07 August, 2018

चुगलखोर

गंगा किनारे घर और घर में राम मंदिर। गंगा स्नान करना, गंगाजल लाना, भगवान जी को नहलाना, श्रृंगार के बाद घंटा बजाकर आरती करना किशोरावस्था में आंनद की दिनचर्या में शामिल था।

वह अंसारी था। जैसे दूसरे मित्र आंनद के घर आते वह भी आता। उसे पता था कि मूर्ति पूजा नहीं करनी चाहिए और  आंनद को भी पता था कि मुसलमान अछूत होते हैं! फिर भी दोनों समाज द्वारा मिले ज्ञान को बेवकूफी मानते। 

उस दिन अंसारी सुबह ही घर अा गया। आंनद आरती कर रहा था। वह आंनद के स्वर में स्वर मिला कर घंटा बजाने लगा! दोनो ने मिलकर कुछ देर तक सुंदर कांड का पाठ भी किया। 

आंनद की मां ने पूछा..यह कौन है?
इससे पहले की अंसारी जवाब देता आंनद ने झट से कहा.. श्रीवास्तव, श्रीवास्तव है मां!  आंनद की ओर देख अंसारी चुप लगा गया। मां ने आदेश दिया..'अपने दोस्त को लेकर पीढ़े पर बैठो। खाना खाकर ही कहीं जाना है।'  

फिर यह अक्सर होने लगा। अंसारी, आंनद के घर खाने पीने लगा।  वह तो बुरा हो सेठ जी का जिसने आंनद की मां से चुगली कर दी...मां! वह श्रीवास्तव नहीं, मुसलमान है! 

चुगलखोर चुगली न करता तो न मां का धर्म भ्रष्ट होता, न आंनद की पिटाई होती और न अंसारी का घर आना ही बन्द होता। 


10 October, 2016

पत्नीं मनोरमाम देहि

आनंद की जिद थी कि वह भी 'श्री दुर्गा शप्तशती' का पाठ करेगा. वह सभी अध्याय नहीं पढ़ता बस वही पाठ करता जिसमें दुर्गा जी की स्तुति होती. कवच  के बाद अर्गलास्त्रोतम का पाठ आता. रूपं देहि जयं देहि यशो देहि  द्विषो जहि ....'पत्नीं मनोरमाम देहि' जब आता तो बड़े धीरे से बोलता कि कोई सुन न ले! भैया चिढ़ाते जोर से पाठ करो...! सब गलत-सलत बोलता है. पिताजी डाँटते-गलत पाठ करने पर पाप लगता है. 

धीरे-धीरे यह बात समझ  में आई  कि हमेशा जोर से पढ़ना चाहिए, सुनने वाला विद्वान होगा तो सुधार कर देगा, कम जानकर हुआ तो पढने वाले वाले को ही विद्वान समझेगा. दोनों ही दशा में लाभ जोर से पढ़ने पर ही मिलता है. लेकिन 'पत्नीं मनोरमाम देहि' ना  बाबा ना यह तो नहीं होगा उससे. एक किशोर के लिये यह कहना लज्जा की बात थी लेकिन देखा जाय तो इस उम्र में किया जाने वाला यह सर्वोत्तम श्लोक है...

पत्नीं मनोरमाम देहि मनोवृत्तानुसारिणिम
तारिणीम दुर्गसंसार-सागरस्य कुलोभ्द्वाम 

हे भगवति! हमारी इच्छा के अनुकूल चलने वाली सुन्दर पत्नी मुझे प्रदान करो, जो उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो तथा संसार रूपी सागर से पार करने वाली हो.

अब यहीं आनंद चूक कर गया! जो पाठ जोर-जोर से मन लगाकर करना चाहिए, उसी को अनमयस्क भाव से लजाकर, शरमाकर गोल कर जाता !!! जब कि पिताजी ने कहा था-गलत पाठ करने पर पाप लगता है! :) पाठ करते वक्त इस अंश को तो हमारी उम्र के बुड्ढों को गोल करना चाहिए लेकिन वे तो लगे हैं जोर-शोर से..!!!   

11 January, 2014

(2) गोला कबूतर गोलू हो गया...! (समापन किश्त)


पिछले किश्त से आगे... यादें-39


धीरे-धीरे गोलू आनंद के घर का स्थाई सदस्य हो गया। कोई उसे किसी नाम से पुकारता कोई किसी नाम से। भैया के कमरे की टांड़ उसका स्थाई निवास हो गया था। वह वहीं बैठा गुटर गूँ-गुटर गूँ की आवाज के साथ अपनी गरदन फुलाता-पिचकाता रहता। जब उसके दाने खत्म हो जाते वह उड़कर भैया की खोपड़ी में बैठ जाता। भैया समझ जाते इसके दाने खतम हो गये हैं। वह खूब मौज-मस्ती भी लेता था। धीरे-धीरे उसने तीन मंजिले घर में पूरी तरह कब्जा जमा लिया था। मनमर्जी जहाँ चाहता वहीं चला जाता। कभी पिताजी के बैठके में जाकर उनके पैर चूमने लगता, कभी माँ की रसोई में घुस जाता। कभी नीचे मंदिर में जाकर रामजी के सर पर बैठ जाता कभी चोंच में कुछ दबाकर वापस अपनी टांड़ पर बैठ जाता। घर के सभी सदस्य उसके आंच में झुलस जाने, पंखे से कट जाने के डर से हाय! हाय! करते मगर न कभी वह आग से झुलसा न कभी पंखे से टकराया। 

