05 January, 2014

(1) गोला कबूतर 'गोलू' हो गया!

यादें-38 


खुशकिस्मत हैं वे परिंदे जो खूबसूरत नहीं है, खुशकिस्मत हैं वे जिनकी बोली मीठी नहीं है। वरना जिन परिंदों की बोली मीठी है, जिनके पर सुनहरे हैं उन पर तो आदमियों की नज़र लग जाती है! पिंजड़े में कैद हो जाते हैं!!! अच्छे होने में, सुंदर होने में खतरा बहुत है। 

हम अपने घर आये अतिथि के सामने तोते से कहते हैं-‘राम-राम’ कहो बेटू, ‘राम-राम’ और जब तोते के मुख से ‘राम-राम’ निकलता है तो गर्व से सीना चौड़ा कर लेते हैं! यह नहीं जान पाते कि तोता कहना चाहता है-कैसे निर्दयी हो तुम! तुमने मुझे मेरी मैना से दूर कर दिया..राम! राम! हम प्रेम के ककहरे नहीं जानते मगर तोते से कहते हैं-गोपी कृष्ण कहो बेटू, गोपी कृष्ण! हम काले कबूतरों को हिकारत की नज़रों से देखते हैं, सुफेद कबूतरों को शौक से पालते हैं और गर्व से कहते भी हैं- मंडेला रंग भेद मिटा गये! 

प्रेमी यदि शक्तिशाली हो तो अपने प्रिय को पालतू बनाना चाहता है। हमारा प्रेम ऐसा क्यों है कि हम जिसे प्यार करते हैं, जिसे अपने दिल में बसाना चाहते हैं, अपनाना चाहते हैं, पाना चाहते हैं और पाने के तुरंत बाद पिंजरे में कैद कर लेना चाहते हैं! पहरे बिठाते हैं..देखो! उड़ने न पाये!!! सोनवां कs पिंजरा मे बंद भइलू हाय राम! चियरी कs जियरा उदाsssस। हमे अपने प्रेम पर भरोसा क्यों नहीं है? प्रेम तो ऐसा होना चाहिए कि चिड़िया कहे-मुझे कैद कर लो! मेरो मन अनत कहाँ सुख पायो! जइसे उड़ी जहाज को पंछी, पुनि जहाज पर आयो..मेरो मन अनत कहाँ सुख पायो...! 

तुम परिंदों को कैद करने के खिलाफ हो। अच्छी बात है। तुम एक पायदान ऊपर उठ चुके हो। तुम्हें परिंदों से प्यार है। तुम उनके लिए दाना बिखेरते हो, वे उड़-उड़ कर आने लगते हैं। तुम खुश होते हो कि तुम्हारी एक आवाज पर परिंदे आ जाते हैं मगर तुम अभी भी भ्रम में जी रहे हो..! परिंदे भूखे हैं। वे तुम्हारे प्यार से आकर्षित होकर तुम्हारी एक आवाज पर नहीं अपनी भूख से मजबूर होकर तुम्हारी आहट पाकर आये हैं। जब तुम्हारे दाने खतम हो जांय। जब उनकी भूख मिट जाये तब फिर एक बार आवाज लगा कर देखना! तुम कहोगे आओ..वे उड़-उड़ कर जाने लगेंगे। तुम्हे सोचोगे मैने तो ‘आओ’ कहा था, इन्होने ‘जाओ’ कैसे सुन लिया! प्यार तो तब होगा जब तृप्त होने के बाद पंछी तुम्हारे पैरों को चूमने लगें। तुम्हारे कंधे पर बैठ कर ‘गुटर गूँ’ करें। प्यार तो वह है कि जब तुम गाओ तब वे चहचहाने लगें। 

वह एक जंगली कबूतर का फूटा हुआ अंडा था। गली मे पड़ा था। यहाँ बनारस में इस जाति के कबूतर को गोला कबूतर कहते हैं। इसे कोई पालता नहीं है। भ्रम है लोगों में कि ये पलते नहीं हैं। भाग जाते हैं। भैया की नजर पड़ी तो वे छत से चीख पड़े-“आनंद! जाओ, उस कबूतर के बच्चे को ले आओ। अरे! वहीsss जो अंडे से झांक रहा है। अंधे हो क्या! दिखा…?” 

