10 October, 2011

यादें-34 ( हाई स्कूल का रिजल्ट )



यादें-1,यादें-2,यादें-3,यादें-4,यादें-5,यादें-6,यादें-7,यादें-8,यादें-9,यादें-10,यादें-11,यादें-12,यादें-13,यादें-14यादें-15, यादें-16दें-17,यादें-18,यादें-19,यादें-20,यादें-21,यदें-22यादें-23,यादें-24यादें-25 यादें-26,यादें-27यादें-28,यादें-29,भाग-30यादें-31,यादें-32, यादें-33 से जारी.....



उन दिनो उत्तर प्रदेश में यू पी बोर्ड की हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट परीक्षा का परिणाम एक बड़ी खबर हुआ करती थी। दूसरे बोर्ड इतने प्रचलित नहीं थे। गली-मोहल्लों  के मध्यम वर्गीय परीवारों में तो लोग दिल थाम कर रिजल्ट की प्रतीक्षा किया करते, भले ही घर का कोई बच्चा परीक्षा नहीं दिया हो। रिश्तेदारों, अड़ोसी-पड़ोसी के बच्चों पर भी खास निगाह रहती। परीक्षा परिणाम भी आज की तरह विषय वार, अंक सहित, नेट पर देखने की सुविधा नहीं थी। नेट क्या, उन दिनों फोन या टीवी का भी प्रायः नामोनिशान नहीं था। आज यू0पी0 बोर्ड परीक्षा 1976 का हाईस्कूल का रिजल्ट निकलने वाला था। जिनके घरों के बच्चे हाई स्कूल की परीक्षा दिये थे वे तो जानने के लिए उत्सुक थे ही, पूरा मोहल्ला रिजल्ट की प्रतीक्षा कर रहा था। घर से बाहर निकलते ही चाय पान की दुकान पर बैठे लोग पूछ बैठते..का हो ? आज रिजल्ट निकसे वाला हौ न..? देखा, जंगली कs का होला ! पास नाहीं भयल तs ओकर बपवा जहर खा लेई दूसरा कहता...काहे ऐसन कहत हउवा...? भगवान करे पास हो जाये! ओकर सांस तs बेटवा के रिजल्ट में अटकल हौ। ओकर सपना हौ कि जंगली इंजिनियर बने। देखा मुन्नवां कs का होला। बेचारा बड़ी कष्ट उठाके पढ़ले हौ।

मोहल्ले वाले दो ही बातें जानते थे...पास या फेल। प्रथम का स्वाद शायद तब तक उस मोहल्ले में लोगों ने नहीं चखा था। कभी कोई प्रथम श्रेणी में पास हुआ भी होगा तो लोगों को इसका ज्ञान नहीं था। दोपहर बीतते-बीतते अखबार वाला..हाईस्कूल..हाईस्कूल..हाईस्कलू का रिजल्ट चीखते हुए मोहल्ले से गुजरा तो मोहल्ले वाले जंगली और मुन्ना का रिजल्ट जानने के लिए बेताब हो उठे। परिणाम मोहल्ले के लोगों के लिए धमाकेदार था। जंगली प्रथम तो मुन्ना द्वितीय श्रेणी में पास हुआ था। जंगली के पापा की खुशी का ठिकाना न था। वे अखबार लेकर पूरे मोहल्ले में घूम-घूम कर अपने बेटे की तारीफों के पुल बांधते फिर रहे थे। उनका बेटा क्या था अलादीन का चिराग था। जो छू ले वही हो जाय, जो मांगो वही ला दे। वे सबसे गर्व से कहते...हे देखो, मेरा बेटा प्रथम श्रेणी में पास हुआ है। तुम देखना मैं उसे इंजिनीयर बनाउंगा..हे देखो, अब कोई माई का लाल रोक नहीं सकता। हे देखो...क्या गज़ब का नम्बर पाया है ! चबूतरे पर बैठे, पान घुलाये, मुँह फुलाये, बड़ी सी तोंद वाला सरदार जो बहुत देर से उनकी बातें सुन रहा था, अचानक से उठा और गली में किनारे पिच्च से पान थूक कर बोला...का कहत हउआ...! अभहिन तोहें नम्बर कैसे मालूम चल गयल ? तोहरे लइका कs फोटू छपल हौ का अखबारे में...? टॉप करे वाले 20 लइकन कs सूची देहले हौ..! एहमें तs जंगली कs कत्तो नाम नाहीं हौ !! कौनो पेसल अखबार खरीदले हउवा का कि जेहमें नम्बरो छपल हौ..? नाहीं तू सबके बुड़बक समझला का..? जंगली के पापा एक पल के लिए झिझके फिर शुरू हो गये...मार्कशीट नहीं मिला तो क्या..हे देखो, मैं जानता हूँ सब पेपर में डिक्टिंशन होगा मेरे बेटे का। तुम सब जलते हो मेरे बेटे से..हे देखो, पहले तो तुम लोग यह भी नहीं मानते थे कि मेरा बेटा फस्ट आयेगा..हे देखो, आया कि नहीं आया ? हे देखो, ओसेहीं नम्बर भी देख लेना। अखबार में फोटू भी छपेगा..! हे देखो, बहुत अच्छे नम्बर से पास हुआ है मेरा बेटा। मुन्ना भी उसके संग रहकर सेकेंड डिवीजन से पास हो गया। हे देखो, संगति का असर होता है। हे देखो...उसका भी कल्याण हो गया। सरदार के साथ-साथ सभी खड़े लोग उनका पुत्र प्रेम भौचक हो आँखें फाड़े देखते रह गये। सरदार बोले...कोई तोहरे बेटवा से नाहीँ जलत। सबके तोहरे बेटवा पे गर्व हौ। तोहार बेटवा मोहल्ला कs नांव ऊँचा कइले हौ..मगर तू जब ढेर हांके लगला तs सबकर सुलग के कलाबत्तू हो जाला। खाली भांषड़े झोकबा कि मिठाई-सिठाई भी आई राम भंडार से ? मिठाई की क्या बात है...हे देखो, मिठाई पर से आओ-जाओ...अभी मंगाता हूँ.....हे देखो, मिठाई खिलाने से कौन भागता है...? फस्ट आया है मेरा बेटा। उन्होने सभी को खूब मिठाई खिलाई और देर शाम तक पूरे मोहल्ले में जंगली के फस्ट आने और उनके पापा के मिठाई खिलाने की चर्चा का बाजार गर्म रहा। दूसरी ओर मुन्ना द्वितीय श्रेणी पा कर दुःखी था। उसे जंगली के पापा की गर्वोक्ति बहुत खल रही थी। वह अफसोस करने के सिवा और कर भी क्या सकता था। आनंद की माँ को इस बात का संतोष था कि इन परिस्थियों में भी मुन्ना का साल बर्बाद नहीं हुआ और वह द्वितीय श्रेणी में ही सही, पास हो गया।

