12 June, 2011

यादें-32 ( लंगड़े की शैतानी )


एक तो दर्द का एहसास ऊपर से पिताजी का गुस्सा। बिस्तर पर लेटे-लेटे आनंद कभी उस चमकीले रिक्शे को कोसता जिसके चक्कर में यह दुर्घटना हुई, कभी अपने पर सशंकित रहता कि अब शायद वह कभी व्यायाम शाला नहीं जा पायेगा ! व्याययाम शाला नहीं जा पायेगा तो बड़ा जासूस कैसे बनेगा चमकीली दिखने वाली चीज जीवन में अंधकार भी लेकर आ सकती है, यह वह जान चुका था। ठोकर इंसान को सबक सिखाती तो है पर यह क्षणिक ही होता है। लोभ और चित्त की चंचलता उसके सीखे सबक को वैसे ही मिटा देती है जैसे स्मशान से लौटने के तुरंत बाद हम यह भूल जाते हैं कि जीवन नश्वर है। साथ कुछ नहीं जाता। शेष रह जाते हैं तो सिर्फ व्यक्ति के कर्म।

कुछ दिनो बाद जब बाहरी जख्म ठीक हुआ, आनंद के दाहिने पैर में प्लॉस्टर लग गया। आनंद के पैर की हड्डी क्या टूटी, उसका जीवन ही बदल गया। कहाँ रोज-रोज की धमाचौकड़ी, कहाँ घर का वीराना। प्रायः कमरे में लेटा वह घूमते सीलिंग फैन को देखा करता । डाक्टर ने पैर सीधा रखने व हिलाने-डुलाने से मना किया था। कुछ दिनो तक तो यह चलता रहा मगर धीरे-धीरे आनंद एक पैर से लंगड़ाता घर की सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने लगा। पिताजी के ऑफिस जाते ही उसके साथी आ धमकते। घर की छत पर अपने मित्रों की मदद से एक सुराख बना दिया था, जिसमें वे कंच्चे खेला करते थे। इधर पिताजी दफ्तर गये उधर उसके साथी आ जाते और सब मिलकर देर तक कंच्चे खेला करते।

शनीवार का दिन था। आनंद अपने मित्रों के साथ कंच्चे खेलने में मशगूल था। शनीवार के दिन दफ्तर में हॉफ डे हुआ करता था। पिताजी दफ्तर से जल्दी घर आ गये। खेल की धुन में आनंद को पता ही नहीं चला कि आज शनीवार है। इसका ज्ञान उसे तब हुआ जब पिताजी क्रोध से तमतमाये, हाथ में छड़ी लिये, साक्षात शनी बन उसके सर पर सवार हो गये। धनुष यज्ञ में जैसे परशुराम को देखकर बड़े-बड़े वीर पलायित हो गये थे, वैसे ही पिताजी को देखते ही आनंद के मित्र जहाँ से रास्ता मिला वहीं से भाग लिये। कोई छत डाक गया, तो कोई सीढ़ी कूद गया। मगर हाय ! आनंद कहां जाता ? उस दिन उसकी जो पिटाई हुई कि उसे लगा अब तो सारे शरीर में प्लास्टर बंधवाना पड़ेगा। ज्यादा क्रोध तो पिताजी को छत में सुराख देखकर आया जिसे वे हर वर्ष, बरसात से पहले, अपनी गाढ़ी कमाई से न चूने लायक बनवाते थे। उस दिन की पिटाई के बाद तो आनंद के मित्रों का उसके घर आऩा लगभग बंद ही हो गया। हाँ, बरामदे या छत पर कभी दिख जाय तो घटना को याद कर हंसते हुए पूछते..."का लंगड़ ! ठीक हो अब मत खेलना बेटा।" उनकी हा..हा..ही...ही ..आनंद के तन बदन में आग लगा देती। बचपन की दोस्ती जितनी संवेदनशील होती है उतना ही इस एहसास से अनभिज्ञ कि हमारे उपहास दूसरों को कितनी पीड़ा दे सकते है हाँ, मुन्ना अक्सर उसके घर आया करता जिसके सहारे वह किताबें पढ़ता रहता।

एक दिन उसके बड़े भाई श्रद्धानंद अपने मित्रों के साथ घर आये और कमरे में बैठकर शतरंज खेलने लगे। यह खेल उसे बड़ा ही रोचक लगा। कुछ ही दिन में भैया को खेलते देख-देख कर उसने सभी चालें सीख लीं।