आनंद ने देखा एक कुत्ता गली में पड़े टूटे अंडे को सूंघ रहा है। आनंद के भैया फिर चीखे- “जाते हो कि नहीं..कुत्ता बच्चे को खा जायेगा!” लगभगी सभी सीढियाँ एक साथ पार करते हुए वह बेतहाशा नीचे उतरा। जैसे कोई खूबसूरत पतंग गली में गिर पड़ी हो और मोहल्ले के कई लड़के उसे लूटने के लिए आने ही वाले हों। शायद ही कोई पतंग आनंद को इतना आकर्षित कर पाई हो जितनी उस बच्चे की जान बचाने की ललक। अगले ही पल वह कबूतर के बच्चे के पास पहुँच गया जो अभी-अभी अंडे से बाहर आया था लेकिन तुरंत उठा नहीं पाया। जब हाथ बढ़ाता बच्चा थोड़ा-सा बिदक जाता और एक अजीब-सी सिहरन दौड़ जाती पूरे जिस्म में। काफी मशक्कत के बाद वह कबूतर के बच्चे को लेकर घर आ पाया। तब तक भाई साहब भी आ गये। उन्होने उसे प्यार से संभाल लिया। 

माँ ने देखा तो डांटने लगीं…”ये किस कबूतर का बच्चा उठा लाये हो? जिंदा नहीं बचेगा। जाओ! इसे वापिस घोंसले में रख आओ। इसकी माँ इसके लिए परेशान हो रही होंगी।“ हमने माँ को समझाया कि हम किसी घोंसले से उठाकर नहीं लाये हैं। यह गली में पड़ा था और एक कुत्ता इसे खाने ही वाला था। हम यह भी नहीं जानते कि यह कहाँ से गली में गिरा है। माँ तो माँ है नहीं मानी- देखो! ऊपर सामने वाले घर में कबूतरों ने दिवाल के मुक्कों में कितने घोंसले बना रखे हैं! यह अवश्य उन्हीं में से गिरा होगा जाओ रख आओ।“ घर के दक्षिण की तरफ सामने एक बड़ा-सा मकान था। जहाँ बाहरी दीवार पर कई मुक्के बने थे। वहीं असंख्य गोला कबूतर रहते थे। लेकिन समस्या यह थी कि वहाँ चढ़कर बच्चे को रखा ही नहीं जा सकता था। कोई सीढ़ी वहाँ तक नहीं पहुँच पाती। वह काफी उँचाई पर था। हारकर माँ को मानना पड़ा और भैया जुट गये कबूतर को जिलाने में। माँ ने एक छोटी-सी कटोरी में दूध दिया। आनंद दौड़कर रूई ले आया। भैया रूई के फ़ाहे में चुभो-चुभोकर बच्चे को दूध पिलाने लगे। एकाध दिन बाद चावल के दाने को दांत से कूचकर खिलाने लगे। धीरे-धीरे बच्चा स्वस्थ होने लगा। उसके पंख अब दिखाई देने लगे। जो भी देखता तो यही कहता-‘यह गोला कबूतर है, पलेगा नहीं। पंख लगते ही उड़कर भाग जायेगा।‘ पिताजी की शर्त थी कि इसे पिंजड़े में नहीं रखोगे। जैसे ही पंख लगे, उड़ना सीख जाये तो जहाँ जाना चाहे जाने दोगे। आनंद के भैया ने अपने कमरे में उसके लिए शानदार घोंसला बना दिया था। गोला जाति का होने के कारण सभी उसे प्यार से ‘गोलू’ कहने लगे। धीरे-धीरे गोलू बड़ा होने लगा। उसके शरीर को पंखों ने ढंक लिया। अब वह भैया के कमरे में टांड़ पर रहने लगा। उड़कर नीचे-ऊपर करने लगा। बिल्ली के डर से भैया अपना कमरा हमेशा बंद रखते थे। 