 आनंद को कक्षा आठ में भी कक्षोन्नति मिल गई थी। वह भी नवीं में आ गया था। कुछ तो पढ़ाकू साथियों का संग, कुछ जंगली-मुन्ना की पढ़ाइयों का असर कि उसे भी लगने लगा था कि पढ़ाई एक ऐसी चिड़िया का नाम है जिसे पकड़े बिना उड़ा नहीं जा सकता। आनंद के घर में भी पढ़ाई का माहौल था लेकिन उसके सभी बड़े भाई पढ़ाई के मामले में कुछ विशेष नहीं कर पाये थे। आनंद के पिताजी भी सभी को पढ़ाते-पढ़ाते इतने बोर हो चुके थे कि उन्होंने आनंद से कभी यह नहीं कहा कि तुम्हें पढ़ाई के प्रति ज्यादा ध्यान देना चाहिए। एक तरह से वो उम्मीद छोड़ चुके थे। उन्हें पक्का यकीन हो चला था कि उनका यह बेटा भी अपने बड़े भाइयों की तरह नालायक है और कुछ खास नहीं कर सकता। मध्यम वर्गीय पिता जिनकी कई संताने होती हैं, वे अपनी प्रारम्भिक सतांनो पर ही जोर आजमाइश कर इतना टूट चुके होते हैं कि बाद के संतानो के लिए न उनके तन में शक्ति शेष बची रहती है न मन में। यह सच है कि बच्चे को जिधर ढाल दो उधर ढल जाता है लेकिन इस ढालने की प्रक्रिया में घर के साथ-साथ, बाहरी वातावरण का भी बहुत बड़ा हाथ होता है। एक तरफ जंगली के पापा के जैसा दृढ़ प्रतिज्ञ पिता था तो दूसरी ओर मुन्ना जैसा परिस्थिति जन्य कठोर मना दुखी, अनाथ बालक। एक तरफ बड़े भाइयों की असफलता तो दूसरी ओर मोहल्ले का वातावरण। एक तरफ पढ़ाई ही सब कुछ है का हो रहा ज्ञान तो दूसरी ओर मन में हिलोरें मारतीं जासूसी उपन्यासों, कहानियों, क्रिकेट, शतरंज जैसे खेलों के प्रति गहरे अनुराग के साथ साथ बचपन की अनगिन शरारतों का शोर। आनंद पर चतुर्दिक मानसिक हमला बदस्तूर जारी था। आनंद की शिक्षा घर के अनुशासन से परे एक स्वतंत्र वातावरण में हो रही थी, जिस पर परिवार वालों का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं था। बनना बिगड़ना सब उसी पर निर्भर था।
( जारी.....)

