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रामनाथ हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री....! J
ब्रह्माघाट और उसके आसपास के मोहल्लों में यह बात जंगल में आग की तरह फैल
गई! मोहल्ले के फुरसतिया, पान घुलाकर चबूतरे पर बैठे, एक दूजे से कल हुई शतरंज की बाजी की चर्चा
चटखारे ले ले कर, कर रहे थे।
काली कS लवंडा अइसन हरउलस रामनाथ के कि ओकर कुल
हेकड़ी मिट्टी में मिल गइल!
रामनाथ कS का हाल हौ? दिखाई नाहीं देत हौ!
हाल का होई? दुकान बंद कर कत्तो गांजा पीयत होई।J
हा हा हा...मजा आ गयल। अब ऊ कई दिन न दिखाई देई।J
बनारस की तंग गलियाँ, गलियों में मुह्ल्ला ब्रह्माघाट, मुहल्ले की
तिमुहानी में रामनाथ की दुकान, दुकान के सामने चबूतरा, चबूतरे पर शतरंज की अड़ी और
अड़ी के बेताज़ बादशाह रामनाथ। आसपास के कई मोहल्लों में उनके खेल की धाक थी। एक
आँख के रामनाथ, जाति से यादव, पेशे से मजदूर, शौक से शतरंज के खिलाड़ी, भाग्य से
हीन, लक्ष्मी से दरिद्र, नाम मात्र के दुकानदार थे। दुबले-पतले, इकहरे- लम्बे, पेट-पीठ एकाकार, बड़ी-बड़ी गढ्ढेदार आखें, छोटी-छोटी चंगेजी दाढ़ी वाले रामनाथ को कोई शरारत से भी कनवाँ कहकर नहीं बुलाता था। उनकी दुकान, कबाड़ी के दुकान से
बदतर थी। दुकान के टूटे-फूटे कनस्टर में बच्चों को बहकाने के लिए दो पैसे के सामानो
के अतिरिक्त और कुछ भी न था। ऐसी दुकान, जिसमें न तो सामान था न ग्राहक। यही कारण था
कि नशा पत्ती(गांजा), दूध-मलाई और मित्र कल्लू नाऊ की सुंदर पत्नी पर भाव जमाने के लिए वे बेहिचक कुली गिरी कर लिया करते थे। रोटी तो उसका भाई खिला ही देता था। न बीबी न बच्चा।
आसपास के घरों में जब किसी को शहर से बाहर जाना होता, बस या ट्रेन पकड़नी
होती, अपना सामान उठाने के लिए उसी को बुला भेजता। गलियाँ इतनी तंग हैं कि आज भी
वहाँ रिक्शा या कोई और वाहन नहीं जा सकता। कोई बीमार पड़ गया तो उसे, या तो गोदी
में या फिर खटोले में लादकर ही अस्पताल पहुँचाया जा सकता है। शतरंज खेल रहे रामनाथ
को जब कोई आवाज देता तो यह भी जरूरी नहीं था कि वह शतरंज खेलना छोड़.."अब्बे आवत हई।," कहकर तुरंत उसके पीछे दौड़ पड़े! जाने वाले को, पहले ही रामनाथ से संपर्क कर
समय बुक करवाना पड़ता था। वरना यह भी संभव था कि शाम को दो रूपये का गांजा और एक
पाव मलाई के पुरवे का जुगाड़ हो गया हो और वह बुलाने वाले पर झपट पड़े, “तोहरे बाप कS नौकर हई! जौन तुरंते तोहरे
बुलावे पे पीछे-पीछे चल देई? जा अभहिन फुर्सत नाहीं हौ! देखत ना हउवा बाजी चउचक लड़ल हौ।”J समय बुक रहने पर भी वह शतरंज खेलना बंद कर बुलाने वाले आदमी के दरवाजे पर
समय से पहुँच कर खड़ा नहीं हो जाता था बल्कि अपनी मस्ती में शतरंज खेलता रहता था।
हाँ, जब ट्रेन पकड़ने वाले के घर का कोई बालक दो चार बार आकर लौट जाता और उसका बाप
आ कर उसके कपार पर क्रोध की मुद्रा में खड़ा हो चीखने लगता, “नाहीँ जाएके रहल तS पहिले बता देता, ट्रेन छूटे कS समय हो गयल, अऊर तोहार खेल खतमे
नाहीं होत हौ?” तब जाकर वह “अब्बे आवत हई!” कहते हुए, मोहरे समेट कर प्लास्टिक के टेढ़े-मेढ़े
पुराने गंदे से डिब्बे में जल्दी-जल्दी भरने लगता। जिसे ट्रेन पकड़नी होती वह रामनाथ को तब तक घूरता रहता जब तक कि वह मैली
गंजी और लगभग धुल चुके लाल रंग का, पुराना, गंदा-सा अंगोछा कमर में कसते हुए, लगभग दौड़ने की मु्द्रा में, उसके घर की तरफ नहीं चल देता।J
अपनी खेल प्रतिभा से पूरे मोहल्ले में धाक जमाने वाले रामनाथ की हालत तब
पतली होने लगी जब उसी के साथ खेलते 14-15 वर्ष के बालक ने उसे कड़ी टक्कर देनी शुरू की! लुण्डी गुरू, सियाराम, भैय्यो और उस दुकान पर
खेलने आने वाले दुसरे खिलाड़ी अब रामनाथ का उसका मजाक उड़ान लगे।
चला आनंद आ गइलन! हो जाय एक बाजी !