एक दिन शाम के समय जब वह छत के ऊपर आकाश में गोल-गोल उड़ रहा था, उसे एक बाज़ ने दौड़ा दिया। वह बाज़ से बचने के लिए दूर आकाश में गोल-गोल भाग रहा था। आनंद के सामने जीवन-मृत्यु का कठिन संघर्ष चल रहा था। वह और उसके भाई साहब किंकर्तव्यविमूढ़ हो संघर्ष देख रहे थे। जैसे-जैसे कबूतर नज़रों से दूर होता जाता वैसे-वैसे आनंद और उसके भाई साहब का दिल बैठता जाता जैसे ही वह दृष्टिगोचर होता, वे खुशी से चीखने लगते। आनंद के देखते ही देखते कबूतर बाज़ के डर से दूर बहुत दूर उड़ता चला गया। बाज़ उसे तब तक दौड़ाता रहा जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गया। उसे नहीं आना था वह नहीं आया। रात भर पूरा घर जागता रहा। पिताजी ने ढांढस बंधाया-घबराओ नहीं आ जायेगा। दूसरे दिन सुबह से उसकी तलाश शुरू हुई। गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले, गंगा के इस पार-उस पार, घाट-घाट, रेत-रेत आनंद और उसके भाई कबूतर को दिनभर तलाशते रहे। उसे नहीं मिलना था, वह नहीं मिला। कुछ दिनों तक पूरा घर उदास रहा। आनंद उसे इसलिए भी नहीं भूल पा रहा था कि उस जाति के सभी कबूतर एक जैसे दिखते हैं और घर के सामने बहुत से गोला कबूतर रहते थे। जिसे देखो वही अपना लगता। उसके सामने कुछ देर बैठकर हवा में उड़ जाने वाला हर कबूतर उसे मुँह चिढ़ाता-सा लगता। हर दर्द की इंतिहां होती है। हर ज़ख्म वक्त के साथ भर जाते हैं। धीरे-धीरे पूरे घर ने उसके आने की आशा छोड़ दी। 

जाड़े का महीना। छुट्टी का दिन। घर के सभी सदस्य छत पर धूप ले रहे थे। आनंद के कुछ भाई पतंग उड़ाने में मशगूल। पिताजी अमरूद काट-काटकर सभी को खिला रहे थे। रह रहकर पंतग उड़ाने दूसरे की छत पर गये आनंद के भाइयों को आवाज भी लगा रहे थे। आनंद भूल चुका था कबूतर वाली बात। अमरूद खाते-खाते उसकी नज़र सामने के घर की छत पर पड़ी। एक जंगली कबूतर दिखा। दूसरे कबूतरों की तरह लेकिन कुछ उनसे कुछ अलग, कुछ अपना-सा..अपने गोलू- सा। काफी देर से आनंद की ओर ही देख रहा था। आनंद के भैया भी उधर ही देख रहे थे। अचानक-से चीख पड़े-वो रहा अपना गोलू! आनंद के मुख से निकला-हाँ हाँ यह गोलू ही है। घर के सभी सदस्य इसे मजाक समझकर हँसने लगे। भाई साहब भी मुस्कुरा दिये। आनंद भी खिसियानी हंसी हंसने लगा। लेकिन निगाहों ने होठों की मुस्कुराहटों से बगावत करने की ठान ली थी। बार-बार उधर ही उठ जातीं जैसे पक्का यकीन हो - यही है हमारी आँखों का तारा, यही है अपना गोलू। हमारे आश्चर्य का बांध टूट गया जब एक ही झटके में उड़कर आये उस शैतान ने आनंद के भाई साहब के कदमों को बिलकुल उसी अंदाज में ठूंगने लगा जैसा अपना गोलू चूमता था। कंधे पर चढ़ गया। उड़कर आनंद के पास आ गया। देखते ही देखते बारी-बारी से सभी के पैरों में, हाथों में या सिर पर ठूँग-ठूँग कर अपना गुस्सा उतारने लगा। जैसे वह पागल हो गया हो समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह सभी के कदमों को चूमकर अपनी अनुपस्थिति के लिए माफी मांग रहा है या ठूंगकर बेरूखी के लिए सज़ा दे रहा है! 

उस दिन आनंद के घर में जो खुशी का माहौल था उसका वर्णन करना मुश्किल है। जैसे सेना में गया घर का कोई सदस्य जिंदा वापस आ गया हो जिसे सभी ने मरा मानकर भुला दिया था ! सभी उसे अपने हाथों में लेकर भरपूर प्यार कर लेना चाहते थे। कोई कहता-“कितना दुबला हो गया है!’ कोई कोई कहता-‘बाज ने इसको घायल कर दिया था तभी यह इतने दिनो तक नहीं आ पाया। देखो! अभी भी ज़ख्मों के निशान मौजूद हैं!” वह चीज प्यारी होती है जो खो के मिलती है लेकिन मरा मान लिया गया घर का सदस्य जिंदा वापिस आ जाय तो फिर कहना ही क्या! सदस्य भी ऐसा जो हर दिल अजीज़ था। 

गोलू का आना घर को खुशियों से भर देने के लिए काफी था। वह हमारे परिवार का सदस्य तो पहले भी था लेकिन अब घर में कहीं भी जाने के लिए और स्वतंत्र हो चुका था। आनंद की माँ पहले तो कीचन में आने पर उसे डांट कर भगा देतीं थीं मगर अब उन्होने भी बिगड़ना बंद कर दिया था। सभी उसकी तरफ़ से पूरी तरह निश्चिंत हो चुके थे कि जो बाज़ के मुँह से सकुशल वापस आ सकता है उसकी क्या फ़िकर करना। वह खुद ही अपने को बचा सकता है। उसकी यही स्वतंत्रता, घर की यही निश्चिंतता उसके लिए प्राण घातक हो जायेगी इसकी कल्पना भी किसी ने नहीं किया था। 