एक दिन पिताजी डांटने लगे-“मैने कहा था कि जब यह बड़ा हो जाय तो इसे छोड़ दोगे! तुम लोगों ने अभी तक इसे घर में ही कैद कर रखा है? छोड़ो इसे ! जाने दो अपने माता-पिता के पास, साथियों के पास। देखो! वे कबूतर अपने साथियों के साथ कितने खुश रहते हैं! तुम लोगों ने इसकी जान बचाई, अच्छा काम किया अब और अच्छा काम करो कि इसे इसके साथियों के पास ले जाकर छोड़ दो। ” आनंद जानता था कि पिताजी पंछियों को कैद करने के सख्त खिलाफ़ थे। उसे अच्छी तरह याद था। एक बार वे काली जी के मंदिर में दर्शन करने गये थे। वहाँ कई निरीह जानवर बली देने के लिए लाये जाते हैं। लोग मुर्गा, कबूतर खरीदते हैं और काली जी के प्रतिमा के पास ले जाकर बली चढ़ाते हैं। पिताजी ने भी बहेलिये से एक कबूतर खरीद लिया। आनंद ने सोचा पिताजी ये क्या कर रहे हैं! क्या ये भी बलि चढ़ायेंगे!!! लेकिन अगले ही पल पिताजी ने कबूतर को हवा में उड़ा दिया था। पिताजी का पंछी प्रेम वह जानता था। वैसे भी पिताजी के आदेश के बाद तर्क करना घर में किसी के वश में नहीं था। सभी बेहद मायूस हो गये। उनकी महीनो की मेहनत जाया जा रही थी। पिताजी गोलू को उड़ाने को कह रहे थे।! बच्चों ने माँ की शरण ली मगर माँ ने हस्तक्षेप करने से साफ़ इनकार कर दिया। उल्टे कहने लगीं-“ठीक ही तो कह रहे हैं। तुम लोगो ने उसे पाल पोसकर बड़ा किया अब उसे अपने मित्रों के साथ घूमने दो। तुम्हें कोई घर में कैद करके रखे तो तुम्हें कैसा लगेगा?” 

जिन्हें माँ शरण नहीं देती उन बच्च्चों की सारी उम्मीदें खत्म हो जाती हैं। आँखों के आगे अंधेरा छा जाता है। माँ से भी निराश होकर एक दिन आनंद के भैया ने तय किया कि अब कबूतर को उड़ा ही दिया जाय। कबूतर की विदाई के लिए आनंद के भैया ने रविवार का दिन चुना। पिताजी भी घर में थे। भैया कबूतर को छत पर ले गये। दक्षिण दिशा की ओर मुँह किया जिधर से वह आया था और एक नजर सबकी ओर देखा फिर उसे हवा में उड़ा दिया! कबूतर हवा में उड़ने लगा। मगर यह क्या! वह अपनी बिरादरी के पास वहाँ नहीं गया जहाँ सबने सोच रखा था। उसने आसमान का एक चक्कर लगाया और फिर वापस आकर भैया के कंधे पर बैठ गया! आनंद खुशी के मारे पागल हुए जा रहा था। भैया ने उसे प्यार से चूमा और फिर हवा में उड़ा दिया। उसने फिर हवा में एक चक्कर लगाया और फिर आकर छत की मुंडेर पर बैठ गया। यह सिलसिला कई बार चला। माँ ने देखा, पिताजी ने देखा घर के सभी सदस्यों ने बारी-बारी से उसे उड़ाने का प्रयास किया मगर वह जंगली कबूतर आनंद के घर को ही अपना घर, आनंद के परिवार को ही अपना साथी समझ रहा था। 

यह वही गोला कबूतर था जिसके रंग को देखकर लोग कहते थे कि यह नहीं टिकेगा। जिसकी नस्ल से लोग अंदाज लगाते थे कि यह वफ़ादार नहीं होगा। मुझे लगता है यही वह विश्वास है जिसने रंगभेद नीति के खिलाफ़ विजय हासिल की। यही वह विश्वास है जिसके सहारे नेल्सन मंडेला विश्व में सही साबित हुए। 

क्रमशः गोलू की कहानी अगले अंक में समाप्त हो जायेगी।

22 comments:

  1. जिसने उसे अपना मान लिया हो, उसके लिये कौन पराया।

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  2. कबूतरबाजी तो नहीं की लेकिन कबूतरबाजों के बहुत किस्से सुने हैं, दीन दुनिया से बेखबर होकर बात करते हैं वो।
    क्रमश: सही मोड़ पर लगाया है, सस्पेंस फ़ुल्ल्मफ़ुल्ल!

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  3. मेरो मन अनत कहाँ सुख पायो...!
    अतिसुन्दर !
    अगली कड़ी की परीक्षा !

