27 September, 2010

यादें-12 (वक्त का चमत्कार )

यादें-1, यादें-2, यादें-3यादें-4,यादें-5, यादें-6,यादें-7,यादें-8यादें-9,यादें-10,यादें-11से जारी..... 
            जीवन में घटित होने वाली घटनाएँ अपनी यादें छोड़ जाती हैं। कुछ धुंधली तो कुछ गहरी। कभी कोई घटना इतनी महत्वपूर्ण होती है कि आदमी सोचता है कि यह तो मेरे जीवन की सबसे बड़ी घटना है ! इससे बड़ा दुर्दिन तो जीवन में दूसरा आ ही नहीं सकता ! कभी किसी दिन, ऐसी घटना भी घट जाती है कि आदमी खुशी से झूमने लगता है । जीवन मे घटित होने वाले शाश्वत सच पर आधारित इन विशिष्ट पलों  को, जख्मों को या खुशियों को, असफलता को या सफलता को, उस वक्त बहुत बड़ा मानकर आदमी दुःखी या हर्षित होता है। समय करवट बदलता है। धीरे-धीरे उसके ज़ख्मों को भर देता है या उसकी खुशियों को नए जख्म दे फिर से दुःख के महासागर में डुबो देता है और देखते ही देखते वह घटना उतनी महत्वपूर्ण नहीं रह जाती जितनी उस समय थी जब वह घटित हुई थी। शेष रह जाती हैं तो सिर्फ यादें । खुशियों भरी यादें, दुःख भरी यादें। यदि  देखा जाय तो इंसान, समय बीतने के पश्चात, दुःख भरी यादों को ही अधिक महत्व देता है। जीवन में मिले ज़ख्मों को याद कर रोमांचित भी होता है और हर्षित भी। हर्षित यूँ कि कैसे उन विषम परिस्थिति में कितने धैर्य और साहस के साथ उसने कष्टों का सामना किया ! किस दिलेरी व शौर्य से उनका मुकाबला किया ! वह उन पलों को याद कर अपने पौरूष पर गौरवान्वित होता है। कहने का मतलब यह कि  महत्व इस बात का नहीं है कि जीवन में संकट आते हैं या खुशियाँ। महत्व इस बात का है कि उन घटनाओं का मुकाबला किस प्रकार किया जाता है ! वर्तमान जब अतीत बन जाता है तो यक्ष की तरह प्रश्न करने लगता है ! प्रत्येक व्यक्ति को भविष्य में होने वाले उन संभावित प्रश्नों के लिए तैयार रहना चाहिए। स्वयम् ब्रह्मा भी धिक्कारे तो आदमी पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता किंतु जब आत्मा कहती है कि तुम गलत थे तो कष्ट होता है। आत्मा धिक्कारती है ! बुरी तरह धिक्कारती है ! तुमने उस वक्त अमानवीय व्यवहार किया जब तुम्हें उदारता दिखाने की सबसे अधिक जरूरत थी ! तुमने अमुक घटना के समय हिम्मत से काम नहीं लिया और नपुंसकों की तरह घर में बैठे रहे जब कि तुम्हें चाहिए था कि आगे बढ़कर मुसीबतों के मारों की मदद करते ! तुमने थोड़े से लोभ में पड़कर अपने मित्र के साथ विश्वासघात किया ! तुमने अपने  निजी स्वार्थ में देश के साथ...! तुमने अपनी कामुकता में जीवन साथी के साथ....! अंतरात्मा जब धिक्कारती है तो दुःख होता है । अपनी गलतियों, अपनी नपुंसकता और अपने पापों का एहसास आदमी को सुख से जीने नहीं देता । यह वक्त का चमत्कार ही है कि जैसे यह दुःख को सुख में और सुख को दुःख में परिवर्तित कर देता है वैसे ही आदमी के द्वारा किए गए कर्मों का हिसाब भी लेता है। जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना का अपना महत्व होता है। इन्हीं घटनाओं को जीने के अंदाज पर आदमी का पूरा जीवन निर्भर करता है और इंसान पूर्णता को या अंधकार को प्राप्त करता है। स्वर्ग भी यहीं हैं, नर्क भी यहीं। यह स्वयम् व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि वह पूर्णता को प्राप्त कर खुद भी देदीप्यमान हो और दूसरों को भी अपनी आभा से प्रकाशित करे या अंधकार को गले लगाकर जीवन भर अपने भाग्य को कोसता, दूसरों पर बोझ बन जीवन यापन करता रहे।
( जारी.....) 