होनी को कौन टाल सकता है एक शाम जब घर के सदस्य खाना खा रहे थे। ऊपर से आनंद के भैय्या दौड़ते हुए आये और लगभग रोते हुए चीखकर बोले--गोलू को बिल्ली ले गई! इन पाँच शब्दों के वाक्य ने सभी को हिला कर रख दिया। निवाले जहाँ के तहाँ अटक गये। दो पल के लिए सभी की सांस रूक-सी गई। जब होश आया तो सभी दौड़ पड़े ऊपर.. छत वाले कमरे में जहाँ वह रहता था। आनंद का दौड़ना किसी काम न आया। भाई साहब बस इतना ही बता सके...बिल्ली इधर से गई थी! काफी देर तक हम थके, निढाल उस क्रूर बिल्ली की कल्पना करते रह गये कि कैसे उसने गोलू को पकड़ा होगा और कैसे उसकी गरदन...उफ्फ! इसके आगे की कल्पना भी हमारे लिए असह्य थी। खाना धरा का धरा रह गया। किसी की भी खाने की इच्छा नहीं रही। पूरी रात तरह-तरह की बातें होती रहीं.. जब पकड़ा तब तुम कहाँ थे? अरे! ध्यान रखना था… बड़ी गलती हो गई, कम से कम रात में उसे दड़बे में रखना चाहिए था। दुःखी तो सभी थे लेकिन भैय्या को अपार कष्ट था। वह उन्ही से साथ रहता था। भैय्या कहते-'जब वह छोटा था, पूरी रात मेरी हथेली पर सोया रहता था और मैं अपना हाथ नहीं हटाता था!' पूरी रात अफसोस मनाते-मनाते कट गई लेकिन सूरज तो सूरज है..निकलता अपने समय पर ही है। ठहर ही नहीं सकता, चाहे कोई मर जाय।

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05 January, 2014

(1) गोला कबूतर 'गोलू' हो गया!

यादें-38 


खुशकिस्मत हैं वे परिंदे जो खूबसूरत नहीं है, खुशकिस्मत हैं वे जिनकी बोली मीठी नहीं है। वरना जिन परिंदों की बोली मीठी है, जिनके पर सुनहरे हैं उन पर तो आदमियों की नज़र लग जाती है! पिंजड़े में कैद हो जाते हैं!!! अच्छे होने में, सुंदर होने में खतरा बहुत है। 

हम अपने घर आये अतिथि के सामने तोते से कहते हैं-‘राम-राम’ कहो बेटू, ‘राम-राम’ और जब तोते के मुख से ‘राम-राम’ निकलता है तो गर्व से सीना चौड़ा कर लेते हैं! यह नहीं जान पाते कि तोता कहना चाहता है-कैसे निर्दयी हो तुम! तुमने मुझे मेरी मैना से दूर कर दिया..राम! राम! हम प्रेम के ककहरे नहीं जानते मगर तोते से कहते हैं-गोपी कृष्ण कहो बेटू, गोपी कृष्ण! हम काले कबूतरों को हिकारत की नज़रों से देखते हैं, सुफेद कबूतरों को शौक से पालते हैं और गर्व से कहते भी हैं- मंडेला रंग भेद मिटा गये! 

प्रेमी यदि शक्तिशाली हो तो अपने प्रिय को पालतू बनाना चाहता है। हमारा प्रेम ऐसा क्यों है कि हम जिसे प्यार करते हैं, जिसे अपने दिल में बसाना चाहते हैं, अपनाना चाहते हैं, पाना चाहते हैं और पाने के तुरंत बाद पिंजरे में कैद कर लेना चाहते हैं! पहरे बिठाते हैं..देखो! उड़ने न पाये!!! सोनवां कs पिंजरा मे बंद भइलू हाय राम! चियरी कs जियरा उदाsssस। हमे अपने प्रेम पर भरोसा क्यों नहीं है? प्रेम तो ऐसा होना चाहिए कि चिड़िया कहे-मुझे कैद कर लो! मेरो मन अनत कहाँ सुख पायो! जइसे उड़ी जहाज को पंछी, पुनि जहाज पर आयो..मेरो मन अनत कहाँ सुख पायो...! 

तुम परिंदों को कैद करने के खिलाफ हो। अच्छी बात है। तुम एक पायदान ऊपर उठ चुके हो। तुम्हें परिंदों से प्यार है। तुम उनके लिए दाना बिखेरते हो, वे उड़-उड़ कर आने लगते हैं। तुम खुश होते हो कि तुम्हारी एक आवाज पर परिंदे आ जाते हैं मगर तुम अभी भी भ्रम में जी रहे हो..! परिंदे भूखे हैं। वे तुम्हारे प्यार से आकर्षित होकर तुम्हारी एक आवाज पर नहीं अपनी भूख से मजबूर होकर तुम्हारी आहट पाकर आये हैं। जब तुम्हारे दाने खतम हो जांय। जब उनकी भूख मिट जाये तब फिर एक बार आवाज लगा कर देखना! तुम कहोगे आओ..वे उड़-उड़ कर जाने लगेंगे। तुम्हे सोचोगे मैने तो ‘आओ’ कहा था, इन्होने ‘जाओ’ कैसे सुन लिया! प्यार तो तब होगा जब तृप्त होने के बाद पंछी तुम्हारे पैरों को चूमने लगें। तुम्हारे कंधे पर बैठ कर ‘गुटर गूँ’ करें। प्यार तो वह है कि जब तुम गाओ तब वे चहचहाने लगें। 

वह एक जंगली कबूतर का फूटा हुआ अंडा था। गली मे पड़ा था। यहाँ बनारस में इस जाति के कबूतर को गोला कबूतर कहते हैं। इसे कोई पालता नहीं है। भ्रम है लोगों में कि ये पलते नहीं हैं। भाग जाते हैं। भैया की नजर पड़ी तो वे छत से चीख पड़े-“आनंद! जाओ, उस कबूतर के बच्चे को ले आओ। अरे! वहीsss जो अंडे से झांक रहा है। अंधे हो क्या! दिखा…?” 

