी हैं और दाहिने हाथ से वह एक-एक कर इन गोलियों को निकालकर तालाब के पानी में फेंकते जा रहे हैं। एक मछली आती है, उनके द्वारा फेंकी गई गोली खाती है, ठहरे पानी से कुछ बुल्ले उठते हैं, कुछ लहरियाँ बनती हैं फिर कुछ देर बाद दूसरी गोली....और यह क्रम बदस्तूर जारी रहता है। तालाब के पूर्वी घाट पर जो एकदम सूनसान था, एक मछुआरा पानी में बंसी डाले बैठा हुआ है। एक मछली आती है, कांटे में फंसती है, वह झटके से बंसी खींचता है। कांटे से बंधी मछली तड़फड़ाती बाहर चली आती है। वह कांटे से मछली को अलग करता है फिर बंसी पानी में डालकर पहले की तरह बैठ जाता है।

             आनंद को लगा कि मछुआरा मन ही मन वृद्ध को धन्यवाद दे रहा होगा कि यह मूर्ख उसकी मछली को खिला-खिला कर मोटा बना रहा है ! एक तरफ तो धर्मात्मा उसके शिकार को मोटा बना रहे हैं दूसरी तरफ बेचारी मछलियों का भ्रम भी बढ़ा रहे हैं । जो मछलियाँ वृद्ध का आंटा खा कर उस किनारे जाती होंगी वे क्या जान पायेंगी कि अबकी बार जो चारा उसे पानी में दिखलाई पड़ रहा है वह प्रेम से खिलाए जाने वाला खुराक नहीं, गले में अटकने वाला कांटा है ! बिना सोचे समझे किया जाने वाला पुण्य भी पाप में बदल जाता है। भोले भाले प्राणियों पर दया भी सोच समझ कर करनी चाहिए। हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई मछुआरा उसके दान का अनुचित लाभ तो नहीं उठा रहा है। प्रायः देश की सरकारें भी यही गलती कर बैठती हैं।

             आनंद से न रहा गया। वृद्ध के पास जा कर पूछा, बाबू जी, यह आप क्या कर रहे हैं ?” वे बोले, देखते नहीं, मछलियों को चारा खिला रहा हूँ। इससे बड़ा पुन्य मिलता है। आनंदः वह (मछुआरे को दिखा कर) जो बंसी लटकाए मछली फंसा रहा है, वह क्या कर रहा है ?” वृद्धः वह पापी है। फल भोगेगा। आनंदः क्षमा कीजिए बाबू जी, आप भी तो इन मछलियों को चारा खिलाकर उसकी मदद ही कर रहे हैं। वृद्धः वह कैसे ? आनंद: वह ऐसे बाबू जी कि आप द्वारा खिलाया गया चारा उसके शिकार को ही मोटा-ताजा बना रहा है। वृद्ध एक पल के ठिठका फिर आनंद को घूरते हुए क्रोधित हो बोला, तू नहीं समझेगा ! भाग यहाँ से ! तेरी उम्र खेलने-कूदने की है, जा अपने खेल में ध्यान लगा। आनंद कुछ न बोला। चुपचाप लौटकर अपनी जगह बैठ गया मगर उसने देखा कि कुछ देर बाद, वृद्ध ने झल्लाकर थैली की सारी गोलियाँ एक साथ पानी में फेंक दीं और घृणा पूर्वक आनंद को देखता हुआ वहाँ से उठकर चला गया। आनंद ने दोनो कंधे उचकाते हुए मन ही मन सोचा, सच कितना कडुवा होता है ! प्रायः देश के नेता मीडिया की सच बयानी पर यूँ ही झल्ला जाया करते हैं।
(जारी.....)

13 comments:

  1. हर नगर में कम्पनी बाग दिख जाते हैं, एक सराहनीय प्रयास कम्पनी के द्वारा।

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  2. “वह ऐसे बाबू जी कि आप द्वारा खिलाया गया चारा उसके शिकार को ही मोटा-ताजा बना रहा है।“

    kitna sach likh diya,,,,,baato baato me...:)

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  3. आनंद ने बिचारे का सारा धर्म पलक झपकते रसातल कर दिया ....
    एक तरह से उनको पाप मिल रहा था क्योकि मछ्लियो को आंटे की गोली खिला खिला कर वे आंटे की गोली के प्रति मछलियों को कंडीशन कर रहे थे और सहजता से दूसरी छोर पर फंस रही थीं .....आनन्द ने उन्हें इस पाप से बचा लिया ....

