11 May, 2011

यादें-31 ( सावधानी हटी, दुर्घटना घटी )


आनंद अपने दोस्तों के साथ स्कूल से घर लौट रहा था। भैरोनाथ चौराहे से जैसे ही आगे बढ़ा, सामने एक नया रिक्शा दिख गया। रिक्शा इतना चमकीला था कि उसके पीछे खड़े होकर देखो तो लगता कि दर्पण के सम्मुख खड़े हैं ! आनंद अपने स्कूली  मित्रों, अरूण और उमेश के साथ रिक्शे के पीछे खड़े होकर, भिन्न-भिन्न मुख मुद्रा बनाकर अपने हाथ-पांव देखने में मगन था। सरकस में रखे हंसी घर के आईनों की तरह यह रिक्शा भी करामाती था ! शरीर पतला, मुख एकदम से चौड़ा तो पैर ठिगना दिखाता था। तीनों आपस में चहकते...वो देखो ! तुम्हारा मुंह कितना चौड़ा है !....वो देखो ! मेरा पैर कितना मोटा है! ...वो देखो ! मेरा पेट तो है ही नहीं..! हा..हा..ही..ही..में मशगूल बच्चों को पता ही नहीं चला कि कब उनके पीछे से आ रही, गेहूँ के बोरों से लदी बैलगाड़ी, आनंद को अपने चपेटे में लेते हुए आगे बढ़ गई। अरे रे..! देखा हो.s..! लड़का दब गयल रे.s.s.! कहते लोग दौडते इससे पहले ही आनंद के दाहिने पैर को रौंदती बैलगाड़ी आगे बढ़ चुकी थी ! यह संयोग ही था एक दिन पहले आनंद का जन्म दिन था और उसने उपहार में मिला बाटा का नया बूट पहन रख्खा था। मध्यम वर्गीय पिताजन्म दिन के अवसर पर उपहार स्वरूप, अपने बच्चों की ऐसी ही आवश्यकताएँ पूर्ण कर पाते हैं। जूता न पहना होता तो उसके पैर की चटनी बन जाती। असहनीय पीड़ा से छटपटाते आनंद को लोगों ने किनारे बिठाया। साथियों को इसे घर ले जाने की सलाह दी। अरूण, उमेश के कंधों के सहारे, एक पैर से लंगड़ाता आनंद जब तक चौखम्भा स्थित अरूण के घर तक पहुँचता, उसका एक पैर, रिक्शे में दिखते आइने की तरत फूल कर, सच में हाथी का पांव हो चुका था ! अरूण, आनंद को अपने घर ले गया। उमेश आनंद के घर खबर देने के लिए दौड़ा। जब तक आनंद के बड़े भाई आते और उसे उठाकर डा0 नन्द लाल अग्रवाल के पास तक ले जाते अरूण की माँ प्रेम पूर्वक आनंद के पैर में आयोडेक्स रगड़ती रहीं मानो उसके बेटे को ही चोट लगी हो। यही वह प्रेम है जो नारी को दया की देवी बनाता है। जो कष्ट में पड़े बालक के प्रति भेद नहीं रखती कि यह मेरा बेटा है या मेरे बेटे के साथ खेलने वाला कोई अपरिचित। आनंद इससे पहले भी अरूण के घर गया था मगर आज उसने जब अरूण की माँ के आँखों में अपने लिए आँसू देखे तो उसे लगा कि मेरी ही नहीं, दुनियाँ में सभी की माँ अच्छी होती हैं।   

आनंद के भैया आये और उसे डा0 नंदलाल अग्रवाल के पास ले गये। उन्होने देखते ही घोषित कर दिया कि एड़ी की हड़डी टूट चुकी है, बाहरी जख्म ठीक होने के पश्चात ही प्लास्टर बांधा जा सकता है। तीन महीने का पूर्ण विश्राम आवश्यक है। डा0 ऩन्दलाल अग्रवाल हड़डी के डाक्टर नहीं थे किन्तु आनंद के घर के फेमिली डाक्टर  थे। यह अलग बात है कि डा0 को आनंद की फेमली से मात्र उतना ही प्रेम था जितना घोड़े को घास से मगर आनंद के परिवार में उन्हें ही दूसरे भगवान का दर्जा प्राप्त था। आनंद के परिवार के लिए वे पूर्णतया आलराउण्डर थे। किसी का सर फूटे, पैर टूटे, छाती धड़के, पेट खराब हो, दांत उखड़वाना हो, तेज बुखार हो, सभी बड़े से बड़े रोगों के लिए रामबाण डाक्टर-डा0 नंदलाल अग्रवाल। दरअसल आनंद के परिवार में मरीजों के इलाज के भी तीन स्तर हुआ करते थे। बीमारी के स्तर से इलाज का आर्थिक निर्धारण तय था।