आनंद ने देखा एक कुत्ता गली में पड़े टूटे अंडे को सूंघ रहा है। आनंद के भैया फिर चीखे- “जाते हो कि नहीं..कुत्ता बच्चे को खा जायेगा!” लगभगी सभी सीढियाँ एक साथ पार करते हुए वह बेतहाशा नीचे उतरा। जैसे कोई खूबसूरत पतंग गली में गिर पड़ी हो और मोहल्ले के कई लड़के उसे लूटने के लिए आने ही वाले हों। शायद ही कोई पतंग आनंद को इतना आकर्षित कर पाई हो जितनी उस बच्चे की जान बचाने की ललक। अगले ही पल वह कबूतर के बच्चे के पास पहुँच गया जो अभी-अभी अंडे से बाहर आया था लेकिन तुरंत उठा नहीं पाया। जब हाथ बढ़ाता बच्चा थोड़ा-सा बिदक जाता और एक अजीब-सी सिहरन दौड़ जाती पूरे जिस्म में। काफी मशक्कत के बाद वह कबूतर के बच्चे को लेकर घर आ पाया। तब तक भाई साहब भी आ गये। उन्होने उसे प्यार से संभाल लिया। 

माँ ने देखा तो डांटने लगीं…”ये किस कबूतर का बच्चा उठा लाये हो? जिंदा नहीं बचेगा। जाओ! इसे वापिस घोंसले में रख आओ। इसकी माँ इसके लिए परेशान हो रही होंगी।“ हमने माँ को समझाया कि हम किसी घोंसले से उठाकर नहीं लाये हैं। यह गली में पड़ा था और एक कुत्ता इसे खाने ही वाला था। हम यह भी नहीं जानते कि यह कहाँ से गली में गिरा है। माँ तो माँ है नहीं मानी- देखो! ऊपर सामने वाले घर में कबूतरों ने दिवाल के मुक्कों में कितने घोंसले बना रखे हैं! यह अवश्य उन्हीं में से गिरा होगा जाओ रख आओ।“ घर के दक्षिण की तरफ सामने एक बड़ा-सा मकान था। जहाँ बाहरी दीवार पर कई मुक्के बने थे। वहीं असंख्य गोला कबूतर रहते थे। लेकिन समस्या यह थी कि वहाँ चढ़कर बच्चे को रखा ही नहीं जा सकता था। कोई सीढ़ी वहाँ तक नहीं पहुँच पाती। वह काफी उँचाई पर था। हारकर माँ को मानना पड़ा और भैया जुट गये कबूतर को जिलाने में। माँ ने एक छोटी-सी कटोरी में दूध दिया। आनंद दौड़कर रूई ले आया। भैया रूई के फ़ाहे में चुभो-चुभोकर बच्चे को दूध पिलाने लगे। एकाध दिन बाद चावल के दाने को दांत से कूचकर खिलाने लगे। धीरे-धीरे बच्चा स्वस्थ होने लगा। उसके पंख अब दिखाई देने लगे। जो भी देखता तो यही कहता-‘यह गोला कबूतर है, पलेगा नहीं। पंख लगते ही उड़कर भाग जायेगा।‘ पिताजी की शर्त थी कि इसे पिंजड़े में नहीं रखोगे। जैसे ही पंख लगे, उड़ना सीख जाये तो जहाँ जाना चाहे जाने दोगे। आनंद के भैया ने अपने कमरे में उसके लिए शानदार घोंसला बना दिया था। गोला जाति का होने के कारण सभी उसे प्यार से ‘गोलू’ कहने लगे। धीरे-धीरे गोलू बड़ा होने लगा। उसके शरीर को पंखों ने ढंक लिया। अब वह भैया के कमरे में टांड़ पर रहने लगा। उड़कर नीचे-ऊपर करने लगा। बिल्ली के डर से भैया अपना कमरा हमेशा बंद रखते थे। 

एक दिन पिताजी डांटने लगे-“मैने कहा था कि जब यह बड़ा हो जाय तो इसे छोड़ दोगे! तुम लोगों ने अभी तक इसे घर में ही कैद कर रखा है? छोड़ो इसे ! जाने दो अपने माता-पिता के पास, साथियों के पास। देखो! वे कबूतर अपने साथियों के साथ कितने खुश रहते हैं! तुम लोगों ने इसकी जान बचाई, अच्छा काम किया अब और अच्छा काम करो कि इसे इसके साथियों के पास ले जाकर छोड़ दो। ” आनंद जानता था कि पिताजी पंछियों को कैद करने के सख्त खिलाफ़ थे। उसे अच्छी तरह याद था। एक बार वे काली जी के मंदिर में दर्शन करने गये थे। वहाँ कई निरीह जानवर बली देने के लिए लाये जाते हैं। लोग मुर्गा, कबूतर खरीदते हैं और काली जी के प्रतिमा के पास ले जाकर बली चढ़ाते हैं। पिताजी ने भी बहेलिये से एक कबूतर खरीद लिया। आनंद ने सोचा पिताजी ये क्या कर रहे हैं! क्या ये भी बलि चढ़ायेंगे!!! लेकिन अगले ही पल पिताजी ने कबूतर को हवा में उड़ा दिया था। पिताजी का पंछी प्रेम वह जानता था। वैसे भी पिताजी के आदेश के बाद तर्क करना घर में किसी के वश में नहीं था। सभी बेहद मायूस हो गये। उनकी महीनो की मेहनत जाया जा रही थी। पिताजी गोलू को उड़ाने को कह रहे थे।! बच्चों ने माँ की शरण ली मगर माँ ने हस्तक्षेप करने से साफ़ इनकार कर दिया। उल्टे कहने लगीं-“ठीक ही तो कह रहे हैं। तुम लोगो ने उसे पाल पोसकर बड़ा किया अब उसे अपने मित्रों के साथ घूमने दो। तुम्हें कोई घर में कैद करके रखे तो तुम्हें कैसा लगेगा?” 