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  4. बहुत सुन्दर -शुरू में तो लगा किसी पहुंचे हुए धर्मगुरु का आख्यान पढ़ रहा हूँ -
    बहुत से पक्षियों में ईम्प्रिंटिंग का व्यवहार होता है जिसमें वे अंडे से बाहर निकलते ही जिस भी काया -
    चिड़िया या मानव काया को सामने देखते हैं जीवन भर उसी के आश्रित हो जाते हैं !
    मैंने लोटन कबूतर के बारे में सुना था मगर गोलू से परिचय नहीं था -एक फोटू भी चेपना था न !

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    1. धन्यवाद। आपका आदेश सर माथे पर। एक चित्र चेप ही दिया। भले ही उस घर का न हो, महाराजा चेत सिंह के किले का हो। अब वो गोलू कहाँ से लाऊँ! मगर ऐसा ही था।

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    2. शायद यही हैं गोलू !!
      http://satish-saxena.blogspot.in/2013/10/blog-post_2378.html

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  5. 'शब्द-चित्र' जैसा शब्द आपके लेखन को ही ध्यान में रखकर गढ़ा गया है... बहुत ख़ूबसूरती से आप्ने कबूतरों की प्रवृति को मण्डेला के सन्देश से जोड़ा है.. मेरे घर पर हम भाईयों ने दर्ज़नों कबूतर पाले थे, लक्का, लोटन, गोला और कई तरह के.. खुले माहौल में रहते थे.. जब उनका ख़ानदान बहुत ज़्यादा बढ़ जाता तो उसे बेच आते थे बाज़ार में.. यकीन मानिये दर्ज़न भर बेचने पर आधे दर्ज़न लौटकर हमारे घर चले आते थे.. इअलिये भैया वाली बात से वही घटना याद आ गयी.. ऐसे ही चिट्ठियों की आवाजाही शुरू हुई थी कबूतरों के ज़रिये!!

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  6. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन एक छोटा सा संवाद - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  7. ये प्यार को पहचानते हैं . . .

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  8. कहानी अच्छी लग रही है और दूसरे अंक का इंतज़ार बेसब्री से कर रहा हूँ.
    आजकल तो विदेशों में लोग शेर,चीते को भी पालने लगे हैं ,येक आदमी यैसा भी है जो जंगल में भेड़ियों के ही साथ रहता है ,और उन्ही से खेलता भी है.

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  9. बहुत बढ़िया...आप को मेरी ओर से नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...

    नयी पोस्ट@एक प्यार भरा नग़मा:-कुछ हमसे सुनो कुछ हमसे कहो

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  10. सच कहा आपने कैद में रखकर कैसा प्यार! एक दिन इंसान को कमरे में बंद कर दो तो उसे समझ आएगा की प्यार भरी कैद कितने दुखदायी हैं ..
    बहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति
    आपका नववर्ष मंगलमय हो!

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  11. अद्भुत है , मुझसे रह गया था .

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  12. कितनी सुंदर याद..गोलू कबूतर की कहानी सचमुच है सुहानी...

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  13. बहुत प्रभावशाली कहानी है . सच्ची है तो और भी गज़ब है . यह आत्मीयता इंसानों मे ही नहीं , जानवरों और पक्षियों मे भी मिलती है . शायद प्राकृतिक रूप से होती है ! बढिया पाण्डेय जी !

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    1. धन्यवाद। इसके आगे वाली पोस्ट में कहानी समाप्त होती है।

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  14. गोला से मुलाक़ात अच्छी रही। भैया जैसी ज़िद की बड़ी ज़रूरत है।

    @ जिन परिंदों की बोली मीठी है, जिनके पर सुनहरे हैं उन पर तो आदमियों की नज़र लग जाती है! पिंजड़े में कैद हो जाते हैं!!! अच्छे होने में, सुंदर होने में खतरा बहुत है।
    - इंसान सबसे खतरनाक प्राणी है। वह किसी को नहीं छोड़ता। जिन्हें सौन्दर्य के लिए पालता नहीं, उनके पर नोचकर मार डालता है :(

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  15. जय हो - पढकर हम भी गोल हो गए :) - बहुत खूब

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  16. बहुत बहुत सुंदर रचना।जितनी तारीफ की जाए कम है।

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