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मकर संक्राति की पतंगबाजी का जोश पूरी तरह खत्म हो चुका था। घर बाहर पढ़ाई का माहौल था। बोर्ड परीक्षा के आतंक ने जंगली के साथ-साथ मुन्ना के होश भी उड़ा दिये थे। जासूसी भूल वह अपनी पढ़ाई में लगा था। आंनद अभी आठवीं में था। जानता था कि हर बार की तरह इस बार भी कक्षोन्नति तो मिल ही जायेगी। मुन्ना को उकसाता तो वह टाल देता..”बाबा मारेंगे ! अभी जाओ हमें पढ़ना है।“ दूसरों के परीक्षाफल के आगे उत्तीर्ण लिखा देख कर उसे जरा भी ग्लानी नहीं होती। वह कहता..“क्या फर्क पड़ता है आखिर ? उत्तीर्ण वाले भी तो हमारे ही साथ पढ़ेंगे ! मैं कोई फेल थोड़े न होने जा रहा हूँ। सुबह-सुबह उठकर संस्कृत के रूप याद करो और अंग्रेजी की स्पेलिंग। इससे बोर काम कोई है दुनियाँ में ? गणित ठीक है। सवाल हल हो जाय तो मजा आता है लेकिन जिस पढ़ाई में दिमाग का इस्तेमाल ही न हो वह भी कोई पढ़ाई है ? एक भाषा से आदमी का काम नहीं चल सकता था जो पचहत्तर भाषाएं बना दीं ? हिंदी से संस्कृत में अनुवाद, अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद। ट्रांसलेशन ! धत तेरी की ! अंग्रेजों के बच्चे क्या हिंदी में ट्रांसलेशन करते हैं ? वे इसीलिए तेज हैं कि उन्हें ट्रांसलेशन नहीं करना पड़ता। न हिंदी में न संस्कृत में। यह भी कोई पढ़ाई है? इससे अच्छा तो है जासूसी उपन्यास पढ़ना।
आनंद के पिता ने देखा कि लड़का कोर्स की किताबों की अपेक्षा दूसरी-दूसरी किताबों में अधिक रुची ले रहा है तो एक दिन राम चरित मानस पकड़ा दिया । “इसे पढ़ो ! बहुत मजा आयेगा। क्या बेकार की पुस्तकों में समय बर्बाद करते हो ? इससे तो अच्छा है तुम रोज व्यायाम शाला जाया करो। चार दिन बाद पूछेंगे कि इसमें क्या लिखा है ! नहीं बता पाये तो समझ लो खैर नहीं।“ जहाँ व्यायाम शाला का नाम सुनकर वह खुश हुआ वहीं रामचरित मानस के बोझ से चिंतित। उसके लिए यह भी कोई कठिन काम नहीं था। इस उम्र तक आते-आते बच्चे राम कथा का अधिकांश हिस्सा तो सुन-सुन कर ही जान जाते थे। उसकी चिंता दूसरी थी। वह खुश रहता था कि उसके पिताजी उससे पढ़ाई के बारे में कभी नहीं पूछते । लेकिन आज इन्हें क्या हो गया ! अब क्या भैया की तरह मुझे भी पढ़ाई के लिए मार खानी पड़ेगी ? हे भगवान..!
ब्रह्माघाट से सटा मोहल्ला राजमंदिर। राजमंदिर में स्थित था काशी व्यायाम शाला। काशी व्यायाम शाला के गुरूजी काफी वृद्ध थे। इकहरा बदन, झक सफेद बाल, क्लीन सेव, दुबला-पतला गठीला शरीर और स्वभाव से कड़क। वे प्रायः व्यायामशाला के मध्य चौकी पर बैठ जाते। उनके सामने होता मलखम्भ, पीछे जिमनास्टिक के गद्दे. बायें वेटलिफ्टिंग के सामान, आगे कुश्ती का अखाड़ा, दायें हनुमान जी का छोटा सा मंदिर और मंदिर के पीछे बैटमिंटन कोर्ट । मंदिर के पीछे सिंगल, डबल पैरेलल बार गड़ा हुआ होता । कोने से तहखाने में जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी थीं। तहखाने में तरह-तरह के व्यायाम के सामान जैसे डम्बल, क्लब, दरी-कुर्सी आदि । लम्बे-चौड़े मैदान में ठीक गंगा किनारे स्थित काशी व्यायाम शाला पक्के महाल के लिए संजीवनी के समान था। मेहनत करो और लूट लो अपने-अपने हिस्से की संजीवनी। जो जैसा शौक रखते थे उन्हें वैसी ही शिक्षा बिलकुल मुफ्त दी जाती थी। हाँ, गुरूकुल प्रणाली की तरह यहाँ के चेलों को करनी पड़ती थी खूब मेहनत। अखाड़े की सफाई, मैदान की देखभाल, पानी का छिड़काव आदि-आदि। बच्चे कुएँ से खींचकर बाल्टी-बाल्टी पानी लाते और मैदान में हर तरफ पानी छिड़कते।