जिन्हें माँ शरण नहीं देती उन बच्च्चों की सारी उम्मीदें खत्म हो जाती हैं। आँखों के आगे अंधेरा छा जाता है। माँ से भी निराश होकर एक दिन आनंद के भैया ने तय किया कि अब कबूतर को उड़ा ही दिया जाय। कबूतर की विदाई के लिए आनंद के भैया ने रविवार का दिन चुना। पिताजी भी घर में थे। भैया कबूतर को छत पर ले गये। दक्षिण दिशा की ओर मुँह किया जिधर से वह आया था और एक नजर सबकी ओर देखा फिर उसे हवा में उड़ा दिया! कबूतर हवा में उड़ने लगा। मगर यह क्या! वह अपनी बिरादरी के पास वहाँ नहीं गया जहाँ सबने सोच रखा था। उसने आसमान का एक चक्कर लगाया और फिर वापस आकर भैया के कंधे पर बैठ गया! आनंद खुशी के मारे पागल हुए जा रहा था। भैया ने उसे प्यार से चूमा और फिर हवा में उड़ा दिया। उसने फिर हवा में एक चक्कर लगाया और फिर आकर छत की मुंडेर पर बैठ गया। यह सिलसिला कई बार चला। माँ ने देखा, पिताजी ने देखा घर के सभी सदस्यों ने बारी-बारी से उसे उड़ाने का प्रयास किया मगर वह जंगली कबूतर आनंद के घर को ही अपना घर, आनंद के परिवार को ही अपना साथी समझ रहा था। 

यह वही गोला कबूतर था जिसके रंग को देखकर लोग कहते थे कि यह नहीं टिकेगा। जिसकी नस्ल से लोग अंदाज लगाते थे कि यह वफ़ादार नहीं होगा। मुझे लगता है यही वह विश्वास है जिसने रंगभेद नीति के खिलाफ़ विजय हासिल की। यही वह विश्वास है जिसके सहारे नेल्सन मंडेला विश्व में सही साबित हुए। 

क्रमशः गोलू की कहानी अगले अंक में समाप्त हो जायेगी।

03 January, 2014

यादें-37-मुझे बिल्ली की तरह चीखना चाहिए था..!



बटाटे वाली बाई

'बटाटे वाली बाई' आनंद के घर के सामने वाले घर में किराए पर अकेले रहती थीं। उनकी उम्र होगी यही कोई पचास के आसपास। प्रायः गेरूए वस्त्र ही पहनती थीं। देखने में खूबसूरत नहीं थीं पर उनका मुस्कुराता चेहरा सभी बच्चों का मन मोह लेता था। बच्चों की गेंद कभी उनके कमरे से बाहर बनी छोटी-सी चहारदिवारी के भीतर चली जाती तो वे उसे प्यार से लौटा देती थीं। गेंद लौटाते वक्त उनकी आँखों में प्यार छलकता था। वे किसी से अधिक नहीं बोलती थीं। बस अपने काम से काम रखती थीं। हाँ, उन्होने एक जंगली बिल्ली पाल रखी थी। ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि बिल्ली उन्होने पाल रखी थी या उनकी ममता का फायदा उठाकर बिल्ली स्वयम् पल गई थी लेकिन कभी कभार उनको बिल्ली से ही बातें करते सुना जा सकता था। किसी दूसरे व्यक्ति से वह सिर्फ काम भर की बातें ही किया करती थीं। कहाँ से आई थीं ? वहाँ क्यों रह रही थीं ? कुछ नहीं पता। बस इतना याद है कि वे मराठी बोलती थीं जिससे लोग उन्हें महाराष्ट्रियन कहते थे। 

वह एक सुरंगनुमा बंद कमरा था जिसका मुँह गली की ओर खुलता था। उसी से कमरे में प्रवेश करतीं और उसी से बाहर निकलतीं। दूसरा कोई रास्ता न था। आनंद को बाई से कोई लेना देना न था। उसे तो मतलब था बस उनके बनाये बटाटे से। शाम तीन-चार बजे बेसन में लपेटकर जब वो कमरे में आलू की टिक्की छानतीं तो उसकी खुशबू से पूरा मोहल्ला बेचैन हो जाता। लोग धीरे-धीरे जमा होने लगते। धनियाँ की चटनी और गरम-गरम बटाटे मोहल्ले के छोरों को दोने में लेकर जाते देख आनंद का मन ललचने लगता। वह अपने किचेन वाली खिड़की से छुपकर बाई के बटाटे देखता रहता। उसकी ललचाई नजरों को देख कभी-कभी उसकी माँ का दिल पसीज जाता और वे मौका देखकर (आनंद अकेले हो, दूसरे भाई-बहन घर में न हों।) किसी डिब्बे में छुपाकर रखे पैसों से एक चवन्नी चुपके-से आनंद को दे देतीं। चवन्नी को खुशी से दाहिने हाथ की मुठ्ठी में बांधे आनंद अपने घर की सीढ़ियाँ ऐसे उतरता जैसे अब गिरा तब गिरा। माँ को चीखना पड़ता-आराम से जाओ बटाटे कहीं भागे नहीं जा रहे! लालची कहीं के.. 

मध्यमवर्गीय गृहणियों की गुल्लक इतनी बड़ी नहीं होती कि एक बार में सभी बच्चों का मन रख सकें। लाख मन होते हुए भी वे अपने किसी एक पुत्र के लिए अपने खजाने का मुँह नहीं खोल पातीं। जब वे किसी के लिए कुछ करती हैं तो दूसरे बच्चे दौड़ते हुए चले आते हैं..माँ! मेरे लिए? दुनियाँ की कोई माँ अपने बच्चों में भेद नहीं करती लेकिन अपनी ममता से लाचार हो, बगैर आगा-पीछा सोचे जो बच्चा सामने पड़ा उसकी जरूरत को देखते हुए अपनी झोली खाली करने से भी नहीं हिचकतीं। माँ के मुँह से ‘बटाटे कहीं भागे नहीं जा रहे’… सुनकर, एकाध भाई-बहन और लिपट जाते...और देखते ही देखते माँ की गुल्लक खाली हो जाती। बच्चे बटाटे लाते। माँ को घेरकर खड़े हो जाते। खाते-खाते बच्चों को एहसास होता.. सभी के लिए माँ ने पैसे दिये लेकिन अपने लिए तो दिये ही नहीं! सभी अपने-अपने दोनों से माँ को खिलाने का प्रयास करते। माँ कहतीं- नहीं, मेरा पेट भरा हुआ है। तुम लोग खा लो, मेरा मन नहीं है। लेकिन बच्चे नहीं मानते कुछ न कुछ माँ को खिलाकर ही दम लेते हैं। बच्चों की खुशी के आगे गुल्लक खाली होने का गम माँ पूरी तरह से भूल जातीं। 