24 September, 2010

यादें-11( भय और अंध विश्वास )

यादें-1, यादें-2, यादें-3यादें-4यादें-5, यादें-6यादें-7यादें-8यादें-9, यादें-10 से जारी.....
                        ऐसा अक्सर देखा जाता है कि माता-पिता अपनी समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए अपने बच्चों को नाना प्रकार के भय दिखाते हैं। स्कूल से सीधे घर आ जाना नहीं तो लकड़ सुंघवा उठा ले जाएगा ! दूध पी लो नहीं तो बंदर काट लेगा ! झूठ बोले कौआ काटेके तर्ज पर नाना प्रकार के झूठ की पट्टी मासूम बच्चों के मन मस्तिष्क में इस तरह चढ़ा दी जाती है कि बड़े होने तक उसके प्रभाव से आदमी डरता रहता है। श्रीकांत को भी उसके माता-पिता हमेशा पुलिस का भय दिखाते रहते थे। गली में चींया खेलोगे तो पुलिस पकड़ कर ले जाएगी ! देर शाम तक छत पर पतंग उड़ाओगे तो पुलिस को दे देंगे। संध्या नहीं करोगे तो पुलिस समझ जाएगी कि यह ब्राह्मण का बच्चा नहीं है और जेल में बंद कर देगी ! बचपन से श्रीकांत को पुलिस का भय दिखाने का परिणाम यह हुआ कि बड़ी कक्षाओं में पढ़ने तक वह पुलिस को देखते ही मारे डर के भाग जाया करता था ! साथियों के साथ गली में खेलते-खेलते अचानक से कहता, घर जा रहा हूँ ! लाख पूछो, कुछ न बताता। वो तो बहुत दिनों के बाद आनंद को आशा ताई से पता चला कि वह पुलिस से डरता है ! जानकारी होने के बाद आनंद, श्रीकांत को खूब समझाने का प्रयास करता लेकिन आनंद के समझाने का उस पर उल्टा ही असर होता। वह समझता कि आनंद उसे चिढ़ा रहा है ! आनंद, उसके दिल में एक अजीब सी कश-म-कश, एक अजीब सा दर्द महसूस करता। आनंद ने श्रीकांत को हताश-निराश हो, घर के अंदर दुबक कर बैठते और दूसरे साथियों के साथ, अपनी गली से दूर खेल के मैदान तक जाने में भी इन्कार करते पाया था !
            बच्चों को झूठे भय दिखाने के अलावा धार्मिक मान्यता प्राप्त कुछ अंध विश्वास भी मानसिक तरक्की की राह में रोड़ा बनते हैं। ऐसे अंध विश्वास जिनसे हम बड़े होने तक उबर नहीं पाते और बुद्धिमत्तापूर्ण तरीकों से उनकी सत्यता का दावा पेश करते हुए नाना तर्क देते रहते हैं। जैसे, बिल्ली रास्ता काट दे तो आगे दुर्घटना होने का खतरा है !” फिर इसके उपाय भी बताए जाते हैं...थोड़ी देर के लिए रूक जाओ ! या उल्टा चलो ! रुको ! फिर घर से निकलो !” या फिर, घर से निकलते वक्त कोई दाहिने छींक दे भयंकर अशुभ होता है ! ”या, शुभ कार्य में किसी विधवा का सामने आना अमंगलकारी होता है ! पहले तो नन्हीं बालिका को बूढ़े का साथ विवाह दो फिर जब वह जवानी में कदम रखते ही विधवा हो जाय तो उसे अशुभ मान कर जीवन भर मानसिक यातना दो ! ये दो तीन  उदाहरण तो एक झलक मात्र हैं और न जाने कितने अंध विश्वासों को हमने अपने यकीन में शुमार कर अपना और अपने बच्चों का जीवन कंटकों से भर दिया है ! ज्ञान-विज्ञान की कसौटी पर ये अंध विश्वास कभी खरे नहीं उतरते । कितनी बेवकूफी पूर्ण और क्रूरता से भरे अंध विश्वास हैं ये ! लेकिन हम हैं कि इन्हें सदियों से ढोए जा रहे हैं ! सामान्य जन तो क्या विद्वान साहित्यकारों तक ने भी इसे अपने साहित्य में स्थान देकर मान्यता प्रदान की ! कौन सा भय है यह जिसके कारण हम इन अंध विश्वासों से उबर नहीं पाते ? यह वही भय  है जो अनजाने में श्रीकांत के भोले-भाले, सीधे-सरल, धार्मिक माता-पिता ने श्रीकांत की घुट्टी में दूध में शक्कर की तरह अपने उपदेश में मिलाकर पिला दिया ! सदियों से, पीढ़ी दर पीढ़ी इन अंधविश्वासों को सीने से लगाए हम आज भी जिए जा रहे हैं और अपने बच्चों को सिखाए जा रहे हैं ! कब तक ? कब श्रीकांत का बचपन खुली हवा में सांस ले सकेगा ? एक्किसवीं सदी के बाद क्या बाइसवीं सदी का इंतजार है ? एक दूसरा सत्य यह भी है कि एक ओर तो हम अपने पुर्वजों के अंध विश्वास पीढ़ी दर पीढ़ी ढोए जा रहे हैं मगर दूसरी ओर सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि उनकी नैतिकता, उनकी ईमानदारी, उनके आदर्श, पुराने वस्त्रों की तरह उतारते चले जा रहे हैं !
(जारी....)                          