16 June, 2011

यादें-33 ( समय की मार और सिसकता बचपन )


समय सदैव एक सा नहीं होता। आदमी जब समझता है कि सब कुछ ठीक चल रहा है, तभी अनायास कुछ ऐसा हो जाता है कि वह अपना सर धुनने लगता है। जब चिड़ियों की चहचहाहट में मधुर संगीत का आनंद ले रहा होता है तभी एक मोर चीखता हुआ गुजर जाता है। जब पूनम का चाँद प्यारा, बहुत प्यारा लग रहा होता है तभी काले बादलों का जत्था आ कर उसे पूरी तरह से ढक लेता है। जब शांत पहाड़ी झील में नौका विहार का आनंद ले रहा होता है तभी तूफान पूरे वातावरण को यकबयक करूण क्रंदन में बदल देता है। शांत जल की नन्हीं-नन्हीं लहरियाँ, ऊँची-ऊँची लहरों में परिवर्तित हो जाती हैं । चप्पू चलाने वाले युवा जोड़ों का मन भयाक्रांत हो जाता है।  एक पल पहले जिस चप्पू को वे हौले-हौले, चुपुक-चुपुक की आवाज के साथ मधुर गीत गुनगुनाते हुए, भाव विभोर हो चला रहे थे वही चप्पू दूसरे ही पल जीवन रक्षा के लिए छपाक-छपाक की आवाज के साथ भाजने लगते हैं। छण भर में जीवन के संगीत बदल जाते हैं। हर्ष की बात यह है कि ये अंधेरे, काले बादल, ये तूफान, हमेशा नहीं रहते। काले बादलों से निकलकर चाँद, और भी खूबसूरत दिखाई देने लगता है। तूफान थम जाने के बाद, शांत जल की लहरियों को, चप्पू चला चलाकर थके हाथ, कितनी उपेक्षा से देखते हैं ! उँह ! चले थे हमसे मुकाबला करने मन मयूर नंगा हो नाचने लगता है..हवा अच्छी लगने लगती है, कोयल गाती सी प्रतीत होती है, पहाड़ हँसते से लगते हैं । सब कुछ पल भर में बदल जाता है। शायद यही जीवन है। शायद यही आनंद है।

मुन्ना के साथ भी नीयति ने क्रूर मजाक किया। उसके बाबा की मृत्यु क्या हुई, पूरे घर में वज्रपात ही हो गया। पिता को व्यापार में भयंकर घाटा लगा। कुछ ही महीनों में सब कुछ चला गया । वे इसका गम सहन नहीं कर सके और शराब के आदी हो गये। मुन्ना की माँ अपने जुड़वाँ, दुधमुहें बच्चों को सीने से लगाए, बरामदे पर खड़े हो आनंद की माँ से अपना दुखड़ा सुनाते-सुनाते हिचकियाँ ले ले कर रोने लगतीं तो वहीं पास खड़े सब सुन रहे आनंद की आँखें भी आसुओं से भर जातीं। मुन्ना के पापा घर खर्च चलाने के लिए फिर अपना पुराना कंपाउडरी वाला पेशा करने लगे। परचून की दुकान चलाना उनके वश का नहीं था। बाबा की मृत्यु के बाद दुकान संभालने वाला कोई नहीं मिला तो दुकान बंद हो गई। कुछ ही दिनों में दुकान का राशन-पानी भी खतम हो गया। थकहार कर मुन्ना की माँ ने उस दुकान को किराए पर उठा दिया। जिसमें शर्मा जी ने अपनी नई दुकान खोल ली।

क्रूर समय ने मुन्ना का बचपन उससे एक झटके में छीन लिया था। कहाँ तो बाबा के दुकान से उड़ाए पैसों से मनाया जाने वाला निस दिन का आनंद और कहाँ रोटी के लाले। कहाँ तो जुबान से निकलते ही पापा का फरमाइश पूरा करने का संकल्प, कहाँ देर रात, शराब के नशे में चूर, घर आते पापा का वहशीयाना अंदाज। बचपन खून के आँसू रोता, हर पल मरता जा रहा था। समय बदल चुका था, पापा बदल चुके थे और बदले हालात में पूरी तरह बदल चुका था मुन्ना।

एक दिन विशाल आनंद के पास दौड़ा-दौड़ा आया….सुना तुमने ? मुन्ना का घर बिक गया !

क्या ! उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ।

हाँ। विशाल बोला....उसके पापा ने ढेर सारा कर्ज ले लिया था। कर्ज चुकाने के लिए उसके पापा ने अपना मकान बेच दिया।

यह खबर सुनकर आनंद को गहरा सदमा लगा। उसने अपने ही घर से मुन्ना को आवाज दी। मुन्ना आया और रो-रो कर बताने लगा....घर बेचकर पापा गांव चले गये हैं। हमको भी ले जाना चाहते हैं मगर हमने साफ कह दिया कि मेरी 10वीं की परीक्षा सर पर है। हमको कहीं नहीं जाना। आपको जहां जाना हो अम्मा के साथ चले जाओ।

तुम कहाँ रहोगे ?

मैने जंगली के पापा से बात कर ली है। हम उसी के घर में रहकर पढ़ाई पूरी करेंगे। मुन्ना की बात सुनकर दोनो दुःखी हो गये। दोनो ने महसूस किया कि मुन्ना अब बहुत बड़ा हो गया है।

कुछ ही दिनो में मुन्ना का घर खाली हो गया। पापा गये, अम्मा गईं, भाई-बहन गये और वह खुद जंगली के घर रहने के लिए चला गया। आनंद का प्लास्टर भी कट चुका था। उसने दोनो पैरों से चलना शुरू कर दिया था। बात आई-गई हो चुकी थी। अब वह स्कूल भी जाने लगा था। आठवीं के छात्र आनंद का मन अभी भी कोर्स की किताबों से ज्यादा कहानी की किताबों में ही लगा रहता। पढ़ाई के नाम पर स्कूल जाना ही बहुत था मगर बहुत दिनो से स्कूल न जाने के कारण मजबूरी में उसे भी दोस्तों की कापियाँ ला कर घर में काम पूरा करना पड़ता। आते-जाते उसकी टक्कर मुन्ना से हो जाती जो अब बहुत कम बोलता था। 003 नामक जासूसी संस्था, अतीत के गर्त में समा चुकी थी। मुन्ना के मुख पर हमेशा छाई रहने वाली हँसी, गहरी उदासी में परिवर्तित हो चुकी थी।