वह जाड़े की अंधेरी रात थी। आनंद गहरी नींद में सो रहा था। बाहर बारिश हो रही थी। बारिश के साथ रह-रहकर बिजली भी कड़के लगती। बिजली की कड़क सुनकर आनंद की नींद खुल गई। उसे बहुत तेज़ पिशाब लगी थी। किचेन के बगल में नाली थी। पिशाब करते हुए उसे महसूस हुआ कि बाहर तेज़ बारिश हो रही है। तभी ‘म्याऊँ’-‘म्याऊँ’ की आवाज सुनाई दी..फिर एक दबी-दबी –सी एक चीख! फिर सब कुछ सन्नाटे में गुम। उसे लगा यह आवाज़ बाई के कमरे से आ रही है। वह दौड़कर किचेन में गया और खिड़की से बाई के कमरे की ओर देखने लगा। बिजली की चमक के साथ उसने बिल्ली को कमरे से निकलकर गली में भागते देखा। कमरे में हल्की रौशनी दिख रही थी। शायद लालटेन या ढिबरी की होगी। बाहर भयंकर अँधेरा था। वह सशंकित हो बाई के कमरे की तरफ देखने लगा। उसका मन अनिष्ट की आशंका से कांप रहा था। तभी माँ उसके पीछे आ गईं..यहां क्या कर रहे हो ? तुम्हें रात में भी बाई के बटाटे नज़र आ रहे हैं! वह माँ को चीख के बारे में बताना चाहता था लेकिन माँ कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थीं। माँ उसे लेकर बिस्तर में आ गईँ। पास ही पिताजी सो रहे थे। पिताजी के रहते कुछ बोलने की हिम्मत वह कभी नहीं जुटा पाया। बिस्तर पर उसे नींद नहीं आ रही थी। कान बाई के कमरे की ओर ही लगे थे। सोचते-सोचते कब नींद आ गई उसे कुछ नहीं पता। 

सुबह हो चुकी थी। गली से कोई उसे बुला रहा था-आनंद! आनंद! आँखे मलते हुए वह बरामदे में खड़ा हुआ। गली में मुन्ना खड़ा था-आज सोए रहोगे क्या! आनंद ने देखा-बाहर बहुत भीड़ है। उसने पूछा- ‘क्या बात है ? इत्ती भीड़ी क्यों है ?’ मुन्ना ने इशारे से उसे नीचे बुलाया। वह दौड़कर गली में आया। मुन्ना ने बाई के कमरे की ओर इशारा किया-वहाँ पुलिस खड़ी थी। मुन्ना ने कान में धीरे से कहा-रात में किसी ने बाई की हत्या कर दी! सुनते ही आनंद थच्च से चबूतरे पर बैठ गया। गली में कीचड़ था लेकिन उसकी आँखों में लगा कीचड़ पूरी तरह साफ़ हो चुका था। उसने धीरे से कहा - मुझे बिल्ली की तरह चीखना चाहिए था!                                                ……………………………………………………………………………………………..

10 August, 2012

यादें-36 (जन्माष्टमी)



कल श्री कृष्ण जन्माष्टमी है। आनंद श्रीकांत के उत्साह से उत्साहित है। वह पुराने लोहे के बक्से से अपने खिलौने निकाल रहा है। चीनी मिट्टी के बने खिलौने, कच्ची मिट्टी के बने खिलौने, प्लॉस्टिक के खिलौने, छोटी-छोटी कारें, ट्रैफिक पुलिस और भी बहुत से खिलौने! उसने जब भगवान शंकर की मूर्ति निकाली तो आनंद खुशी से चीख पड़ा

इन जटाओं से फुहारा निकलता है न

हां, लेकिन मुझे नहीं आता।

मेरे भैया तो निकाल देते हैं! तुमने देखा नहीं था मेरे घर में पिछले साल? भैया कह रहे थे शिव जी की जटा से गंगा जी निकल रही हैं!

देखा था लेकिन मुझे नहीं आता। तुम्हें आता है? वे पहाड़ कैसे बनाते हैं ! जिसे कैलाश पर्वत की शक्ल देकर शिव जी को  रखते हैं?

झाँवाँ लाते हैं।

यह कहाँ मिलता है?

मैं जानता हूँ । वे राजघाट रेलवे स्टेशन से बोरे में भरकर लाते हैं। अरे, जो पत्थर का कोयला या ईंट जल जाती है उसी को तो झाँवाँ कहते कहते हैं। जहाँ ईँट का भट्टा हो वहाँ भी मिलता है ।

तुम्हारे पास तो बड़े भइया हैं, मैं तो अकेला हूँ। मेरे भी भैया होते तो तुम्हारे घर से अच्छी जन्माष्टमी सजाता। देखो! मेरे पास कितने सुंदर खिलौने हैं

अकेले क्यों हो? ताई नहीं हैं? और मैं भी तो हूँ ! चलो इस बार हम तुम दोनो मिलकर जन्माष्टमी सजायेंगे।

तुम अपने घर नहीं सजाओगे?

