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बटाटे वाली बाई
'बटाटे वाली बाई' आनंद के घर के सामने वाले घर में किराए पर अकेले रहती थीं। उनकी उम्र होगी यही कोई पचास के आसपास। प्रायः गेरूए वस्त्र ही पहनती थीं। देखने में खूबसूरत नहीं थीं पर उनका मुस्कुराता चेहरा सभी बच्चों का मन मोह लेता था। बच्चों की गेंद कभी उनके कमरे से बाहर बनी छोटी-सी चहारदिवारी के भीतर चली जाती तो वे उसे प्यार से लौटा देती थीं। गेंद लौटाते वक्त उनकी आँखों में प्यार छलकता था। वे किसी से अधिक नहीं बोलती थीं। बस अपने काम से काम रखती थीं। हाँ, उन्होने एक जंगली बिल्ली पाल रखी थी। ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि बिल्ली उन्होने पाल रखी थी या उनकी ममता का फायदा उठाकर बिल्ली स्वयम् पल गई थी लेकिन कभी कभार उनको बिल्ली से ही बातें करते सुना जा सकता था। किसी दूसरे व्यक्ति से वह सिर्फ काम भर की बातें ही किया करती थीं। कहाँ से आई थीं ? वहाँ क्यों रह रही थीं ? कुछ नहीं पता। बस इतना याद है कि वे मराठी बोलती थीं जिससे लोग उन्हें महाराष्ट्रियन कहते थे।
वह एक सुरंगनुमा बंद कमरा था जिसका मुँह गली की ओर खुलता था। उसी से कमरे में प्रवेश करतीं और उसी से बाहर निकलतीं। दूसरा कोई रास्ता न था। आनंद को बाई से कोई लेना देना न था। उसे तो मतलब था बस उनके बनाये बटाटे से। शाम तीन-चार बजे बेसन में लपेटकर जब वो कमरे में आलू की टिक्की छानतीं तो उसकी खुशबू से पूरा मोहल्ला बेचैन हो जाता। लोग धीरे-धीरे जमा होने लगते। धनियाँ की चटनी और गरम-गरम बटाटे मोहल्ले के छोरों को दोने में लेकर जाते देख आनंद का मन ललचने लगता। वह अपने किचेन वाली खिड़की से छुपकर बाई के बटाटे देखता रहता। उसकी ललचाई नजरों को देख कभी-कभी उसकी माँ का दिल पसीज जाता और वे मौका देखकर (आनंद अकेले हो, दूसरे भाई-बहन घर में न हों।) किसी डिब्बे में छुपाकर रखे पैसों से एक चवन्नी चुपके-से आनंद को दे देतीं। चवन्नी को खुशी से दाहिने हाथ की मुठ्ठी में बांधे आनंद अपने घर की सीढ़ियाँ ऐसे उतरता जैसे अब गिरा तब गिरा। माँ को चीखना पड़ता-आराम से जाओ बटाटे कहीं भागे नहीं जा रहे! लालची कहीं के..
मध्यमवर्गीय गृहणियों की गुल्लक इतनी बड़ी नहीं होती कि एक बार में सभी बच्चों का मन रख सकें। लाख मन होते हुए भी वे अपने किसी एक पुत्र के लिए अपने खजाने का मुँह नहीं खोल पातीं। जब वे किसी के लिए कुछ करती हैं तो दूसरे बच्चे दौड़ते हुए चले आते हैं..माँ! मेरे लिए? दुनियाँ की कोई माँ अपने बच्चों में भेद नहीं करती लेकिन अपनी ममता से लाचार हो, बगैर आगा-पीछा सोचे जो बच्चा सामने पड़ा उसकी जरूरत को देखते हुए अपनी झोली खाली करने से भी नहीं हिचकतीं। माँ के मुँह से ‘बटाटे कहीं भागे नहीं जा रहे’… सुनकर, एकाध भाई-बहन और लिपट जाते...और देखते ही देखते माँ की गुल्लक खाली हो जाती। बच्चे बटाटे लाते। माँ को घेरकर खड़े हो जाते। खाते-खाते बच्चों को एहसास होता.. सभी के लिए माँ ने पैसे दिये लेकिन अपने लिए तो दिये ही नहीं! सभी अपने-अपने दोनों से माँ को खिलाने का प्रयास करते। माँ कहतीं- नहीं, मेरा पेट भरा हुआ है। तुम लोग खा लो, मेरा मन नहीं है। लेकिन बच्चे नहीं मानते कुछ न कुछ माँ को खिलाकर ही दम लेते हैं। बच्चों की खुशी के आगे गुल्लक खाली होने का गम माँ पूरी तरह से भूल जातीं।