21 September, 2010

यादें-10( लूडो )

           गर्मी की छुट्टियों में श्रीकांत के घर लूडो की बाजी भी खूब जमती । ठंडा शरबत पी चुकने के पश्चात कभी श्रीकांत के पिता का मूड जम जाता तो वो भी बच्चों के साथ खेल में शामिल हो जाते। श्रीकांत, आशा ताई, आनंद के साथ फागू महराज का जुड़ना वैसे ही था जैसे क्रिकेट में तेंदुलकर का उतरना या सिनेमा में हीरो का पदार्पण। चौकड़ी पूरी होते ही खेल काफी रोचक हो जाता। श्रीकांत की माँ जिन्हें दोनो आँखों से बहुत कम दिखाई देता था, भी पास बैठकर, काय झालs रे ! काय झालs रे !” पूछती रहतीं। फागू महराज इतनी तनमयता से खेल में जुट जाते कि उन्हें श्रीकांत की माँ का बीच-बीच में पूछकर व्यवधान डालना नागवार गुजरता। उनकी लाल हो रही गोटी पिट गई हो, तीनों बच्चे मारे खुशी के चीख रहे हों और ठीक उसी समय श्रीकांत की माँ का अपने पति देव से, अपनी अंधी आँखों की पलकों को चिमचिमाते हुए पूछना, काय झालs रे….! काय झालs रे….!” फागू महराज को इतना नागवार गुजरता कि वे झल्ला कर, अपने दाएँ हाथ का अंगूठा दिखाते हुए कहते, बोम झालs ! ओर्डुन राएली आहे मुर्खा ! जाए पानी घेऊन ये !”(खाक हुआ ! चीख रही है मूर्ख, जा पानी लेकर आ !) आनंद बोम झालs’ का अर्थ नहीं समझता था लेकिन श्रीकांत के पिता के हाव-भाव के देखकर मस्त हो जाता और खुशी से ताली बजाते हुए चीखने लगता, हे s s s s……!” श्रीकांत के पिता और खीझते, चुप कर ! मी जिंकुण राहेलाए, आप्ली चाल चल, तुझा पाशा शुन्य सांगेल।(अपनी चाल चलो, मैं जीत रहा हूँ, तुम्हारे पाशे में शून्य आएगा) खेल फिर दो मिनट के लिए गंभीरता से चलता और अगले ही पल कोई नई मजेदार घटना हो जाती।
                       श्रीकांत की माँ त्याग, ममता, सेवा की साक्षात देवी होने के साथ-साथ इतनी सीधी, सरल थीं कि उनकी याद आते ही मन श्रद्धा से झुक जाता है। आनंद को खूब प्यार करती थीं। ऐसा शायद ही कोई दिन हुआ हो कि आनंद घर में आया हो और आई ने उसे खाने के लिए कुछ न दिया हो। आनंद को भी पता होता कि रसोई घर में पीतल का कौन सा वह बड़ा सा पात्र है जो बेसन से बने देसी घी के लड्डू से भरा पड़ा है ! लेकिन आनंद को कभी मांगने या चुराकर खाने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती थी। आई उसे कीचन के द्वार के आसपास ही देखकर एक छोटी सी कटोरी में दो लड्डू निकाल कर दे देतीं। कभी-कभी तो श्रीकांत भी आनंद के प्रति आई का दुलार देख जल-भुन जाता ! आनंद, श्रीकांत से कई बार पूछता कि जब उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता तो वे अपना सब काम कैसे कर पाती हैं ? श्रीकांत बस इतना ही कहता,  मेरी माँ सब कर सकती हैं।आशा ताई समझातीं, हल्का-फुल्का दिखता है, बिलकुल न के बराबर। अधिक जानना हो तो अष्टमी के दिन पूछ लेना ! सब बता देंगी।“ 
            दरअसल सभी का मानना था कि नवरात्रि में अष्टमी के दिन आई पर देवी सवार हो जाती हैं ! उस दिन उन्हें और मंदिर को सुंदर ढंग से सजाया जाता । दिन ढलते ही आस पास के मोहल्लों की बहुत सी औरतें मंदिर में जमा हो जातीं । श्रीकांत की माँ को भी सुंदर वस्त्रों और आभूषणों से खूब सजाकर मंदिर में लाया जाता। उस दिन आई इतनी सुंदर दिखतीं कि आनंद को भी लगता कि ये तो साक्षात देवी है ! एक पीतल का घड़ा अपने दोनो हाथों से पकड़े, घड़े के मुँह में बार-बार फूँक मारते, आई का मंदिर में इधर से उधर पूरी रात घूमते रहना आनंद के लिए अचरज और भय का विषय होता। बीच बीच मे वे भक्तों के प्रश्नों का जवाब भी देती रहतीं। आशा ताई का यह कहना कि अष्टमी के दिन पूछ लेना ही आनंद को चुप कराने के लिए काफी था। आनंद के लिए भगवान, प्रेम व श्रद्धा की मूर्ति नहीं, एक ऐसी शक्ति थे जिनसे सभी को डर कर रहना चाहिए ! जो गलती करते ही भयंकर सजा दे सकते हैं ! अपराध बोध और भय के बीज बच्चों के ह्रदय में छींटने वाले माता पिता को इस बात का एहसास ही नहीं हो पाता कि बड़े होने पर ये बीज न केवल अंकुरित होने की संभावना रखते हैं बल्कि एक विष-वृक्ष का रूप भी ले सकते हैं ! बच्चों के जीवन पर इसका कितना गहरा प्रभाव पड़ सकता है इसकी कल्पना भी माता-पिता को उस समय नहीं होती जब वे उन्हें अकारण ही डरा रहे होते हैं।

(जारी....) 