अपने घर ? उंह! भैया मुझे सजाने ही नहीं देते। वे और उनके गंदे वाले दोस्त! मुझे तो सिर्फ ये लाओ, वो लाओ, काम ही बताते रहते हैं। सड़क बनाना हो तो गंगाजी से बालू मैं लेकर आऊं, बगीचा बनाने के लिए रंगीन बुरादे चलनी से छान-छान कर मैं साफ करूँ, जब सजाने की बारी आये तो मुझे डांटकर भगा देते हैं। कहते हैं, तुम खराब कर दोगे।

यह बात है! तब तो बड़ा मजा आयेगा हम तुम दोनो मिलकर इस बार जन्माष्टमी मनाते हैं।

हाँ, हाँ, ठीक है। लेकिन यह तो सोचो कहाँ सजायेंगे?

नीचे, राम मंदिर में इतनी अच्छी जगह तो है ही।

हाँ, हाँ ठीक रहेगा। वह जगह तो हमेशा साफ-सुथरी रहती है।

ताई को बता दें ? (खुशी से दौड़कर बड़ी बहन को बुलाते हुए) ताई-ताई, इस बार आनंद भी हमारे साथ खिलौने सजायेगा।J

(श्री कांत से 5 वर्ष बड़ी दीदी भी इस खबर को सुनकर प्रसन्न हो गई।)

ठीक है लेकिन तुम लोग आपस में झगड़ना मत। आनंद के भैया उसे बुलाकर ले गये तो ?

उन्हें बतायेंगे ही नहीं। वो आयेंगे तो कह देना आनंद यहाँ नहीं है।

ठीक है, यह सही रहेगा।

चलो हम लोग रेलवे स्टेशन से झाँवाँ बीन कर लाते हैं।

सुनते ही दीदी डर गईं। उतनी दूर जाओगे! आई को पता चल गया तो बहुत मारेंगी ।

पता चलेगा तब न? और जब पहाड़ सजेगा, शंकर भगवान की मूर्ति से गंगा जी निकलेंगी तब देखकर कितनी खुश होंगी !

हाँ, हाँ, खूब मजा आयेगा।

ताई! तुम बिलकुल चिंता मत करो। हम लोग एक घंटे में आते हैं। तब तक तुम सभी खिलौनों की साफ-सफाई कर दो और एक लिस्ट बना कर रखना कि क्या-क्या लाना है।

ठीक है।

ताई की सहमति से खुश श्रीकांत और आनंद दोनो एक बड़ा सा बोरा लेकर निकल पड़े झाँवे की तलाश में। रास्ते में आनंद ने अपने घर से भैया की साइकिल भी पार कर दी। कभी आनंद साइकिल चलाता कभी श्रीकांत। रेलवे स्टेशन दोनो के घर से कम से कम चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर था। दोनो मित्र प्लेटफॉर्म से आगे जहाँ पटरियाँ शुरू होती हैं, एक-एक कर रेलवे इंजन से गिरने वाले जले हुए पत्थर के कोयले को खूब ठोंक बजाकर देखते और अपने झोले में ऐसे सहेजते मानो कोई जौहरी हीरे के टुकड़े सहेज़ रहा हो। समय का खयाल न रहा। होश तब आया जब झोला झाँवे से भारी हो चुका था।

चलो, इतना बहुत है। इससे अधिक हम ले भी नहीं जा सकते।

हाँ, हाँ चलो। शाम होने को आई और हम अभी पहाड़ ही बटोर रहे हैं।

जैसे तैसे साइकिल के कैरियर में बोरी लाद-फाँद कर दोनो घर पहुँचे तो थककर चूर हो चुके थे। पहुँचते ही ताई ने झिड़की लगाई...

आनंद! तुम्हारे भैया दो बार आकर पूछ चुके हैं। बड़ी देर लगा दी तुम दोनो ने?

उन्हें ढूँढने दो। देर तो हो ही गई लेकिन हमें अभी बहुत से काम करने हैं।

खिलौने तो मैने सभी सफा कर दिये लेकिन बहुत कम हैं। आई कह रही थीं अशोक के पत्ते भी लाने हैं। कंदब या कंरौदे की टहनियाँ, केले के छोटे-छोटे खंभे और फूल-मालाएं भी लानी हैं बाजार से। ये बीस रूपये दिये हैं आई ने। मैं तुम दोनो को अपने पास से भी बीस रूपये देती हूँ। कुछ खिलौने लेते आना। ट्रैफिक पुलिस की मुंडी टूटी हुई है। घोड़े वाला ट्रैफिक पुलिस, इक्के और कुछ प्लॉस्टिक की कुर्सियाँ भी लेते आना। मेरी सुंदर गुड़िया कहाँ बैठेगी?

ये सब तो कल सुबह ले आयेंगे। पहले आज झाँवे से एक कोने में पहाड़ बना दें और उस पर भोले बाबा को रखकर रामू काका को पकड़ लायें। वे किसी बिजली मिस्त्री से कहकर मूर्ति से फुहारे निकालने का इंतजाम कर देंगे। झालर भी सजा देंगे।

श्रीकांत चहका..हाँ यह ठीक रहेगा। चलो...

तीनो ने मिलकर देखते ही देखते सुंदर पहाड़ सजा दिये। कहीँ-कहीँ गुफाएं भी बना दीं जिसमें मिट्टी के शेर भी बिठा दिये। रामू काका ने फुहारे निकलने और पानी गिरने के लिए छोटा सा तालाब भी बना दिया। ताई ने रंगोली सजा दी। तब तक अंधेरा हो चुका था। आनंद ने कहा...

अब रात हो चुकी है। पिताजी के आने का समय हो चुका है। कल सुबह-सुबह गंगा जी से बालू ले आयेंगे सड़क बनाने के लिए। बगीचे के लिए बुरादे भी लाने हैं। मैं चलता हूँ।

श्रीकांत चहका..सुबह बहुत से काम करने हैं। जल्दी आ जाना।

आनंद जब घर अपने घर पहुँचा तो उसके भैया और उनके दोस्त वही सब कर रहे थे जो उसने श्रीकांत के घर किया था। उन्होंने सुंदर एक्वेरियम भी सजाई थी जिसमें रंगीन मछलियाँ तैर रही थीं। आनंद को देखते ही भैया का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा...

