11 January, 2014

(2) गोला कबूतर गोलू हो गया...! (समापन किश्त)


पिछले किश्त से आगे... यादें-39


धीरे-धीरे गोलू आनंद के घर का स्थाई सदस्य हो गया। कोई उसे किसी नाम से पुकारता कोई किसी नाम से। भैया के कमरे की टांड़ उसका स्थाई निवास हो गया था। वह वहीं बैठा गुटर गूँ-गुटर गूँ की आवाज के साथ अपनी गरदन फुलाता-पिचकाता रहता। जब उसके दाने खत्म हो जाते वह उड़कर भैया की खोपड़ी में बैठ जाता। भैया समझ जाते इसके दाने खतम हो गये हैं। वह खूब मौज-मस्ती भी लेता था। धीरे-धीरे उसने तीन मंजिले घर में पूरी तरह कब्जा जमा लिया था। मनमर्जी जहाँ चाहता वहीं चला जाता। कभी पिताजी के बैठके में जाकर उनके पैर चूमने लगता, कभी माँ की रसोई में घुस जाता। कभी नीचे मंदिर में जाकर रामजी के सर पर बैठ जाता कभी चोंच में कुछ दबाकर वापस अपनी टांड़ पर बैठ जाता। घर के सभी सदस्य उसके आंच में झुलस जाने, पंखे से कट जाने के डर से हाय! हाय! करते मगर न कभी वह आग से झुलसा न कभी पंखे से टकराया। 

एक दिन शाम के समय जब वह छत के ऊपर आकाश में गोल-गोल उड़ रहा था, उसे एक बाज़ ने दौड़ा दिया। वह बाज़ से बचने के लिए दूर आकाश में गोल-गोल भाग रहा था। आनंद के सामने जीवन-मृत्यु का कठिन संघर्ष चल रहा था। वह और उसके भाई साहब किंकर्तव्यविमूढ़ हो संघर्ष देख रहे थे। जैसे-जैसे कबूतर नज़रों से दूर होता जाता वैसे-वैसे आनंद और उसके भाई साहब का दिल बैठता जाता जैसे ही वह दृष्टिगोचर होता, वे खुशी से चीखने लगते। आनंद के देखते ही देखते कबूतर बाज़ के डर से दूर बहुत दूर उड़ता चला गया। बाज़ उसे तब तक दौड़ाता रहा जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गया। उसे नहीं आना था वह नहीं आया। रात भर पूरा घर जागता रहा। पिताजी ने ढांढस बंधाया-घबराओ नहीं आ जायेगा। दूसरे दिन सुबह से उसकी तलाश शुरू हुई। गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले, गंगा के इस पार-उस पार, घाट-घाट, रेत-रेत आनंद और उसके भाई कबूतर को दिनभर तलाशते रहे। उसे नहीं मिलना था, वह नहीं मिला। कुछ दिनों तक पूरा घर उदास रहा। आनंद उसे इसलिए भी नहीं भूल पा रहा था कि उस जाति के सभी कबूतर एक जैसे दिखते हैं और घर के सामने बहुत से गोला कबूतर रहते थे। जिसे देखो वही अपना लगता। उसके सामने कुछ देर बैठकर हवा में उड़ जाने वाला हर कबूतर उसे मुँह चिढ़ाता-सा लगता। हर दर्द की इंतिहां होती है। हर ज़ख्म वक्त के साथ भर जाते हैं। धीरे-धीरे पूरे घर ने उसके आने की आशा छोड़ दी। 

जाड़े का महीना। छुट्टी का दिन। घर के सभी सदस्य छत पर धूप ले रहे थे। आनंद के कुछ भाई पतंग उड़ाने में मशगूल। पिताजी अमरूद काट-काटकर सभी को खिला रहे थे। रह रहकर पंतग उड़ाने दूसरे की छत पर गये आनंद के भाइयों को आवाज भी लगा रहे थे। आनंद भूल चुका था कबूतर वाली बात। अमरूद खाते-खाते उसकी नज़र सामने के घर की छत पर पड़ी। एक जंगली कबूतर दिखा। दूसरे कबूतरों की तरह लेकिन कुछ उनसे कुछ अलग, कुछ अपना-सा..अपने गोलू- सा। काफी देर से आनंद की ओर ही देख रहा था। आनंद के भैया भी उधर ही देख रहे थे। अचानक-से चीख पड़े-वो रहा अपना गोलू! आनंद के मुख से निकला-हाँ हाँ यह गोलू ही है। घर के सभी सदस्य इसे मजाक समझकर हँसने लगे। भाई साहब भी मुस्कुरा दिये। आनंद भी खिसियानी हंसी हंसने लगा। लेकिन निगाहों ने होठों की मुस्कुराहटों से बगावत करने की ठान ली थी। बार-बार उधर ही उठ जातीं जैसे पक्का यकीन हो - यही है हमारी आँखों का तारा, यही है अपना गोलू। हमारे आश्चर्य का बांध टूट गया जब एक ही झटके में उड़कर आये उस शैतान ने आनंद के भाई साहब के कदमों को बिलकुल उसी अंदाज में ठूंगने लगा जैसा अपना गोलू चूमता था। कंधे पर चढ़ गया। उड़कर आनंद के पास आ गया। देखते ही देखते बारी-बारी से सभी के पैरों में, हाथों में या सिर पर ठूँग-ठूँग कर अपना गुस्सा उतारने लगा। जैसे वह पागल हो गया हो समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह सभी के कदमों को चूमकर अपनी अनुपस्थिति के लिए माफी मांग रहा है या ठूंगकर बेरूखी के लिए सज़ा दे रहा है! 