19 September, 2010

यादें-9 ( बंदरों का आतंक )

यादें-1, यादें-2, यादें-3यादें-4यादें-5, यादें-6यादें-7, यादें-8 से जारी..... 
       पक्के महाल में (वरूणा और अस्सी नदी के बीच, गंगा के घाटों पर फैला विस्तृत  क्षेत्र पक्का महाल कहलाता है) गलियों में देसी कुत्तों का व घरों की छतों पर बंदरों का आतंक हमेशा से रहा है। ऐसा अक्सर होता था कि सुबह आनंद की नींद अपने छत की मुंडेर से गुजरते बंदरों के काफिले को देखकर टूटती। कभी तो घर के दूसरे सदस्य भी साथ होते, कभी वह अकेला ही होता। जब वह अकेला होता तो बदंरों के लम्बे काफिले को देख कर डर के मारे घिघ्घी बंध जाती। चुपचाप आँखें बंद कर लेटे रहने और खुद को गहरी नींद में सोता हुआ दिखाने के अलावा दूसरा कोई चारा न होता। बंदर भी यहीं के माहौल की उपज थे। बिलावजह किसी को नहीं काटते थे मगर क्या मजाल कि आप उनके सामने बैठकर भोजन कर लें ! क्या मजाल कि आप कोई कपड़ा छत पर डाल दें और वह सही सलामत रहे ! कहीं भी, कुछ भी घट सकता था। बिजली के तारों को पकड़ कर जोर-जोर हिला दें तो बिजली कट सकती थी। यदि किसी ने घर की छत पर एक कमरा बनवाया है और उस पर टीन की छत लगा रखी है तो फिर क्या पूछना ! ये उस पर बाल बच्चों समेत ऐसे कूद-फांद मचाते की आसपास के इलाके के बच्चे अपने-अपने घरों की छतों पर खड़ो हो चीखना शुरू कर देते, ले बंदरवा लोय लोय !” वे तब तक मनोरंजन के केंद्र बिंदु बने रहते जब तक कि घर का मालिक एक मोटा डंडा लिए छत पर नहीं चढ़ जाता ! फिर देर तक उसकी बदंरो से नूरा कुश्ती देखते ही बनती थी । कभी वह बंदरों को भगाता, कभी बदंर चारों तरफ से चिचियाकर उसे ही भगा देते ! भागते वक्त, दूसरे घरों की छतों पर खड़े लोगों को देखकर शर्म के मारे  झेंप जाने या खिसियाने के दृष्य का मजा वही ले सकता है जिसे ऐसे दृष्य देखने का सौभाग्य मिला हो। वह फिर हिम्मत जुटा कर आता, अबकी बार उसके घर का कोई और सदस्य भी साथ होता, दोनो मिलकर डंडा पटकते तो बंदर भी यूँ खिसक जाते मानों कह रहे हों जा बेटा आज छोड़े दे रहे हैं, कल फिर मिलेंगे !” एक बार तो बंदरों ने हद ही पार कर दी। एक घर के छत की मुंडेर ही हिला-हिला कर तोड़ दी ! न केवल तोड़ दिया बल्कि एक बड़ी सी ईंट भी चार मंजिल ऊँची छत से निचे गिरा दिया ! यह दुर्भाग्य ही था कि एक विधवा बुढ़िया जो काशी वास करने के लिए बनारस में रह रही थी, ठीक उसी समय नीचे गली से गुज़र रही थी । काल का रूप देखिए कि ईंट ठीक बुढ़िया के सर के बिचों बीच तालू स्थल पर जा गिरा ! दूसरे ही पल बुढ़िया का राम नाम सत्य  हो गया ! कोई चीखा..रे..रे..रे..रे.. देखा रे..बुढ़िया मर गयल रे ! अरे ऊठाव रे जल्दी ! तब तक कोई बोला, का उठैबा सरदार ! बुढ़िया के बाबा अपने यहाँ बुला लेहलन ! चला मुक्ति मिलल ! बुढ़िया जाने कहाँ से काशी में मुक्ति बदे आयल रहल !” काशी लोगों की धार्मिक आस्थाएँ उन्हें गज़ब की शक्ति प्रदान करती हैं । वे बड़ी से बड़ी घटना को भी सहजता से सह लेते हैं। बड़े से बड़े वैरी को भी माफ कर देते हैं। बुढ़िया का मरना भी उन्होंने इतनी सहजता से लिया कि पाश्चात्य संस्कृति के पोषकों के लिए यह कौतूहल का विषय हो सकता है ! काशी के बदंर, लोगों को मुक्ति दिलाने का काम भी करते हैं ।