कोई ऐसे ही किसी को आश्रय नहीं देता। दया में भी स्वार्थ छुपा होता है। जहाँ जंगली के पापा ने मुन्ना को रहने के लिए ठिकाना दिया, दो वक्त की रोटी दी, वहीं वे उससे घर का ढेरों काम करवाते। सुबह-सबेरे दोनो हाथों में बाल्टी ले, जब मुन्ना सरकारी नल से पानी भर-भर कर ला रहा होता तो आनंद से निगाहें मिलते ही मारे शर्म के, सर झुका कर बगल से गुजर जाता। उसका मौन, उदास चेहरा,  दिन भर आनंद को कचोटता रहता। उसे यह सोचने को मजबूर करता कि क्या वाकई पढ़ाई इतनी जरूरी है? मुन्ना क्यों नहीं चला जाता अपने गाँव? क्यों सहता है यह सब? क्या वह भी बड़ा होकर इंजीनियर बनना चाहता है? वह अपनी माँ से मुन्ना के दुःख के बारे में बातें करता। आनंद की माँ को भी मुन्ना का कष्ट सहन न होता। आनंद के पिता के डर से वह यह तो नहीं कह सकती थीं कि यहीं आकर रहो मगर प्रायः बुलाकर खाना खिला दिया करतीं।

एक दिन मुन्ना जब आनंद के साथ खाना खा रहा था आनंद ने पूछा......

तुम गाँव क्यों नहीं चले जाते ?

पहले तो मुन्ना ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन बार-बार पूछने पर लगभग चीखते हुए बोला....

कैसा गाँव? कौन सा गाँवमेरा कोई गाँव नहीं है। मेरी माँ नाना के घर रहती हैं। मैने पापा को रेलवे प्लेटफॉर्म पर भिखारियों के साथ बैठकर खाना खाते देखा है ! सुना तुमने..? उन्होने अपना सब पैसा जुआ और शराब में उड़ा दिया है ! मैं सबसे झूठ बोलता हूँ कि मेरे पापा गाँव चले गये हैं ! दुबारा मत पूछना। एक बात और तुमसे कहे देता हूँ.....तुम देखना ! मैं खूब पढ़ूँगा। अपनी पढ़ाई पूरी कर ढेर सारा पैसा कमाउँगा। बड़ा सा घर बनाउँगा जिसमें सब होंगे.....पापा, अम्मा, भाई, बहन। इतना कहते-कहते वह फफक-फफक कर रोने लगा। रोते-रोते आधी थाली बीच में ही छोड़कर जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धोने लगा। 

आनंद की माँ ने उसे बहुत समझाया, शाबाशी दी और कहा कि भगवान जरूर तुम्हारी इच्छा पूरी करेंगे। भगवान उसी के साथ होते हैं जो साहस से मुश्किलों का सामना करते हैं। तुम एक बहादूर बेटे हो। तुम्हारे पापा बुरे आदमी नहीं हैं। समय ने उनको यह दिन दिखाया है। तुम मन छोटा मत करो। मन लगा कर पढ़ाई करो। इम्तहान खत्म करो फिर जाकर उनको ले आना। तुम चाहो तो यहीं रह सकते हो। यह तुम्हारा ही घर है। मैं भी तुम्हारी माँ जैसी हूँ। आनंद के पिता जी से बात कर लुंगी। वे कुछ नहीं कहेंगे।

माँ की बातें सुनकर मुन्ना का मन कुछ हल्का हुआ। देर तक सुबकता रहा। हाँ..हूँ करता रहा । कुछ देर बाद आनंद को गहरे सन्नाटे में छोड़कर, वहाँ से उठकर चला गया। बिचारा आनंद क्या जाने कि जिसके सर पर दुखों का पहाड़ टूट पड़े, उसे प्राणों से प्यारे मित्र की सच्ची संवेदना भी ज़हर लगती है। 
( जारी.....)