उस दिन आनंद के घर में जो खुशी का माहौल था उसका वर्णन करना मुश्किल है। जैसे सेना में गया घर का कोई सदस्य जिंदा वापस आ गया हो जिसे सभी ने मरा मानकर भुला दिया था ! सभी उसे अपने हाथों में लेकर भरपूर प्यार कर लेना चाहते थे। कोई कहता-“कितना दुबला हो गया है!’ कोई कोई कहता-‘बाज ने इसको घायल कर दिया था तभी यह इतने दिनो तक नहीं आ पाया। देखो! अभी भी ज़ख्मों के निशान मौजूद हैं!” वह चीज प्यारी होती है जो खो के मिलती है लेकिन मरा मान लिया गया घर का सदस्य जिंदा वापिस आ जाय तो फिर कहना ही क्या! सदस्य भी ऐसा जो हर दिल अजीज़ था। 

गोलू का आना घर को खुशियों से भर देने के लिए काफी था। वह हमारे परिवार का सदस्य तो पहले भी था लेकिन अब घर में कहीं भी जाने के लिए और स्वतंत्र हो चुका था। आनंद की माँ पहले तो कीचन में आने पर उसे डांट कर भगा देतीं थीं मगर अब उन्होने भी बिगड़ना बंद कर दिया था। सभी उसकी तरफ़ से पूरी तरह निश्चिंत हो चुके थे कि जो बाज़ के मुँह से सकुशल वापस आ सकता है उसकी क्या फ़िकर करना। वह खुद ही अपने को बचा सकता है। उसकी यही स्वतंत्रता, घर की यही निश्चिंतता उसके लिए प्राण घातक हो जायेगी इसकी कल्पना भी किसी ने नहीं किया था। 

होनी को कौन टाल सकता है एक शाम जब घर के सदस्य खाना खा रहे थे। ऊपर से आनंद के भैय्या दौड़ते हुए आये और लगभग रोते हुए चीखकर बोले--गोलू को बिल्ली ले गई! इन पाँच शब्दों के वाक्य ने सभी को हिला कर रख दिया। निवाले जहाँ के तहाँ अटक गये। दो पल के लिए सभी की सांस रूक-सी गई। जब होश आया तो सभी दौड़ पड़े ऊपर.. छत वाले कमरे में जहाँ वह रहता था। आनंद का दौड़ना किसी काम न आया। भाई साहब बस इतना ही बता सके...बिल्ली इधर से गई थी! काफी देर तक हम थके, निढाल उस क्रूर बिल्ली की कल्पना करते रह गये कि कैसे उसने गोलू को पकड़ा होगा और कैसे उसकी गरदन...उफ्फ! इसके आगे की कल्पना भी हमारे लिए असह्य थी। खाना धरा का धरा रह गया। किसी की भी खाने की इच्छा नहीं रही। पूरी रात तरह-तरह की बातें होती रहीं.. जब पकड़ा तब तुम कहाँ थे? अरे! ध्यान रखना था… बड़ी गलती हो गई, कम से कम रात में उसे दड़बे में रखना चाहिए था। दुःखी तो सभी थे लेकिन भैय्या को अपार कष्ट था। वह उन्ही से साथ रहता था। भैय्या कहते-'जब वह छोटा था, पूरी रात मेरी हथेली पर सोया रहता था और मैं अपना हाथ नहीं हटाता था!' पूरी रात अफसोस मनाते-मनाते कट गई लेकिन सूरज तो सूरज है..निकलता अपने समय पर ही है। ठहर ही नहीं सकता, चाहे कोई मर जाय।

................