           एक दिन आनंद रोटी लेकर छत पर आ गया और वहीं बैठकर खाने लगा। उसका ध्यान खाने पर कम और घर के ठीक सामने आ कर बस रहे नए पड़ोसी और उनके समानो के रखने की गतिविधियों पर अधिक था। जब से सामने वाला घर बिका था वह सूने घर को देख-देख कर अक्सर उदास हो जाया करता था। उसने जैसे ही सुना कि सामने नए पड़ोसी आ गए तो खाते-खाते ऊपर चला आया और बड़ी तल्लीनता से एक-एक गतिविधि का सूक्ष्म परीक्षण करने लगा। तभी अचानक कहीं से एक मोटा बंदर आया और उसके गाल पर एक झन्नाटे दार थप्पड़ जड़ दिया ! न केवल थप्पड़ जड़ दिया बल्कि रोटी छीन कर भाग गया। आनंद डर के मारे रोने लगा। उसके रोने की आवाज सुनकर उसकी माँ तो आईं ही लेकिन माँ के साथ उसके नए पड़ोसी का बालक मुन्ना भी, जो उससे उम्र में दो साल बड़ा था दौड़ता हुआ आ गया। बहुत बुरा हुआ ! बदंर ने मारा बुरा हुआ लेकिन पड़ोसी से रोते हुए पहली मुलाकात ! बहुत बुरा हुआ ! माँ को देखकर आनंद की चीखें जो अकस्मात बढ़नी शुरू हुईं थीं, पड़ोसी बालक को देख कर अचानक से रूक गईं ! जैसे सड़क साफ देखकर कोई अपनी गाड़ी का एक्सलेटर बढ़ाए और अचानक से सामने भैंस आ जाय ! आनंद भी हाथ-पैर झाड़कर एकदम से खड़ा हो गया और नए पड़ोसी को गुस्से से देखने लगा समझदारी से बोला, कुछ नहीं, वो बंदर रोटी छीन कर भाग गया।माँ ने पूछा, कहीं काटा तो नहीं ?” अब बिचारा नए पड़ोसी के सामने कैसे कहे कि बंदर ने उसे एक झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया है ! आनंद कुछ न बोला, बस गाल पर हाथ फेर कर रह गया। माँ के लिए इतना काफी था। वह समझ गईं कि मामला नए पड़ोसी के सामने इज्जत बचाने का है वरना बिनाबात के आसमान सर पर उठाने वाला बच्चा आज बंदर से थप्पड़ खा कर भी कैसे चुप है ! चलो, नीचे चलो, वह आनंद को लेकर चुपचाप नीचे चली गईँ। 
(जारी...)

14 September, 2010

यादें-8 ( बनारस की गलियों में गर्मियों की छुट्टियाँ )

                उन दिनों बच्चों के लिए परीक्षा समाप्त होने के पश्चात गर्मियों की छुट्टियाँ उतनी ही उत्साह वर्धक होती थीं जितनी की युवाओं के लिए पतझड़ के बाद बसंत का आगमन। यह वह दौर था जब गर्मी की छुट्टियाँ आज की तरह भारी बस्तों के तले रौंदी नहीं जाती थीं। परीक्षा समाप्त होने और स्कूल खुलने के दिनों के बीच, बच्चे अपना सम्पूर्ण जीवन जी लेना चाहते थे। मध्यम वर्गीय परिवारों में, बड़ों को इतनी फुर्सत नहीं होती थी कि वे बच्चों की छोटी-मोटी गलतियों पर नज़र रख सकें और बच्चों को सिर्फ इस बात का ध्यान रखना होता था कि अंधेरा होने से पहले घर वापस जाना है।
       बनारस की गलियों में गर्मियों की छुट्टियों का एक अलग ही आनंद था। सुबह-सबेरे गंगा घाट पर मेले जैसा दृश्य होता था। कहीं मंदिर की घंट्टियों की धुन तो कहीं मंत्रोच्चार की गूँज, कहीं ऊँची मढ़ी से गंगा में हेडर साधते किशोर तो कहीं किनारे छपाक-छपाक हाथ-पैर पटकते, तैरना सीख रहे छोटे-छोटे बच्चे। यह संभव ही नहीं था कि बनारस की गलियों में रहने वाला कोई बालक गंगा जी न जाता हो या उसे तैरना न आता हो। तैरना सीखना-सीखाना यहाँ के लोगों की आवश्यक आवश्यकता में शामिल था। जब वे जान जाते थे कि उनका बालक तैरना सीख चुका है तभी वे उसकी तरफ से निश्चिंत हो पाते थे। आनंद को भी उसके पिता ने एक पंडे के हवाले कर दिया था । जब वे जान गए कि अब यह तैरने की कला में पारंगत हो चुका है तो वे भी उसकी तरफ से निश्चिंत हो गए। सुबह-सबेरे घंटों गंगा जी नहाना, खाना खा कर दिन भर गलियों में खेलना और शाम ढले घर वापस आना उसकी दिनचर्या बन चुकी थी।