हाँ, हाँ, हो जाय!
रामनाथ चिढ़कर चीखता..."इहाँ रण्डी कS नाच होत हौ? जउन आ गइला कपारे पर! हमे खेले के होई तS खेलबे करब! शतरंज शांति से खेले वाला खेल हौ। तू लोग
बीच-बीच में टिपिर-टिपिर बोल-बोल के ई काली कS लौण्डा के चाल बतइबा, हमार माथा खराब करबा, अउर जब हम हार जाब तS हिजड़न मतिन ताली पीटे लगबS! ई… कउनो बात भइल?”
“नाहीं भाई! हम लोग न बोलल जाई।” लुण्डी रामनाथ को मनाना शुरू किया।
“हाँ,हाँ, केहू न बोली। जे बोली बड़ी मार
मराई। अरे सारे! चुप रहे रे।” भइयो ने सबको हड़काया।
“हम चाय-पान भिजवावत हई!” सियाराम चहका।
दरअसल आनंद की प्रतिभा से उसकी रूह भीतर ही भीतर काँप चुकी थी कि यह लड़का
मुझे हरा सकता है। कहीं मैं हार गया तो जो धाक मोहल्ले में जमी है, धूल में मिल
जायेगी। लेकिन उस दिन सबकी मान मनौव्वल का असर यह हुआ कि वह खेलने को तैयार हो
गया।
बाजी इतनी रोचक जमी कि किसी से रहा नहीं गया। आधे इधर तो आधे उधर होकर
चाल बताने लगे। आनंद जितना शांत होकर चाल चलता, रामनाथ उतना ही हर चाल पर चिढ़ने
लगता। रामनाथ की बाजी धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगी। हार सन्निकट देखकर वह और भी
धीरे-धीरे चाल चलने लगा। तभी नेने जी के घर से कोई लड़का आया, “का हो रामनाथ! भैरवनाथ तक चलबा ? बाबूजी के ईलाहाबाद जायेके हौ। ढेर कS बोझ हो गयल हौ। हमसे अकेल्ले न उठी। चलता
तनि रिक्शा तक पहुँचा देता। लेकिन तू त खेले में मस्त हउआ! बाबूजी कहले रहलन लेकिन हमहीं भुला गइली, तोहें पहिले नाहीँ बतउली।” नेने जी के घर का बुलावा रामनाथ की फँसी बाजी के लिए बेहतरीन चाल बनकर
आया।J
“नाहीँ हो, अब्बे चलत हई! तोहरे बाबूजी बोलावें अउर हम न चली? अइसन कैसे हो सकSला।” कहते हुए सब मोहरे झटके से उठाकर फटा-फट
डिब्बे में ठूँसना शुरू कर दिया! सभी दर्शक दहाड़ने लगे, "अरे रे! ई का ?
खेल तS पूरा करके गइले होता?