18 comments:

  1. महसूस होता है बहुत से
    गोलू हमारे आसपास हैं
    कबूतर नहीं हैं पर
    जो भी हैं कुछ खास खास हैं
    किस्मत की बात है
    जिसके पास इतना प्यार है
    बाकि बहुत से कबूतर
    कुछ उदास उदास हैं !

    ReplyDelete
  2. इसे पढकर यैसा नहीं लगता की ये कोई कहानी हो,बिल्कुल सत्य-सत्य घटनायें लिखी गई हैं.कबूतर का प्रेम बहुत गहरा है,कई दिनों बाद भी वो लौट आया.मगर ये येक रहश्य लगता है की वो आखिर इतने दिनों कहाँ था ? घायल होकर इतने दिनों तक तो बच नहीं सकता.

    ReplyDelete
  3. सुन्दर.जाड़े की छत का वर्णन मेरे वर्तमान के यथार्थ को छू गया.हमने भी एक खरगोश पाल रखा है और बिल्ली तथा कुत्ते की चिंता करते ही दिन बीत रहे हैं.

    ReplyDelete
  4. आप बाल मन हैं और इस ब्लॉग की अभी तक की सभी पोस्ट बालमन की कथाएँ हैं। बालमन को यहाँ पाकर खुशी हुई।

    ReplyDelete
  5. उफ़ . . .
    दर्दनाक , वह इस घर को बहुत प्यार करता था !!

    ReplyDelete
  6. अभी तो मैंने पढ़ना शुरू किया है ,पिछली कड़ियों को पढ़ कर फिर आउंगा।

    ReplyDelete
    Replies
    1. यह कहानी तो दो ही किश्त में है।

      Delete
  7. ओह ह्रदय विदारक! मगर आपकी लेखनी को सलाम!

    ReplyDelete
    Replies
    1. जब भी इस ब्लॉग में कोई पोस्ट डालता हूँ मेरी इच्छा होती है यह आप जरूर पढ़ लें क्योंकि मैने कभी लिंक नहीं दिया बावजूद इसके इन यादों को आपका प्रोत्साहन लगातार मिलता रहा है।...आभार आपका।

      Delete
  8. जैसा कि मैंने अपने पिछले कमेण्ट में कहा था कि अपना भी बड़ा करीबी रिश्ता रहा है इनसे, इसलिये मैं इस कथा/घटना के दर्द को महसूस कर रहा हूँ.. पिछली बार एक घटना साझा की थी इस बार भी ऐसी ही.. क्षमा सहित, मन नहीं मान रहा देवेन्द्र भाई!!
    मेरा भाई शाम को दीवार पर बने दड़बे पर लाठी से ठक ठक करता तो सारे के सारे अपने अपने घर में दुबक जाते थे. वो लाठी से कुण्डी बन्द कर देता था. सुबह कुण्डी खोलकर लाठी की खट खट के साथ सब बाहर निकल जाते थे. एक दिन सब जब वो लाठी ठक्ठका रहा था तभी कबूतर ने सिर निकाला और लाठी सीधी सिर पर लगी.. बेचारा ज़मीन पर गिरकर शांत हो गया.. उसकी मौत के बाद मेरे भाई ने मांसाहार त्याग दिया.. मैं तो शुरू से शाकाहारी था, अब हमारे परिवार में दो शाकाहारी हैं!!


    ReplyDelete
  9. बेहद मार्मिक..शायद गोलू ने अब कोई मानव तन पाया होगा..

    ReplyDelete
  10. बिछड़ कर मिलना और फिर चले जाना, मन नम कर गयी कहानी।

    ReplyDelete
  11. बहुत खूब।

    ReplyDelete
  12. बहुत सुन्दर लिखा है। साथ रहते पालतू जानवरों से किस तरह लगाव हो जाता है ये मैं समझ सकती हूँ। एक कुत्ता पालने और उससे बिछड़ने के बाद फिर दूसरा पालने की हिम्मत नहीं हुई।

    ReplyDelete
  13. अब ब्लाग पर आना होता रहेगा ! लिंक शेयर करते रहें :)

    ReplyDelete
  14. देवेन्द्र जी आपकी ये रचना बेहद सुन्दर है ... आपकी रचनाओं में एक सार्वभौमिक रूप से हर प्रकार की चीज़ का एक मिश्रित रूप देखने को मिलता है आपकी यह रचना बहुत ही सुन्दर तरीके से रचित हैं आप अपनी इसीप्रकर की रचनाओं को शब्दनगरी पर भी लिख सकते हैं जिससे यह और भी पाठकों तक पहुँच सके .........

    ReplyDelete