12 June, 2011

यादें-32 ( लंगड़े की शैतानी )


एक तो दर्द का एहसास ऊपर से पिताजी का गुस्सा। बिस्तर पर लेटे-लेटे आनंद कभी उस चमकीले रिक्शे को कोसता जिसके चक्कर में यह दुर्घटना हुई, कभी अपने पर सशंकित रहता कि अब शायद वह कभी व्यायाम शाला नहीं जा पायेगा ! व्याययाम शाला नहीं जा पायेगा तो बड़ा जासूस कैसे बनेगा चमकीली दिखने वाली चीज जीवन में अंधकार भी लेकर आ सकती है, यह वह जान चुका था। ठोकर इंसान को सबक सिखाती तो है पर यह क्षणिक ही होता है। लोभ और चित्त की चंचलता उसके सीखे सबक को वैसे ही मिटा देती है जैसे स्मशान से लौटने के तुरंत बाद हम यह भूल जाते हैं कि जीवन नश्वर है। साथ कुछ नहीं जाता। शेष रह जाते हैं तो सिर्फ व्यक्ति के कर्म।

कुछ दिनो बाद जब बाहरी जख्म ठीक हुआ, आनंद के दाहिने पैर में प्लॉस्टर लग गया। आनंद के पैर की हड्डी क्या टूटी, उसका जीवन ही बदल गया। कहाँ रोज-रोज की धमाचौकड़ी, कहाँ घर का वीराना। प्रायः कमरे में लेटा वह घूमते सीलिंग फैन को देखा करता । डाक्टर ने पैर सीधा रखने व हिलाने-डुलाने से मना किया था। कुछ दिनो तक तो यह चलता रहा मगर धीरे-धीरे आनंद एक पैर से लंगड़ाता घर की सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने लगा। पिताजी के ऑफिस जाते ही उसके साथी आ धमकते। घर की छत पर अपने मित्रों की मदद से एक सुराख बना दिया था, जिसमें वे कंच्चे खेला करते थे। इधर पिताजी दफ्तर गये उधर उसके साथी आ जाते और सब मिलकर देर तक कंच्चे खेला करते।

शनीवार का दिन था। आनंद अपने मित्रों के साथ कंच्चे खेलने में मशगूल था। शनीवार के दिन दफ्तर में हॉफ डे हुआ करता था। पिताजी दफ्तर से जल्दी घर आ गये। खेल की धुन में आनंद को पता ही नहीं चला कि आज शनीवार है। इसका ज्ञान उसे तब हुआ जब पिताजी क्रोध से तमतमाये, हाथ में छड़ी लिये, साक्षात शनी बन उसके सर पर सवार हो गये। धनुष यज्ञ में जैसे परशुराम को देखकर बड़े-बड़े वीर पलायित हो गये थे, वैसे ही पिताजी को देखते ही आनंद के मित्र जहाँ से रास्ता मिला वहीं से भाग लिये। कोई छत डाक गया, तो कोई सीढ़ी कूद गया। मगर हाय ! आनंद कहां जाता ? उस दिन उसकी जो पिटाई हुई कि उसे लगा अब तो सारे शरीर में प्लास्टर बंधवाना पड़ेगा। ज्यादा क्रोध तो पिताजी को छत में सुराख देखकर आया जिसे वे हर वर्ष, बरसात से पहले, अपनी गाढ़ी कमाई से न चूने लायक बनवाते थे। उस दिन की पिटाई के बाद तो आनंद के मित्रों का उसके घर आऩा लगभग बंद ही हो गया। हाँ, बरामदे या छत पर कभी दिख जाय तो घटना को याद कर हंसते हुए पूछते..."का लंगड़ ! ठीक हो अब मत खेलना बेटा।" उनकी हा..हा..ही...ही ..आनंद के तन बदन में आग लगा देती। बचपन की दोस्ती जितनी संवेदनशील होती है उतना ही इस एहसास से अनभिज्ञ कि हमारे उपहास दूसरों को कितनी पीड़ा दे सकते है हाँ, मुन्ना अक्सर उसके घर आया करता जिसके सहारे वह किताबें पढ़ता रहता।

एक दिन उसके बड़े भाई श्रद्धानंद अपने मित्रों के साथ घर आये और कमरे में बैठकर शतरंज खेलने लगे। यह खेल उसे बड़ा ही रोचक लगा। कुछ ही दिन में भैया को खेलते देख-देख कर उसने सभी चालें सीख लीं।

घर में लकड़ी की दो बड़ी-बड़ी आलमारियाँ हुआ करती थीं जो तीसरी मंजिल पर बने एकमात्र बड़े कमरे को दो बराबर भागों में बांटती थीं। श्रद्धा भैया अपना शतरंज उसी लकड़ी की आलमारी में, जिसमें दुनियाँ भर के प्राचीन ग्रंथ लाल कपड़ों से लिपटे सुरक्षित रखे हए थे, ताला बंद कर छुपाकर रखते ताकि उनके शरारती भाई न खेल सकें। मध्यम वर्गीय परिवारों में बड़ा भाई, अपने खेल के सामान या व्यक्तिगत पसंद की छोटी-छोटी चीजों को भी अमूल्य निधि की तरह संभालकर, छोटे भाइयों से छुपाकर रखता है । क्या मजाल की उसकी कीमती चीजें, (चाहे गंगाजी से उठाकर लाया गया सुडौल पत्थर का टुकड़ा ही क्यों न हो) उसके छोटे भाई छू भी लें !