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  4. आनन्द का भोला मन ... बेचारे के धर्म के रास्ते में आ गया.
    यह बिम्ब तो शायद हर जगह फिट बैठता है

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  5. बाग तो आज भी युरोप के हर शहर मे भरपुर मिलते हे, लेकिन भारत मे जो अग्रेज बना गये उन्हे बचा पाना भी कठिन हे,हरियाली की जगह गंदगी ही दिखाई देती की, कसूर वार कोन?
    इस सुंदर पोस्ट के लिये धन्यवाद

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  6. @ एक सुबह जब मुन्ना ने अपने कमरे में कागज की गेंद पाई तो उसे आश्चर्य से खोलकर देखने लगा। उसमें सिर्फ इतना ही लिखा था, “मिलो…अड्डा न0-2 शाम चार बजे।“

    यह तकनीक आस पास के घरों में पनपते प्रेम सम्बन्धों में भी आजमायी जाती थी। अब तो मोबाइल एस एम एस...

    @एक मछली आती है, उनके द्वारा फेंकी गई गोली खाती है, ठहरे पानी से कुछ बुल्ले उठते हैं, कुछ लहरियाँ बनती हैं फिर कुछ देर बाद दूसरी गोली....और यह क्रम बदस्तूर जारी रहता है। तालाब के पूर्वी घाट पर जो एकदम सूनसान था, एक मछुआरा पानी में बंसी डाले बैठा हुआ है। एक मछली आती है, कांटे में फंसती है, वह झटके से बंसी खींचता है। कांटे से बंधी मछली तड़फड़ाती बाहर चली आती है। वह कांटे से मछली को अलग करता है फिर बंसी पानी में डालकर पहले की तरह बैठ जाता है।

    क्या पर्यवेक्षण है! वाह!!

    पुन्य - पुण्य

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  7. अम्रतसर का कम्पनी बाग--- पढ कर पुरानी यादें ताज़ा हो गयी। रोचक संस्मरण चल रहा है। आगे इन्तजार रहेगा। धन्यवाद।

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  8. कागज के गोले से गिरिजेश जी को आस पास के घरों में प्रेम प्रसंग याद आये !
    बुजुर्गवार ने आटा पलट दिया !

    नन्हा जासूस कामयाब रहा !

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  9. अंग्रेज लोग बहुत कुछ निर्माण कर गए हैं,सड़क,रेलवे,इमारतें आदि मगर इसके साथ बहुत कुछ लूट भी गए हैं.

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  10. एक तरफ खिलाने वाला , दूसरी तरफ मारने वाला .....वह वृध्द व वह मछुआरा कहीं एक ही के अलग अलग रूप तो नहीं ? ......
    (लेकिन बाकी प्रसंग के हिसाब से यह व्याख्या सही नहीं है :)

    बालमन का बहुत सटीक चित्रण है . अंग्रेजी साहित्य में डिकेन्स इसके लिये जाने जाते हैं ,

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  11. सुंदर पोस्ट के लिये धन्यवाद|

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  12. वाह ! रिपोर्ताज शैली मे अच्छा कथानक ।

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  13. कोई दुर्घटना बच्चों को दहला सकती है, जख्म उन्हें रूला सकते हैं मगर यह नहीं हो सकता कि हमेशा के लिए उनकी इच्छाओं का, स्वप्नों का, साहस का गला घोट दे। यदि उनके हाथ-पैर सलामत हैं तो दौड़ेंगे ही, दिल है तो धड़केगा ही, मन है तो मचलेगा ही। वक्त उन्हें अधिक दिनो तक भय रूपी पिंजड़े में कैद करके नहीं रख सकता।

    ...bahut hi saarthakta bhari prastuti... padhkar ek chalchitra sa samne ubharne lagta hai .......
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