      गलियों में, गर्मियों की दोपहरी भी लाज़वाब होती थी। प्रायः घर-घर में मंदिर होने का एक सुख यह भी था कि जब कभी दोपहर में घर वापस आए, मंदिर धोया-धाया इतना तर मिलता था कि एक टेबुल फैन ही ए0सी0 का मजा देता था। पतली सी दरी बिछाकर लेटते ही गहरी नींद आ जाती थी। गलियों में खेले जा सकने वाले खेलों के अलावा लूडो, कैरम, ताश, शतरंज आदि घरों में खेले जा सकने वाले सभी खेल उम्र के अनुसार, इस घर में नहीं तो उस घर में, हमेशा उपलब्ध  रहते थे। वह दौर सम्पूर्ण आजादी का दौर था। न तो पढ़ाई का इतना बोझ, न प्रतियोगिता की मारामारी और न ही उपभोक्ता वादी संस्कृति। धार्मिक आस्थाओं, संस्कारों से लोग इतने बंधे होते थे कि अपवादों को छोड़कर, पढ़े-लिखे निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में गलत काम करना भी पाप समझा जाता था । माता-पिता, बड़े भाइयों, समाज और भगवान का इतना भय व्याप्त होता था कि इतनी स्वतंत्रता के बाद भी बच्चों के बिगड़ने की एक सीमा होती थी । बच्चों के फेल हो जाने या प्रथम आने पर ही माता-पिता का ध्यान उनकी पढ़ाई पर जा पाता था । बच्चे जब तक पास हो रहे हैं तब तक चिंता की कोई बात नहीं होती थी ।
       गर्मियों में, शाम का ढलना भी एक अलग रंग लेकर आता था । शाम ढलते ही क्या युवा, क्या बच्चे, सभी अपने-अपने छतों पर दिखाई पड़ते थे। नीचे से पानी ढो-ढो कर लाना, छतों को अच्छे से तर कर देना और अपने-अपने बिस्तर, निर्धारित स्थान पर लगा देना सबकी शाम-चर्या में शुमार था। अक्सर भाइयों के बीच अपने निर्धारित हवा वाले स्थान पर सोने के लिए झगड़े हो जाया करते जिनका निपटारा, बड़े या दबंग भाइयों द्वारा ही किया जाता। गलियों में घर आपस में इतने सटे होते कि एक घर से दूसरे घर की छत पर जाना बिलकुल आसान होता। परिणाम यह होता कि जब तक पिता जी या घर का कोई बुजुर्ग डांटते हुए नहीं आ जाता, बच्चे देर शाम तक, छतों में भी धमाल मचा रहे होते। पल-पल में नज़ारे बदलते रहते । कहीं बच्चों की चौकड़ी अपने शबाब पर होती तो कहीं कोई युवा, दूर किसी घर की छत पर खड़ी षोढ़सी को लाइन मार रहा होता। टुकुर-टुकुर निगाहों से एक टक यूँ ताकता मानों कोई चकोर चाँद को ताक रहा हो। कहीं ट्रांजिस्टर में मुकेश के गानों की धुन तो कहीं टेबुल लैम्प की रोशनी में पढ़ने की आड़ में माता-पिता की आँखों में धूल झोंकता, जासूसी उपन्यास में मशगूल युवा। माउथआर्गन, बांसुरी, बैंजो या गिटार की धुन में अपनी काबलियत दिखाते युवा भी दिख जाते। कहने का तात्पर्य यह कि शाम के समय, संकरी गलियों की छतों पर, सभी योग्यताएँ, चंद्रकलाओं की तरह समयानुकूल घटती-बढ़ती रहती थीं। भोजनोपरांत माता-पिता का छत पर आगमन, अनुशासन की एक अलग ही मिसाल पेश करता था। सभी दुष्ट अचानक से इतने शरीफ़ हो जाते थे कि नील गगन के तारे भी हंसकर टिमटिमाने लगते । सप्तर्षी तारे, ध्रुव तारे, हितोपदेश की कहानियाँ, विज्ञान के चमत्कार या पढ़ाई की चर्चा शुरू होते-होते बच्चे गहरी नींद में सो चुके होते थे।       
(जारी...)

12 September, 2010

यादें-7(लीलो लीलो पहाड़िया)

यादें-1, यादें-2, यादें-3यादें-4यादें-5, यादें-6  से जारी...
चीयाँ पिल्लो की तरह लीलो लीलो पहाड़िया भी एक अलग तरह का खेल हुआ करता। इसका यह नाम क्यों पड़ा यह तो कोई नहीं जानता लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी यह खेल जाने कब से बच्चों में प्रचलित था। आधुनिक जमाने के नए-नए खेलों और बस्तों के बोझ तले कब इन खेलों ने दम तोड़ दिया, कब ये गुम हो गए पता ही नहीं चला। बड़ों के लिए जितना बेवकूफी से भरा हुआ, बच्चों के लिए उतना ही रोचक था यह खेल। बच्चे खड़िया या चॉक जुटाते और शुरू हो जाते । इस खेल में चाहे जितने बच्चे हों, एक साथ खेल सकते थे। सभी के क्षेत्र निर्धारित कर दिए जाते और सभी एक दूसरे से नज़र बचा कर अपने-अपने क्षेत्र में खड़िया से छोटी-छोटी लाइनें खींचते। समय समाप्त होने के पश्चात एक दूसरे की लाइनों को ढूंढ-ढूंढ कर मिटाते और जोर-जोर से चीखते..लीलो लीलो पहाड़िया। जिस बच्चे की जितनी लाइनें शेष रह जातीं उसे उतने अंक मिलते। जिसके सबसे अधिक अंक होते वह सर्व विजेता घोषित हो जाता। जितना समय उतना बड़ा क्षेत्र । लाइन खींचने के चक्कर में ये किस-किस कोने-अंतड़े में पहुंच जाते कहना मुश्किल है। बाहर खेलें तो फिर भी ठीक लेकिन यदि यह खेल घर में चल रहा हो, तीन बच्चों ने घर की तीन मंजिलें बांट लीं हों तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि घर के दरवाजे, खिड़कियों के पल्ले, टेबल के कोने या फिर आलमारियों का क्या हाल होता होगा ! एक स्थान ही इन सब से सुरक्षित होता भगवान जी का मंदिर। मंदिर में जाने की सख्त मनाही थी या भगवान का भय कि ये वहाँ नहीं जा पाते थे वरना भगवान भी याद करते की लीलो लीलो पहाड़िया क्या होता है !