(1)साधारण बीमारी -- होमियोपैथी डाक्टर, डा0 भूमिराज शर्मा का मुफ्त इलाज। जो बुलानाला चौराहे के पास बैठते और पिताजी के मित्र होने के कारण पूरे परिवार का इलाज मुफ्त करते। प्रायः मरीज उनकी मुफ्त की मीठी-मीठी गोलियाँ खाकर ही ठीक हो जाता।

(2)दूसरे स्तर की बीमारी– थोड़ी गंभीर बीमारी। जैसे चार दिन मीठी गोली खाकर भी बुखार नहीं उतरा तो 10 पैसे का पुर्जा बनवाकर मच्छोद्दरी अस्पताल या डा0 शालिग्राम बल्लभराम मेहता अस्पताल, रामघाट जाना पड़ता। इन अस्पतालों में, शीशी में कड़वी दवाई का घोल मिलता जिसे मिक्चर कहते हैं। यह मिक्चर इतना कड़ुवा होता कि घर के कई सदस्यों की  छोटी मोटी बीमारियाँ तो पिताजी के सिर्फ इतना कहने पर ही ठीक हो जाती थीं कि जाओ मच्छोदरी से या रामघाट से दवाई ले आओ !

(3) तीसरा और अंतिम स्तर - यह वह स्तर होता जहाँ 6-7 दिन तक डा0 भूमिराज शर्मा का मुफ्त इलाज, 14-15 दिन तक सरकारी अस्पतालों के कड़ुवे मिक्चर के प्रयोग के बाद बीमार, मरणासन्न अवस्था में भूखे-प्यासे रहकर पहुँच जाता। ये वो डा0 थे जो मरीजों का अन्न एकदम से बंद करा देते ! जैसे किसी को बुखार है तो कड़ुए मिक्चर पीते रहो, टेबलेट्स खाते रहो और जीने के लिए दूध, बार्ली, चाय, बिस्कुट पीते रहो। क्या मजाल कि बुखार उतरने से पहले किसी को कुछ मिल जाय ! यहाँ इलाज करा-करा कर जब मरीज एकदम से लस्त-पस्त हो जाता, 14-15 दिन बीत जाता, तो माँ के झगड़ा करने पर पिताजी गुस्से से हारते हुए, दस रू0 का नोट फेंककर यह आदेश देते कि जाओ दिखाओ डा0 नंदलाल अग्रवाल को ! ये सब मेरा खून पीने के लिये पैदा हुए हैं !! इतने दिनों तक बीमार रहने से अच्छा, मर क्यों नहीं जाते !!! ठीक से दवा नहीं खाते होंगे वरना सबके घरों के बच्चे सरकारी दवाई से ठीक हो सकते हैं तो मेरे ही घर के बच्चे क्यों नहीं ठीक हो सकते?ये समझते हैं कि इनके बाप के पास कोई खजाना गड़ा है !

आनंद के पिता  का गुस्सा जायज था। ईमानदार निम्न मध्यमवर्गीय परिवार आज भी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा, अच्छे इलाज का खर्च नहीं वहन कर सकता। ईमानदार रहना घुट-घुट कर अपने बच्चों को अनवरत यातना देते रहना है। उसे सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों के भरोसे ही अपने परिवार को हांकना पड़ता है। दुर्भाग्य से या नासमझी से संतान अधिक हैं तो गये काम से। 8-10 में एकाध की अकाल मृत्यु तो सुनिश्चित है।

सचमुच डा0 नंदलाल अग्रवाल के पास जाते ही 2-3 दिन में सब एकदम ठीक हो जाता। आधा रोग तो उनके पास जाते ही ठीक हो जाता जब वे मुस्कुरा कर कहते..जाओ सब खाओ ! मरीज को सहसा यकीन नहीं होता। खुशी भीतर दबा कर फिर पूछता..सब डाक्टर साहब? डा0 अग्रवाल नाक ऊँची कर गर्व से कहते..हाँ, हाँ..सब । ऐसे जैसे सम्राट अकबर गरीबों को खजाना बांट रहे हों ! सब ले जाओ..! सब...मस्त रहो । प्रायः जाते वक्त मरीज डा0 की दुकान तक गोदी में या साइकिल में बिठाकर ले जाया जाता मगर लौटते वक्त अपने पैरों से चलकर आता। जिसे देखकर पिताजी फिर चीखते...मेरा पैसा खर्च करवा दिये ? मिल गई ठंडक जाते ही ठीक हो गये देखो कैसे दौड़े चले आ रहे हैं ! माँ पिताजी को समझातीं। बच्चे बस टुकुर-टुकर पिताजी को कातर निगाहों से देखते रह जाते।