आनंद बड़े भाई साहब के विश्वविद्यालय जाने की प्रतीक्षा करता। जब वे चले जाते तो मुन्ना को आवाज देकर बुलाता। मुन्ना के आते ही दोनो मिलकर, आलमारी के ऊपरी हिस्से से जो खुला रहता, हाथ डालकर, नीचे के खाने में रख्खा शतरंज का दफ्ती का बोर्ड और गोटियाँ निकाल लेते। आनंद के भैया कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि इसमें हाथ डाला भी जा सकता था। छोटे बच्चे अगर चोरी पर उतर आयें तो सफाई से, अपनी नन्हीं उँगलिय़ों का इस्तेमाल कर, बड़े सामानों में हाथ साफ कर सकते हैं। शुरू-शुरू में आनंद ने मुन्ना को शतरंज के नीयम सीखाये जो उसने बड़े भाई साहब को खेलते देखकर सीखे थे । जल्दी ही मुन्ना को भी शतरंज खेलना आ गया। दोनो जमकर खेलते और खेलने के बाद उसी तरह रख देते जैसे निकालते थे। आनंद के भैया को इसकी खबर कभी न होती यदि खेलते-खलते दोनो में झगड़ा न हुआ होता।

हुआ यूँ कि एक दिन हारने के बाद चिढ़कर मुन्ना ने आनंद के सर पर लकड़ी का वजीर दे मारा। उस समय शतरंज के मोहरों की बनावट ऐसी होती कि राजा और वजीर के सर पर मुकुट जैसी लकड़ी की छोटी सी घुण्डी बनी होती। ऊँट घोड़े की तुलना में थोड़े लम्बे, हाथी क्यारम की गोटियों की तरह चपटे और प्यादे छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़े हुआ करते थे। आनंद ने वजीर से मुन्ना को ऐसे मारा कि सर पर टकराते ही वजीर की घुण्डी टूट गई। वजीर की हालत देख जहां आनंद अपना चोट भूल गया वहीं मुन्ना का गुस्सा भी जाता रहा। अब दोनो घबड़ाये कि चोरी पकड़ी गई। भैया आयेंगे तो बहुत मारेंगे। दोनो इस समस्या पर गंभीरता पूर्वक विचार करने लगे। काफी विचार विमर्श के बाद मुन्ना ने सलाह दी कि क्यों न हम शेष बचे राजा वजीर के सर की घुण्डी भी तोड़ दें जिससे सभी मोहरे एक समान हो जांय। विनाशकाले विपरीत बुद्धि। जब मुसीबत आने को होती है तो सबसे पहले बुद्धि साथ छोड़ जाती है। घबड़ाहट में दोनो ने मिलकर शेष बची घुण्डियाँ भी तोड़ डालीं। मोहरे वैसे ही रख दिये गये।

उस दिन शाम को आनंद के भाई साहब ने जैसे ही अपने दोस्तों के साथ खेलने के लिए मोहरे निकाले उनका दिमाग खराब हो गया। बंद तालों में रखे मोहरों की हालत देख कर उनको बहुत गुस्सा आया। उन्हें समझते देर न लगी कि आनंद की ही शैतानी है। पूछने पर आनंद ने सब कबूल कर लिया। जब भाई साहब ने और उनके दोस्तों ने सुना कि उन्होने सभी मोहरे क्यों तोड़े थे तो देर तक आनंद और मुन्ना की बेबकूफियों पर हंसते रहे। अच्छी बात यह हुई कि हंसी ने भैया के क्रोध का मार्ग अवरूद्ध कर दिया। क्रोध और हँसी दोनो की दोस्ती हो ही नहीं सकती। मासूम गलतियाँ अक्सर पिटने से बच जाया करती हैं। क्रोध हाथ मलता कुछ देर ठगा सा खड़ा रह जाता है फिर कपूर की तरह जलकर भस्म हो जाता है। शेष रह जाती है नेह भरी यादों की कस्तूरी सुगंध, जो जीवन भर हर्षाती रहती है।

उस दिन से एक बात और अच्छी यह हुई कि शतरंज बाहर ही रखा जाने लगा। आनंद को भी जब उसके भाई साहब खेल रहे होते बीच-बीच में चाल बताने का मौका मिलने लगा। धीरे-धीरे वह भी भाई साहब और उनके साथियों के साथ एक-दो बाजी खेलने लगा। भाई साहब को शतरंज का ज्यादा नशा न था। वे बस मित्रों के साथ एक दो बाजी ही खेलते मगर जब से आनंद ने उन्हें हराना शुरू किया उनका और उनके दोस्तों का खेलना और भी कम होता गया। छोटे भाई से हारना, बड़े भाई जल्दी बर्दास्त नहीं कर पाते इसके विपरीत यह भी सच है कि पिता अपने बच्चों से हार कर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। धीरे-धीरे शतरंज के मोहरे व शतरंज का शौक बड़े भाई साहब से ट्रांसफर होकर पूर्णतया आनंद के हिस्से आ गया।
( जारी....)