सूर्यास्त से पहले अपनी चौकी पर आकर चमकने लगते थे गुरूजी। पंछियों के कलरव के साथ आने लगते थे व्यायाम शाला के प्रेमी। गुरूजी का पूरा ध्यान बच्चों पर होता। वे उन्हें जिमनास्टिक, मलखम्भ, डंबल-क्लब, पीटी कराने में ही विशेष ध्यान देते। क्या मजाल की कोई बच्चा वेट-लिफ्टिंग की ओर भागे ! वे नहीं चाहते थे कि कोई किशोर अंग्रेजी कसरत करे मगर बड़ों को मना भी नहीं करते थे। उनकी सुख-सुविधा का भी पूरा ध्यान रखते थे। व्यायाम शाला में प्रथम प्रवेशी छात्रों को सबसे पहले मलखम्भ पर ही जोर आजमाना पड़ता था।
मलखम्भ, मैदान में गड़ा वह खम्भा होता है जिस पर लोग अपना जोर आजमाते हैं। शायद इसी लिए इसका नाम मलखम्भ पड़ा। रेड़ी का तेल इसमें पोत कर इसे चिपचिपा बनाया जाता और छोटे-छोटे बच्चे इस पर सभी प्रकार के आसन करते। दशों आसन करने वाला निपुण कहलाता। गुरूजी ठीक मलखम्भ के सामने ही बैठे होते। बच्चे एक गोला बनाकर मलखम्भ के इर्द-गिर्द अपनी बारी की प्रतीक्षा करते। लंगोटी पहने, बारी-बारी से बच्चे इस पर जोर आजमाइश करते। लपक कर दोनो हाथों से खम्भे को पकड़ना, पूरी ताकत से शरीर को ऊपर की ओर फेंकना, दोनो पैरों से खम्भे को कैंची पकड़ना, कलाइयों के जोर पर कमर को ऊपर की ओर खींचना और धप्प से दोनो पंजों के बल जमीन कूद जाना एक समान्य बात थी। इसी से मलखम्भ की शिक्षा प्रारंभ होती है। इसमें कई प्रकार के आसन किये जाते हैं। मयूर आसन से सर्वांग आसन तक लेकिन इन सब में बोतल मलखम्भ सबसे कठिन होता। यह बोतल पर गड़े खम्भे पर किया जाने वाला आसन है। एक चौकी चार बोतलों के सहारे खड़ी की जाती, उसके ऊपर फिर चार बोतल, उसके ऊपर फिर चौकी और चौकी में गड़ा होता खम्भा । खम्भे पर चढ़कर वैसे ही आसन करना होता जैसे मिट्टी पर गड़े खम्भे पर। जरा सा संतुलन बिगड़ा नहीं कि खिलाड़ी, बोतल-खम्भे सहित जमीन पर आ गिरता। यह अत्यधिक कठिन कार्य होता । उसी को करने मिलता जो जमीनी मलखम्भ में पूर्णतया निपुण हो जाता। नागपंचमी के दिन अपार भीड़ के सामने जोड़ी-गदा और जिमनास्टिक के विभिन्न कार्यक्रमों में बोतल मलखम्भ विशेष आकर्षण का केन्द्र हुआ करता था।
दिन ढलते ही काशी व्यायाम शाला जाना आनंद की दिनचर्या में शामिल हो गया। वहाँ जाकर उसने जिमनास्टिक के करतब सीखे, मलखम्भ पर आसन सीखा और सीखा गुरूजी का कठोर अनुशासन। बोतल मलखम्भ करने का सौभाग्य आनंद को नहीं मिला।
( जारी....)
BAHUT ACHA LIKHTEN HAIN AAP. . . . SUBHKAAMNAYEN. . . . . . . . . . .JAI HIND JAI BHARAT
ReplyDeleteमेहनत में मलखम्भ सब पर भारी है। शारीरिक क्षमता के लिये सबसे अच्छा है यह।
ReplyDeletebahut khub ..
ReplyDeleteमलखम्भ के विषय में मैने मुंबई आकर ही जाना...यहाँ हर स्कूल में स्पोर्ट्स डे के दिन..इसका प्रदर्शन जरूर होता है.....छोटे-छोटे बच्चों द्वारा ये अभ्यास देखना काफी सुखद होता है
ReplyDeleteमहराज हम तो सीधे यहीं आ गए होते -नाहक ही व्यायाम करा दिए ...
ReplyDeleteफिर अपनी प्रवाहपूर्ण धरा में बह निकले हैं आनन्द जी ...
मलखम्भ यहीं से झांसी की रानी ने भी तो नहीं सीखा था ?
बहुत ही बारीक़ दृश्य खींचा है आपने व्यायामशाला का!... पढ़ कर अच्छा लगा.
ReplyDeleteआजकल विद्यालयों में पी टी के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति होती है ,
ReplyDeleteऐसे में इन यादों से जुड़ना अच्छा लगा !
बहुत सुन्दर लिखा है .जो बिम्ब उभर रहा है लगता है आपके बचपन का है .तकनीकी खराबी के कारण आपकी टिप्पणी पता नहीं कहाँ चली गयी .क्षमा चाहती हूँ ... दोबारा कष्ट करने के लिए .आपको हार्दिक धन्यवाद .
ReplyDeleteकई दिनों बाद आनंद को फिर याद आने लगी,यह अछ्छा हुआ.
ReplyDeleteसुन्दर चित्रण.आपको पढ़ना अच्छा लगता है.
ReplyDeleteअंग्रेजों के बच्चे क्या हिंदी में ट्रांसलेशन करते हैं ?
ReplyDeleteवाजिब सवाल उपजा आनन्द के मन में.
शैली के क्या कहने ..