अभी आ रहे हो? कहाँ थे दिनभर? कल तुम्हें यहाँ झांकने भी नहीं दुंगा। यहाँ इतना सारा काम बिखरा पड़ा है और ये जनाब किसी शतरंज की अड़ी में बैठे शतरंज खेल रहे होंगे। रामनाथ हार गइलन,घोड़ा भागल टी री री री...

आनंद ने कोई जवाब नहीं दिया। दौड़कर ऊपर भाग गया और मन ही मन हंसता रहा। तब तक पिताजी आ गये। पिताजी के सामने आनंद को पीटने की हिम्मत किसी भाइयों की नहीं थी। सबसे छोटा होने के कारण उसे बड़े भाइयों की पिटाई और बाबूजी का प्यार दोनो भरपूर मिलता था। खाना खा कर जब वह बिस्तर में गया तो नींद उससे कोसों दूर थी। नींद आई तो कान्हाँ के सपने उसे दूसरी ही रंगीन दुनियाँ में ले गये। जहाँ गोपाल जी थे और थी बड़ों के मुंह सुनी उनकी अनगिन शरारतें...

सुबह जब पलकें खुलीं तो नीचे गली में श्रीकांत को चीखते हुए पाया। आनंद को बरामदे में देखते ही श्रीकांत चीखा...

अभी सोकर उठे हो !

तुम चलो मैं अभी नहा धो कर आता हूँ….

ठीक है। जल्दी आना......


बनारस की गलियों में घर-घर जन्माष्टमी सजाई जाती थी। ये वो दिन थे जब बड़ों का उत्साह और छोटों की दीवानगी देखते ही बनती थी। ऐसा लगता था जैसे समय कहीं ठहर सा गया है। किसी को कोई दूसरा काम है ही नहीं। सभी को बस एक ही फिक्र है...जन्माष्टमी कैसे सजाई जाय! बच्चे अभी भी सजाते हैं लेकिव पहले वाली फुरसत अब किसी के पास नहीं।

दोनो बाल-मित्र गंगा जी से बालू ले आये। चौखंभा स्थित विशाल गोपाल मंदिर के द्वार के आस पास लगने वाली दुकाऩों से माला-फूल, गोपाल जी के सुंदर वस्त्र, मोतियों की माला, केले के छोटे-छोटे खंभे, अशोक के पत्ते और ठठेरी बाजार से थोड़े बहुत खिलौने खरीद लिये जो वे खरीद सकते थे। उस दिन एक और घटना घटी। अनायास आनंद कि निगाह भीड़-भाड़ वाली गली में जमीन पर गिरे रूपयों पर पड़ी। उसने लपक कर उसे उठा लिया और आगे ले जाकर श्रींकात के सामने मुठ्ठी खोल दी...

इतने रूपये कहाँ से मिले?

गली में गिरे थे

कित्ते हैं?

गिनकर देखते हैं। पूरे 85 रूपये हैं। इतने रूपयों में बहुत से खिलौने आ जायेंगे।

हाँ, लेकिन आई को पता चल गया तो?

आई को कैसे पता चलेगा?

ताई बता देगी!

ताई को कैसे पता चलेगा?

पागल हो! वो खिलौने देखते ही समझ जायेंगी कि इत्ते ढेर सारे खिलौने बीस रूपये में नहीं मिल सकते..

कह देना कि आनंद अपने पिताजी से मांगकर लाया था।

हाँ, यह ठीक रहेगा। लेकिन यह झूठ तुम्ही बोलना!

हाँ, हाँ, बोल देंगे! कोई चोरी थोड़े न की है। समझ लेंगे भगवान ने हमारे लिए भेजे हैं।

दोनो खिलौने की दुकान के सामने खड़े हो गये। श्रीकांत खिलौने मोलाने लगा। आनंद कभी ललचाई निगाहों से खिलौनो को देखता, कभी कंपकपाई उंगलियों से मुठ्ठी ढीली करता-बंद करता। अचानक से बोल पड़ा...

श्रीकांत! गोपाल जी ने पूछा तो ?

गोपाल जी ने?

हां, हां, गोपाल जी ने...गोपाल जी ने पूछा कि तुमने दूसरे के पैसों से जन्माष्टमी क्यों मनाई तो ? तुमने आई से झूठ क्यों बोला तो...?

तुम ठीक कह रहे हो लेकिन आखिर हम इन पैसों का करें क्या? जहाँ से उठाया वहीं फिर से गिरा दें !

नहींsss चलो. वहीं चलते हैं...शायद कोई आदमी अपने गिरे पैसे ढूँढता हुआ वहाँ आये तो उसे दे देंगे।

चलो!

दोनो बड़ी देर तक ऐसे व्यक्ति की प्रतीक्षा करते रहे जो पैसे ढूँढता दिख जाये लेकिन उन्हें कोई ना मिला।

अब क्या करें?

ये पैसे तो अब हम घर नहीं ले जा सकते। ऐसा करते हैं इसे इसी दुकानदार को दे देते हैं। कह देंगे कि कोई आदमी अपने पैसे ढूँढता हुआ यहाँ आये तो उसे दे देना। हमें यहीं गिरे मिले थे।

ठीक है। यही ठीक रहेगा।

लेकिन इस दुकानदार ने उसे नहीं दिये और खुद ही रख लिये तो ?

तो गोपाल जी उससे पूछें, हमसे तो बड़े पूछने चले आये थे ! हम सबका ठेका लिये हैं क्या ? :) 

दोनो ने पैसे दुकानदार को थमाये। अपनी झोली उठाई और घर की ओर जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाने लगे। जन्माष्टमी की सुंदर झांकी उनके नयनों में सजी थी जहाँ गोपाल जी की मुस्की देखते ही बनती थी...  



जारी....