घर में लकड़ी की दो बड़ी-बड़ी आलमारियाँ हुआ करती थीं जो तीसरी मंजिल पर बने एकमात्र बड़े कमरे को दो बराबर भागों में बांटती थीं। श्रद्धा भैया अपना शतरंज उसी लकड़ी की आलमारी में, जिसमें दुनियाँ भर के प्राचीन ग्रंथ लाल कपड़ों से लिपटे सुरक्षित रखे हए थे, ताला बंद कर छुपाकर रखते ताकि उनके शरारती भाई न खेल सकें। मध्यम वर्गीय परिवारों में बड़ा भाई, अपने खेल के सामान या व्यक्तिगत पसंद की छोटी-छोटी चीजों को भी अमूल्य निधि की तरह संभालकर, छोटे भाइयों से छुपाकर रखता है । क्या मजाल की उसकी कीमती चीजें, (चाहे गंगाजी से उठाकर लाया गया सुडौल पत्थर का टुकड़ा ही क्यों न हो) उसके छोटे भाई छू भी लें !

आनंद बड़े भाई साहब के विश्वविद्यालय जाने की प्रतीक्षा करता। जब वे चले जाते तो मुन्ना को आवाज देकर बुलाता। मुन्ना के आते ही दोनो मिलकर, आलमारी के ऊपरी हिस्से से जो खुला रहता, हाथ डालकर, नीचे के खाने में रख्खा शतरंज का दफ्ती का बोर्ड और गोटियाँ निकाल लेते। आनंद के भैया कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि इसमें हाथ डाला भी जा सकता था। छोटे बच्चे अगर चोरी पर उतर आयें तो सफाई से, अपनी नन्हीं उँगलिय़ों का इस्तेमाल कर, बड़े सामानों में हाथ साफ कर सकते हैं। शुरू-शुरू में आनंद ने मुन्ना को शतरंज के नीयम सीखाये जो उसने बड़े भाई साहब को खेलते देखकर सीखे थे । जल्दी ही मुन्ना को भी शतरंज खेलना आ गया। दोनो जमकर खेलते और खेलने के बाद उसी तरह रख देते जैसे निकालते थे। आनंद के भैया को इसकी खबर कभी न होती यदि खेलते-खलते दोनो में झगड़ा न हुआ होता।

हुआ यूँ कि एक दिन हारने के बाद चिढ़कर मुन्ना ने आनंद के सर पर लकड़ी का वजीर दे मारा। उस समय शतरंज के मोहरों की बनावट ऐसी होती कि राजा और वजीर के सर पर मुकुट जैसी लकड़ी की छोटी सी घुण्डी बनी होती। ऊँट घोड़े की तुलना में थोड़े लम्बे, हाथी क्यारम की गोटियों की तरह चपटे और प्यादे छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़े हुआ करते थे। आनंद ने वजीर से मुन्ना को ऐसे मारा कि सर पर टकराते ही वजीर की घुण्डी टूट गई। वजीर की हालत देख जहां आनंद अपना चोट भूल गया वहीं मुन्ना का गुस्सा भी जाता रहा। अब दोनो घबड़ाये कि चोरी पकड़ी गई। भैया आयेंगे तो बहुत मारेंगे। दोनो इस समस्या पर गंभीरता पूर्वक विचार करने लगे। काफी विचार विमर्श के बाद मुन्ना ने सलाह दी कि क्यों न हम शेष बचे राजा वजीर के सर की घुण्डी भी तोड़ दें जिससे सभी मोहरे एक समान हो जांय। विनाशकाले विपरीत बुद्धि। जब मुसीबत आने को होती है तो सबसे पहले बुद्धि साथ छोड़ जाती है। घबड़ाहट में दोनो ने मिलकर शेष बची घुण्डियाँ भी तोड़ डालीं। मोहरे वैसे ही रख दिये गये।