बनारस मंदिरों का शहर है। बनारस की गलियाँ, गलियों में बने प्राचीन घर और लगभग हर घर में मंदिर ! आनंद के घर की तरह श्रीकांत के घर पर भी मंदिर था। यूँ तो अनेक देवी देवताओं की प्रतिमाएं थीं किंतु मुख्य रूप से यह राम मंदिर ही कहलाता था। यहाँ की प्रतिमाएं सफेद संगमरमर के पत्थरों से निर्मित थीं। मंदिर, कुआँ और गौ माता इस घर का विशेष आकर्षण था। आनंद के घर में मंदिर तो था लेकिन कुआँ या गौ माता नहीं थीं । दोनों में प्रायः इस बात के लिए झगड़ा हुआ करता कि किसके भगवान अधिक ताकतवर हैं ! श्रीकांत कहता, “तुम्हारे तो काले कलूटे हैं !” आनंद कहता, “तुम्हारे भगवान के शरीर में तो खून ही नहीं है, कैसे सफेद हैं ! मेरे भगवान की आँखें देखी हैं तुमने ? मेरे भगवान सिर्फ आँखें दिखा दें तो तुम्हारे भगवान डरके भाग जांय !” आँखों के मामले में श्रीकांत चुप हो जाता। आनंद के राम की आँखों से उसे भी भय लगता। शाम के समय भगवान को दीपक जलाना, धूप दिखाना और भोग लगाना यूँ तो अभी आनंद से 5 वर्ष बड़े भैया की ही जिम्मेदारी थी लेकिन यदि वे कभी आनंद को हड़काकर घर गंदा करने या गली में जाकर चीयाँ खेलने की बातें पिता जी के आने पर उनसे बता देने की धमकी देते तो उसे मजबूरी में नीचे जाना पड़ता। एक-एक सीढ़ी वह डरते-डरते उतरता। प्रतिमा से काफी दूर दीवार पर लगे जीरो वॉट के प्रकाश में भगवान की बड़ी-बड़ी आँखें इतनी भयावह लगतीं कि आनंद उन्हें देखना भी नहीं चाहता। कभी-कभी तो वह निगाहें नीची किए मंदिर की ओर डरते-डरते जा रहा होता तभी अचानक बिचली चली जाती, रहा सहा प्रकाश भी चला जाता और मुश्किल से जुटाया आनंद का दम भी निकल जाता। वह जोर से चीखता.."अम्माँ SSS..और फुक्कारें मार कर रोने लगता।" माँ आनंद को दौड़ कर ले आतीं मगर आनंद के भैया की जो पिटाई होती कि वे अपनी सारी ब्लैक मेलिंग भूल जाते।
(जारी...)

04 September, 2010

यादें-5

यादें-1, यादें-2, यादें-3, यादें-4 से जारी...