11 May, 2011

यादें-31 ( सावधानी हटी, दुर्घटना घटी )


आनंद अपने दोस्तों के साथ स्कूल से घर लौट रहा था। भैरोनाथ चौराहे से जैसे ही आगे बढ़ा, सामने एक नया रिक्शा दिख गया। रिक्शा इतना चमकीला था कि उसके पीछे खड़े होकर देखो तो लगता कि दर्पण के सम्मुख खड़े हैं ! आनंद अपने स्कूली  मित्रों, अरूण और उमेश के साथ रिक्शे के पीछे खड़े होकर, भिन्न-भिन्न मुख मुद्रा बनाकर अपने हाथ-पांव देखने में मगन था। सरकस में रखे हंसी घर के आईनों की तरह यह रिक्शा भी करामाती था ! शरीर पतला, मुख एकदम से चौड़ा तो पैर ठिगना दिखाता था। तीनों आपस में चहकते...वो देखो ! तुम्हारा मुंह कितना चौड़ा है !....वो देखो ! मेरा पैर कितना मोटा है! ...वो देखो ! मेरा पेट तो है ही नहीं..! हा..हा..ही..ही..में मशगूल बच्चों को पता ही नहीं चला कि कब उनके पीछे से आ रही, गेहूँ के बोरों से लदी बैलगाड़ी, आनंद को अपने चपेटे में लेते हुए आगे बढ़ गई। अरे रे..! देखा हो.s..! लड़का दब गयल रे.s.s.! कहते लोग दौडते इससे पहले ही आनंद के दाहिने पैर को रौंदती बैलगाड़ी आगे बढ़ चुकी थी ! यह संयोग ही था एक दिन पहले आनंद का जन्म दिन था और उसने उपहार में मिला बाटा का नया बूट पहन रख्खा था। मध्यम वर्गीय पिताजन्म दिन के अवसर पर उपहार स्वरूप, अपने बच्चों की ऐसी ही आवश्यकताएँ पूर्ण कर पाते हैं। जूता न पहना होता तो उसके पैर की चटनी बन जाती। असहनीय पीड़ा से छटपटाते आनंद को लोगों ने किनारे बिठाया। साथियों को इसे घर ले जाने की सलाह दी। अरूण, उमेश के कंधों के सहारे, एक पैर से लंगड़ाता आनंद जब तक चौखम्भा स्थित अरूण के घर तक पहुँचता, उसका एक पैर, रिक्शे में दिखते आइने की तरत फूल कर, सच में हाथी का पांव हो चुका था ! अरूण, आनंद को अपने घर ले गया। उमेश आनंद के घर खबर देने के लिए दौड़ा। जब तक आनंद के बड़े भाई आते और उसे उठाकर डा0 नन्द लाल अग्रवाल के पास तक ले जाते अरूण की माँ प्रेम पूर्वक आनंद के पैर में आयोडेक्स रगड़ती रहीं मानो उसके बेटे को ही चोट लगी हो। यही वह प्रेम है जो नारी को दया की देवी बनाता है। जो कष्ट में पड़े बालक के प्रति भेद नहीं रखती कि यह मेरा बेटा है या मेरे बेटे के साथ खेलने वाला कोई अपरिचित। आनंद इससे पहले भी अरूण के घर गया था मगर आज उसने जब अरूण की माँ के आँखों में अपने लिए आँसू देखे तो उसे लगा कि मेरी ही नहीं, दुनियाँ में सभी की माँ अच्छी होती हैं।   

आनंद के भैया आये और उसे डा0 नंदलाल अग्रवाल के पास ले गये। उन्होने देखते ही घोषित कर दिया कि एड़ी की हड़डी टूट चुकी है, बाहरी जख्म ठीक होने के पश्चात ही प्लास्टर बांधा जा सकता है। तीन महीने का पूर्ण विश्राम आवश्यक है। डा0 ऩन्दलाल अग्रवाल हड़डी के डाक्टर नहीं थे किन्तु आनंद के घर के फेमिली डाक्टर  थे। यह अलग बात है कि डा0 को आनंद की फेमली से मात्र उतना ही प्रेम था जितना घोड़े को घास से मगर आनंद के परिवार में उन्हें ही दूसरे भगवान का दर्जा प्राप्त था। आनंद के परिवार के लिए वे पूर्णतया आलराउण्डर थे। किसी का सर फूटे, पैर टूटे, छाती धड़के, पेट खराब हो, दांत उखड़वाना हो, तेज बुखार हो, सभी बड़े से बड़े रोगों के लिए रामबाण डाक्टर-डा0 नंदलाल अग्रवाल। दरअसल आनंद के परिवार में मरीजों के इलाज के भी तीन स्तर हुआ करते थे। बीमारी के स्तर से इलाज का आर्थिक निर्धारण तय था।

(1)साधारण बीमारी -- होमियोपैथी डाक्टर, डा0 भूमिराज शर्मा का मुफ्त इलाज। जो बुलानाला चौराहे के पास बैठते और पिताजी के मित्र होने के कारण पूरे परिवार का इलाज मुफ्त करते। प्रायः मरीज उनकी मुफ्त की मीठी-मीठी गोलियाँ खाकर ही ठीक हो जाता।

(2)दूसरे स्तर की बीमारी– थोड़ी गंभीर बीमारी। जैसे चार दिन मीठी गोली खाकर भी बुखार नहीं उतरा तो 10 पैसे का पुर्जा बनवाकर मच्छोद्दरी अस्पताल या डा0 शालिग्राम बल्लभराम मेहता अस्पताल, रामघाट जाना पड़ता। इन अस्पतालों में, शीशी में कड़वी दवाई का घोल मिलता जिसे मिक्चर कहते हैं। यह मिक्चर इतना कड़ुवा होता कि घर के कई सदस्यों की  छोटी मोटी बीमारियाँ तो पिताजी के सिर्फ इतना कहने पर ही ठीक हो जाती थीं कि जाओ मच्छोदरी से या रामघाट से दवाई ले आओ !