वह जाड़े की अंधेरी रात थी। आनंद गहरी नींद में सो रहा था। बाहर बारिश हो रही थी। बारिश के साथ रह-रहकर बिजली भी कड़के लगती। बिजली की कड़क सुनकर आनंद की नींद खुल गई। उसे बहुत तेज़ पिशाब लगी थी। किचेन के बगल में नाली थी। पिशाब करते हुए उसे महसूस हुआ कि बाहर तेज़ बारिश हो रही है। तभी ‘म्याऊँ’-‘म्याऊँ’ की आवाज सुनाई दी..फिर एक दबी-दबी –सी एक चीख! फिर सब कुछ सन्नाटे में गुम। उसे लगा यह आवाज़ बाई के कमरे से आ रही है। वह दौड़कर किचेन में गया और खिड़की से बाई के कमरे की ओर देखने लगा। बिजली की चमक के साथ उसने बिल्ली को कमरे से निकलकर गली में भागते देखा। कमरे में हल्की रौशनी दिख रही थी। शायद लालटेन या ढिबरी की होगी। बाहर भयंकर अँधेरा था। वह सशंकित हो बाई के कमरे की तरफ देखने लगा। उसका मन अनिष्ट की आशंका से कांप रहा था। तभी माँ उसके पीछे आ गईं..यहां क्या कर रहे हो ? तुम्हें रात में भी बाई के बटाटे नज़र आ रहे हैं! वह माँ को चीख के बारे में बताना चाहता था लेकिन माँ कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थीं। माँ उसे लेकर बिस्तर में आ गईँ। पास ही पिताजी सो रहे थे। पिताजी के रहते कुछ बोलने की हिम्मत वह कभी नहीं जुटा पाया। बिस्तर पर उसे नींद नहीं आ रही थी। कान बाई के कमरे की ओर ही लगे थे। सोचते-सोचते कब नींद आ गई उसे कुछ नहीं पता।
सुबह हो चुकी थी। गली से कोई उसे बुला रहा था-आनंद! आनंद! आँखे मलते हुए वह बरामदे में खड़ा हुआ। गली में मुन्ना खड़ा था-आज सोए रहोगे क्या! आनंद ने देखा-बाहर बहुत भीड़ है। उसने पूछा- ‘क्या बात है ? इत्ती भीड़ी क्यों है ?’ मुन्ना ने इशारे से उसे नीचे बुलाया। वह दौड़कर गली में आया। मुन्ना ने बाई के कमरे की ओर इशारा किया-वहाँ पुलिस खड़ी थी। मुन्ना ने कान में धीरे से कहा-रात में किसी ने बाई की हत्या कर दी! सुनते ही आनंद थच्च से चबूतरे पर बैठ गया। गली में कीचड़ था लेकिन उसकी आँखों में लगा कीचड़ पूरी तरह साफ़ हो चुका था। उसने धीरे से कहा - मुझे बिल्ली की तरह चीखना चाहिए था! ……………………………………………………………………………………………..
कहानी झकझोरती है देवेन्द्र भाई!! एक साथ कई बातों को उजागर करती है कि हर साधु का एक अतीत होता है.. हमारा समाज कितना भी सहृदय हो जाए (अपने बच्चों के लिये गुल्लक लुटा देना) एक सहृदय पड़ोसी बनना अभी बाकी है.. प्रभु यीशु की सीख कि अपने पड़ोसी को प्यार करो को हमने मज़ाक में उड़ाया है, लेकिन अगर उसे अपनाया होता तो दुनिया कुछ और होती.. और अंत में एक और सचाई कि जानवर आदमी से ज़्यादा वफ़ादार है...
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एक त्रुटि (पता नहीं जहाँ कि यह कथा है वहाँ इसे त्रुटि माना जाता है कि नहीं).. आलू को गुजराती/मराठी में बटाटा कहते हैं. इसलिये आलू के बटाटे पुनरावृत्ति है!! वो अवश्य आलू की टिक्की बनाती होगी यानि बटाटे की टिक्की या भजिया!!
जी..मैने समझाने के चक्कर में आलू के बटाटे लिख दिया पुररावृत्ति, त्रुटि पर ध्यान ही नहीं गया। अभी सुधारता हूँ..धन्यवाद।
Deleteआपकी शानदार प्रतिक्रिया के लिए आभार। बहुत दिनो बाद इस ब्लॉग में कुछ लिख पाया।
Deleteबहुत मार्मिक कहानी
ReplyDeleteवाकई बिल्ली की तरह चीखना चाहिए , शायद बाई बच जाती . . . . दर्दनाक !!
ReplyDeleteमन में छिपा रह गया कुछ कर न सकने का भाव
ReplyDeleteबहुत खूब !
ReplyDelete."..... मुझे बिल्ली की तरह चीखना चाहिये था " बहुत ही मार्मिक और कुछ न कर सकने की पीड़ा को उजागर कर गयी यह अंतिम लाइन.वाह ! कमाल कर दिया आपने अंतिम लाइन में.
ReplyDeleteमार्मिक -कीचन को किचेन कर दे
ReplyDeleteसुधार दिया..धन्यवाद।
Deleteदेवेन्द्र भाई, पेज की चौड़ाई कुछ कम करिये न।
ReplyDeleteअब ठीक हुआ?
Deleteमार्मिक याद...
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