           यादें, अनगिन यादें । मध्यम वर्गीय परिवार की तमाम परेशानियों एवं हालातों के मध्य बड़ा होता जा रहा था आनंद। बनारस की तंग गलियों में बसा उसका घर गंगा नदी के तट पर स्थित था। छत से दिखाई पड़ती थी गंगा नदी और उस पार का विस्तृत क्षेत्र। पूर्व में 2 कि0मी0 की दूरी पर  राजघाट का पुल और दक्षिण में राम नगर का किला। घर क्या था, एक तिकोना अजायब था।  प्राचीन ढंग से बना हुआ। जिसके जमीन-तल पर काले संगमरमर से बनी राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, गणेश, दुर्गा  आदि देवी-देवताओं की मुर्तियाँ प्रतिस्थापित थीं। मंदिर में स्थित लक्ष्मण जी की प्रतिमा टूट चुकी थी। धड़ अलग, सर अलग। धड़-सर  तो मंदिर के ऊपरी टांड़ पर रख कर भुला दी गईं थीं मगर चरण-पादुका शेष थी । चरण-पादुका के  ऊपर लक्ष्मण की फ्रेम से मढ़ी तश्वीर  थी। रामनवमी-जन्माष्टमी या ऐसे ही  विशिष्ट दिनों के अलावा मंदिर में जीरो वॉट का सिर्फ एक बल्ब ही जलता था। नीम अंधेरे में चमकती राम की बड़ी-बड़ी, सफेद-काली आँखें देखकर आनंद को शाम के समय मंदिर में जाने से भी डर लगता था। रोज मंदिर की सफाई, धुलाई एवं पूजा का काम आनंद के बड़े भाइयों का था जो समय के साथ क्रम से, बड़े से छोटे की ओर अग्रसारित होता जा रहा था। आनंद अभी अधिक छोटा था इसलिए उसके जिम्मे अभी यह काम नहीं सौंपा गया था। मंदिर के बगल में एक छोटा सा कमरा था जिसकी लम्बाई-चौड़ाई मुश्किल से  6*6 फुट थी। कमरे का एक दरवाजी गली में खुलता था और दूसरा मंदिर में। दोनो दरवाजे बंद करने पर कमरा अंधकार में डूब जाता था। कमरे में कोई खिड़की न थी। सिर्फ एक छोटा-गोल  खुला रोशनदान था जो  प्रायः मकड़ी के जाले से ढका रहता था। जब सूरज ढलने को होता, पश्चिम के कोने में बने इस रोशन दान से धूप की एक रेखा कमरे में खिंच जाती। यदि कोई साधू  पूर्व के कोने में मृग -चर्म पर बैठकर संध्या करे तो  ऐसा प्रतीत हो मानों सूर्य देवता प्रसन्न हो उसे वरदान दे रहे हैं।   प्रथम- तल में,  नीचे के कमरे से थोड़ा बड़ा रसोई घर, दो कमरे और एक बरामदा था। द्वितीय तल में एक बड़ा कमरा और एक बरामदा था। कमरे के बीचों-बीच दो बड़ी-बड़ी लकड़ी की आलमारियाँ रख कर उसे इस प्रकार दो भागों में विभक्त कर दिया गया था कि वह दो कमरे का काम करता।  इस कमरे के ऊपर एक छत था जहां जाने के लिए लकड़ी की सीढ़ी चढ़नी पड़ती। तीन तरफ से खुले इस तिकोने घर  की एक दिवार गली की ओर इतनी झुकी होती थी कि नए राही इस राह से गुजरने में भय खाते थे। कोई इसे 'गिरहा मकान', कोई इसे गोमुखी घर तो कोई,  सांवले राम-मंदिर वाले घर के नाम से जानता। आसपास के बड़े-बूढ़े़ बताते कि इस घर कि यह दिवार सदियों से यूँ ही झुकी हुई है।


            आनंद के परिवार में,  माँ-पिता जी के अलावा चार बड़े भाई,  दो बड़ी और एक छोटी बहन थी ।  तीन और सदस्य इस घर से पूरी तरह जुड़े थे-सुक्खी काकी, सावित्री और बासू जिनके बिना घर सूना था। काकी,  पिता की मुंह बोली बहन थी, सावित्री एक अनाथ लड़की जिसे पिता ने बचपन से पाला था और बासू उसकी मौसी का लड़का था जिसके जिसके माता-पिता अंग्रेजों के द्वारा बर्मा से भगाए जाते वक्त रास्ते में ही मर-खप गए थे। बासू की पीठ पर उगा था एक बड़ा सा मांस का लोथड़ा जिसे सभी कूबड़ कहते थे।


          यादों को पिरोना एक कठिन काम है। इनके मोती दिलो-दिमाग में इस कदर बिखरे पड़े हैं मानों बगीचे में माली के फूल। यह तो माली की कुशलता पर निर्भर करता है कि वह सुन्दर-सुन्दर फूल चुनकर अच्छा से अच्छा गुलदस्ता बना दे। काश कि आनंद बन सकता एक कुशल माली जो चुन लेता बगिया के सारे सुंदर फूल, अतीत के सन्नाटे से ! मगर यह कहाँ संभव है कि फूल के साथ कांटे ना हों ! अतीत के अंधकार में जुगनू की रोशनी चमक उठती है कभी-कभी और खुलने लगते हैं यादों के कपाट। पगला आनंद,  दौड़ पड़ता है उन्हें पकड़ने के लिए।  कैद कर लेना चाहता है उन्हें अपने एलबम में.. हमेशा के लिए ! काश यह संभव हो पाता ! प्रश्न उठता है कि क्यों परेशान है आनंद  अतीत की यादों में ? क्या करेगा उसे पकड़कर ? हर पल क्या नहीं बन जाएगा  फिर एक अतीत। यादें अतीत की, ख्वाब भविष्य के और इनके बीच झूलता-कंटीले तारों से लिपटा वर्तमान। याद आती हैं स्व0 मीना कुमारी के नज़्म की  ये प्यारी पंक्तियाँ....


       ... "मैने जब किसी लम्हें को छूना चाहा, फिसल कर खुद बन गया वह एक माजी। जमाना है माजी, जमाना है मुस्तकबिल और हाल एक वाहमा है।"....


            भविष्य क्या नहीं बन जाएगा वर्तमान ? और वर्तमान ने कब किसका साथ दिया है ?  ले दे कर बचता है अतीत का सन्नाटा ! सन्नाटे से लिपटा, यादों का सिलसिला। उन यादों का  जिन्हें कभी बचपन तो कभी ज़वानी के नायाब गुलदस्ते मिले सजने के लिए। यादों से बना अतीत और अतीत स्वयम् एक ठुकराया हुआ वर्तमान ही तो है !      
(जारी...)