उस दिन शाम को आनंद के भाई साहब ने जैसे ही अपने दोस्तों के साथ खेलने के लिए मोहरे निकाले उनका दिमाग खराब हो गया। बंद तालों में रखे मोहरों की हालत देख कर उनको बहुत गुस्सा आया। उन्हें समझते देर न लगी कि आनंद की ही शैतानी है। पूछने पर आनंद ने सब कबूल कर लिया। जब भाई साहब ने और उनके दोस्तों ने सुना कि उन्होने सभी मोहरे क्यों तोड़े थे तो देर तक आनंद और मुन्ना की बेबकूफियों पर हंसते रहे। अच्छी बात यह हुई कि हंसी ने भैया के क्रोध का मार्ग अवरूद्ध कर दिया। क्रोध और हँसी दोनो की दोस्ती हो ही नहीं सकती। मासूम गलतियाँ अक्सर पिटने से बच जाया करती हैं। क्रोध हाथ मलता कुछ देर ठगा सा खड़ा रह जाता है फिर कपूर की तरह जलकर भस्म हो जाता है। शेष रह जाती है नेह भरी यादों की कस्तूरी सुगंध, जो जीवन भर हर्षाती रहती है।

उस दिन से एक बात और अच्छी यह हुई कि शतरंज बाहर ही रखा जाने लगा। आनंद को भी जब उसके भाई साहब खेल रहे होते बीच-बीच में चाल बताने का मौका मिलने लगा। धीरे-धीरे वह भी भाई साहब और उनके साथियों के साथ एक-दो बाजी खेलने लगा। भाई साहब को शतरंज का ज्यादा नशा न था। वे बस मित्रों के साथ एक दो बाजी ही खेलते मगर जब से आनंद ने उन्हें हराना शुरू किया उनका और उनके दोस्तों का खेलना और भी कम होता गया। छोटे भाई से हारना, बड़े भाई जल्दी बर्दास्त नहीं कर पाते इसके विपरीत यह भी सच है कि पिता अपने बच्चों से हार कर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। धीरे-धीरे शतरंज के मोहरे व शतरंज का शौक बड़े भाई साहब से ट्रांसफर होकर पूर्णतया आनंद के हिस्से आ गया।
( जारी....)

15 comments:

  1. देर होने से घर में पिटाई होने का डर खेल का आनन्द डुबो देता है, कुछ कुछ याद दिलाती यादें।

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  2. बहुत अछ्छा लगा,विशेषरूप से बोल्ड पक्तियां.
    एक बात यहाँ लिखूं कि बड़े भाई भी छोटे से हारकर खुश होते हैं.

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  3. मुसीबत में बुद्धि तो खैर साथ छोड़ ही देती है...बहुत बढ़िया///जारी रहिये.

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  4. जोश में लोग आसमान में सुराख कर देने का जज्बा रखते हैं ..आनंद ने भी इसे तनिक त्रायी कर लिया तो आसमान क्यों टूट पडा ?चलते रहिये ..साथ हैं !

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  5. पिछली कुछ कडियाँ शायद छूट गयी हैं लेकिन रोचकता बरकरार है। शुभकामनायें।

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  6. bada maja aaya .....ham sab kahi na kahi in sab ka hissa the....


    jai baba banaras.....

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  7. I can relate with it fully :P
    Nice read !!!

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  8. बचपन की यही यादें उम्र भर जीवन को सुचारित करती हैं ......

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  9. ये यादें बहुत ही खूबसूरत हैं ...।

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  10. दिलचस्प यादों के साथ साथ जीवन के कई सूत्र बखूबी बता जाते हैं आप। क्रोध और हँसी दोनों की दोस्ती, मुसीबत आने से पहले बुद्धि का एक्शन, बड़े भाई व पिता का तुलनात्मक व्यवहार।
    सच में हरफ़नमौला हैं पाण्डेय जी आप।

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  11. .

    बहुत बार कोशिश की शतरंज सीखने की , सफलता नहीं मिली । फिर छोड़ दिया मोह ये सोचकर की ये बुद्धिमानों का खेल है , मेरे जैसों के बस का नहीं।

    रोचक संस्मरण।

    .

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  12. क्रोध और हंसी दोनो की दोस्ती हो ही नहीं सकती। मामूम गलतियाँ अक्सर पिटने से बच जाया करती हैं। क्रोध हाथ मलता कुछ देर ठगा सा खड़ा रह जाता है फिर कपूर की तरह जलकर भस्म हो जाता है। शेष रह जाती है नेह भरी यादों की कस्तूरी सुगंध, जो जीवन भर हर्षाती रहती है।

    सही कहा आपने..... दिलचस्प संस्मरण.

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  13. मज़ा आ गया ... अब आगे का इंतज़ार है.

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  14. क्रोध और हंसी दोनो की दोस्ती हो ही नहीं सकती।'

    बचपन के व्यवहार और सोच काफी रोचक होते हैं. सूक्ष्मता से अवलोकन और वर्णन किया है.

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