उस दिन शाम को जब पिताजी दफ्तर से घर आये तो सारा हाल जानकर आग बबूला हो गये। खूब गरियाने के बाद बोले चलो एक बात अच्छी हुई कि अब इसका गली-गली आवारा लड़कों के साथ घूमना तो कुछ दिनो के लिए बंद रहेगा। दूसरा पैर भी गाड़ी के नीचे डाल आना था ! उसे क्यों नहीं डाला जरूर आवारगी में पैर तुड़वाया है नालायक ने !! वरना बैलगाड़ी वाले इतना हो-हल्ला करते हुए चलते हैं, आज तक कोई आया क्या उसके नीचे ? सबसे अच्छा तो यह होता कि अपनी गर्दन डाल आते बार-बार डाक्टर के पास जाने से छुट्टी तो मिल जाती  सुनो.s.s.कान खोलकर सुन लो.s.s.. !! प्लास्टर बंधवाने मच्छोद्दरी अस्पताल ले जाना ! पैसा पेड़ पर नहीं उगता !! सरकार नंदलाल अग्रवाल के फीस का पैसा नहीं देती !!! आनंद डर कर चुप रहता मगर सोचता कि आखिर पिताजी कभी दुःखी भी होते हैं ? यह उम्र थी जहाँ बच्चों को नहीं पता होता कि पिता अपने बच्चों पर क्रोध तभी करते हैं जब दुःखी होते हैं। क्रोध करना भी दुखों की अभिव्यक्ति का एक तरीका है।
( जारी... )    

15 comments:

  1. पिता अपने बच्चों पर क्रोध तभी करते हैं जब दुःखी होते हैं।

    आप को तो पीछे जा कर पढ़ना होगा।

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  2. हा हा, इलाजी महात्म्य। बहुत धांसू।

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  3. to doctor sahab ko fee mil hi gayi. suna hai ajkal sarkari ilaj bhi do tarike ke ho gaye hain.

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  4. पिता अपने बच्चों पर क्रोध तभी करते हैं जब दुःखी होते हैं। क्रोध करना भी दुखों की अभिव्यक्ति का एक तरीका है। सहमत हे ही इस बात से,

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  5. कुछ अतिशयोक्ति तो नहीं हुई इलाज के वर्णन में ?
    वैसे ये बात तो ठीक है कि जब बच्चे पिता की इछ्याओं को अंजाम नहीं देते तो पिता को दुःख होता है और इसकी वजह से उसे क्रोध आता है.
    इछयाओं के पूरे न होने से ही क्रोध आता है.

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  6. पाण्डेय जी आप कम से कम एक फ़ोटो अवश्य लगाया करे उससे बात ही कुछ और होती है.
    आपकी प्रस्तुति शानदार है,

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  7. कविता और संस्मरण में तो आपकी सिद्धहस्तता मन लुभाती है ...
    आनन्द ने ध्यान नहीं दिया बैलगाड़ी में भूसे भरे होंगें -नहीं तो अब बैसाखी लगी दिखती :)
    निश्चय ही इस घटना के बाद आनंन्द कुछ होशियार बालक बना होगा ...आगे पता चलेगा ही ..
    चिकित्सकों का विवरण जबरदस्त यथार्थ है -
    आप हम अब खूब अच्छी तरह समझ सकते हैं कि पिटा नाम्नी प्राणी नाराज क्यों होते हैं !

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  8. माँ का ममत्व ही है जो मम से आगे जा सकता है।

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  9. डाक्टरॊं का यह वर्गीकरण तो चिकित्साशास्त्र के कोर्स में कम्यूनिटी मेडिसीन के अर्न्तगत शामिल किया जा सकता है, इतना सटीक है.

    दूसरी बात यह कि लेखक के अन्दर का पिता यहां ज्यादा मुखरित हुआ है.

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  10. पिता अपने बच्चों पर क्रोध तभी करते हैं जब दुःखी होते हैं। क्रोध करना भी दुखों की अभिव्यक्ति का एक तरीका है। सहमत हे ही इस बात से.

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  11. क्रोध करना भी दुखों की अभिव्यक्ति का एक तरीका है।'
    यकीनन .. और फिर जब संसाधन सीमित हो तो.

    बेहतरीन संस्मरण . . सबकुछ मानो आखों के सामने

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