“तS संझा कS खर्चा तोहरे घरे से आई? पहिले रोजी फिर रोजा। पेट भरल रही तS शतरंज तS खेले के हइये हौ। वैसे भी ई बाजी में कुछ न होत। चौ-मोहरी (शतरंज
के देशी रूप में चार मोहरे शेष रहने पर बाजी ड्रा हुई मान ली जाती थी।) हो जात।“ कहते-कहते रामनाथ ने सभी मोहरे पलक झपकते रख दिये, भटाक-फटाक पल्लों की आवाज
के साथ दुकान बंद की, एक अंगोछा छेदियल बनियाइन के ऊपर बायें काँधे पर डाला और नौ
दो ग्यारह हो गया। सभी अवाक! ठगे से, उसे जाते देखते रह गये। J
“उनकर हार एकदम पक्का रहल! तबे भाग गइलन। देखला नाहीं, एक घंटा से केतना धीरे-धीरे चलत रहलन ? खेलले होतेन त दुई चार चाल में उनकर मात होइये
जात।” तब तक ‘लुण्डी गुरू’ भाग कर, घर से अपना शतरंज ले आये और वैसी ही बाजी सजा कर हर संभावित चालों को
दिखा-दिखा कर, यह सिद्ध कर दिये कि खेल होता तो रामनाथ हार जाते। फिर क्या था! सभी ने हउरा(शोर) मचाना शुरू कर दिया, "रामनाथ हार गइलन!” यह खबर मोहल्ले में उस दिन के लिए ‘ढाका पर भारतीय सेना
का कब्जा’ से बड़ी खबर थी। गली के लड़के जिन्हें
शतरंज खेलने का जरा भी शऊर नहीं था, यह बात अच्छे से जान गये कि रामनाथ हार गये।
फिर क्या था ! लगे घूम-घूम कर गली-गली चीखने...रामनाथ
हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री... रामनाथ हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री... रामनाथ हार गइलन,
घोड़ा भागल टी री री री... J
जारी.....
जारी.....
.....................
नोटः चित्र गूगल बाबा से साभार।
नोटः चित्र गूगल बाबा से साभार।
"इहाँ रण्डी कS नाच होत हौ? जउन आ गइला कपारे पर! हमे खेले के होई तS खेलबे करब! शतरंज शांति से खेले वाला खेल हौ।तू लोग बीच-बीच में टिपिर-टिपिर बोल-बोल के ई काली कS लौण्डा के चाल बतइबा, हमार माथा खराब करबा, अउर जब हम हार जाब तS हिजड़न मतिन ताली पीटे लगबS! ई… कउनो बात भइल?”
ReplyDeleteहाहाहा गज़ब :)
हर रामनाथ की टक्कर में आनंद हमारा नारा है :)
बहोत अच्छा लगा देवेन्द्र जी. आपके लेख तो कमाल के होते है.
ReplyDeleteHindi Dunia Blog (New Blog)
आपकी पुरानी यादें ताजा है गयीं..
ReplyDeleteबहुत नीमन लागल भाई ।आशा करत बानी की हरदम अइसही लिखत रहीं । धन्यवाद ।
ReplyDeleteउत्कृष्ट लेखन ...आभार
ReplyDeleteपढ़ते तो आपको वहीं थे। कभी कभी खुद के बारे में बताना भी ज़रूरी है। वरना बेचैन आत्मा के चक्कर लगाते रहते और आनंद की यादे से वास्ता न पड़ता।
ReplyDeleteआपने जो वहां लिखा है मुझे भी विचार के बारे में मनोज पर लिख ही देना चाहिए।
बाक़ी पोस्ट रोचक है। बाक़ी के ३४ यादों के चक्कर लगाना ही पड़ेगा।
भाई कभी-कभार वहीँ लिख मारा करो...बाकी ई झेलना ज़्यादा बस का नहीं है.एक ही ब्लॉग पे लिखा करो.समझ मा तनी कम आवत बा !
ReplyDeleteएक ही ब्लॉग
Deleteसही है... बिलकुल सही.
आज मजा आ गया पढकर, लपूझन्ना इश्टाइल मस्त मस्त:)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर वर्णन हुआ है.ब्रम्हाघाट में रहने वाले लोग येक-से येक हैं.
ReplyDeleteमेरा पसंदीदा ब्लॉग किन्तु दुख इस बात का कि मैं भी इन दिनों उधर का रुख नहीं कर पाया ..
ReplyDeleteयह शतरंज की बिसात भी खूब रही ...
हाँ, अछूता था अब तक मुझसे यह ब्लॉग! अब नियमित हूँ/रहूँगा यहाँ।
ReplyDeleteहम तो अपनी बोली ही पढ़कर मस्त हुए जाते हैं..आभार!
accha laga padhkar prastuti bhi acchi lagi....
ReplyDelete:)
ReplyDeleteबहुत रोचक प्रस्तुति....
ReplyDeleteintezaar rahega..
ReplyDelete:-)
waise kashi ke bahut sare ilakon ke bare mein jankari bhi ho rahi hai aur manoranjan bhi.. saadar..
बहुत कुछ पढ़ने को रह गया है - आभार अली सा ... आपके दिए लिंक से यहाँ तक पहुंचे, शुरू से शुरू करना पड़ेगा. ..
ReplyDeleteपढ़ने और पढ़ाने के लिए आप दोनो का आभारी हुआ।
Deletesubscribed :)
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
रोचकता बरकरार है ..
ReplyDeleteठेठ बनारसी अंदाज़ लुभा गया
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteबाल प्रतिभा!
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