(3) तीसरा और अंतिम स्तर - यह वह स्तर होता जहाँ 6-7 दिन तक डा0 भूमिराज शर्मा का मुफ्त इलाज, 14-15 दिन तक सरकारी अस्पतालों के कड़ुवे मिक्चर के प्रयोग के बाद बीमार, मरणासन्न अवस्था में भूखे-प्यासे रहकर पहुँच जाता। ये वो डा0 थे जो मरीजों का अन्न एकदम से बंद करा देते ! जैसे किसी को बुखार है तो कड़ुए मिक्चर पीते रहो, टेबलेट्स खाते रहो और जीने के लिए दूध, बार्ली, चाय, बिस्कुट पीते रहो। क्या मजाल कि बुखार उतरने से पहले किसी को कुछ मिल जाय ! यहाँ इलाज करा-करा कर जब मरीज एकदम से लस्त-पस्त हो जाता, 14-15 दिन बीत जाता, तो माँ के झगड़ा करने पर पिताजी गुस्से से हारते हुए, दस रू0 का नोट फेंककर यह आदेश देते कि जाओ दिखाओ डा0 नंदलाल अग्रवाल को ! ये सब मेरा खून पीने के लिये पैदा हुए हैं !! इतने दिनों तक बीमार रहने से अच्छा, मर क्यों नहीं जाते !!! ठीक से दवा नहीं खाते होंगे वरना सबके घरों के बच्चे सरकारी दवाई से ठीक हो सकते हैं तो मेरे ही घर के बच्चे क्यों नहीं ठीक हो सकते?ये समझते हैं कि इनके बाप के पास कोई खजाना गड़ा है !

आनंद के पिता  का गुस्सा जायज था। ईमानदार निम्न मध्यमवर्गीय परिवार आज भी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा, अच्छे इलाज का खर्च नहीं वहन कर सकता। ईमानदार रहना घुट-घुट कर अपने बच्चों को अनवरत यातना देते रहना है। उसे सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों के भरोसे ही अपने परिवार को हांकना पड़ता है। दुर्भाग्य से या नासमझी से संतान अधिक हैं तो गये काम से। 8-10 में एकाध की अकाल मृत्यु तो सुनिश्चित है।

सचमुच डा0 नंदलाल अग्रवाल के पास जाते ही 2-3 दिन में सब एकदम ठीक हो जाता। आधा रोग तो उनके पास जाते ही ठीक हो जाता जब वे मुस्कुरा कर कहते..जाओ सब खाओ ! मरीज को सहसा यकीन नहीं होता। खुशी भीतर दबा कर फिर पूछता..सब डाक्टर साहब? डा0 अग्रवाल नाक ऊँची कर गर्व से कहते..हाँ, हाँ..सब । ऐसे जैसे सम्राट अकबर गरीबों को खजाना बांट रहे हों ! सब ले जाओ..! सब...मस्त रहो । प्रायः जाते वक्त मरीज डा0 की दुकान तक गोदी में या साइकिल में बिठाकर ले जाया जाता मगर लौटते वक्त अपने पैरों से चलकर आता। जिसे देखकर पिताजी फिर चीखते...मेरा पैसा खर्च करवा दिये ? मिल गई ठंडक जाते ही ठीक हो गये देखो कैसे दौड़े चले आ रहे हैं ! माँ पिताजी को समझातीं। बच्चे बस टुकुर-टुकर पिताजी को कातर निगाहों से देखते रह जाते।

उस दिन शाम को जब पिताजी दफ्तर से घर आये तो सारा हाल जानकर आग बबूला हो गये। खूब गरियाने के बाद बोले चलो एक बात अच्छी हुई कि अब इसका गली-गली आवारा लड़कों के साथ घूमना तो कुछ दिनो के लिए बंद रहेगा। दूसरा पैर भी गाड़ी के नीचे डाल आना था ! उसे क्यों नहीं डाला जरूर आवारगी में पैर तुड़वाया है नालायक ने !! वरना बैलगाड़ी वाले इतना हो-हल्ला करते हुए चलते हैं, आज तक कोई आया क्या उसके नीचे ? सबसे अच्छा तो यह होता कि अपनी गर्दन डाल आते बार-बार डाक्टर के पास जाने से छुट्टी तो मिल जाती  सुनो.s.s.कान खोलकर सुन लो.s.s.. !! प्लास्टर बंधवाने मच्छोद्दरी अस्पताल ले जाना ! पैसा पेड़ पर नहीं उगता !! सरकार नंदलाल अग्रवाल के फीस का पैसा नहीं देती !!! आनंद डर कर चुप रहता मगर सोचता कि आखिर पिताजी कभी दुःखी भी होते हैं ? यह उम्र थी जहाँ बच्चों को नहीं पता होता कि पिता अपने बच्चों पर क्रोध तभी करते हैं जब दुःखी होते हैं। क्रोध करना भी दुखों की अभिव्यक्ति का एक तरीका है।
( जारी... )