17 November, 2010

यादें-22 (पंचगंगा घाट)


            अड्डा0 न0-6, पंचगंगा घाट। पूर्वनिर्धारित समय से थोड़ा पहले ही आनंद वहाँ पहुँच चुका था। कोई और समय होता तो मुन्ना, विशाल को साथ लिए बिना घर से ही नहीं चलता। आखिर उनके घर की दूरी थी ही कितनी ! हल्की सी आवाज भी देता तो दोनो मिल जाते। आज बात दूसरी थी आज एक जासूस दूसरे जासूस से मिलने जा रहा था.....अपने अड्डे पर बिना बताए, चुपके से घर से निकला ताकि कोई देख न ले और यहाँ आकर तट से लगे काठ के तख्ते पर बैठा, कभी हवा में कट कर गिर रहे पतंग को हसरत भरी निगाहों से देखता तो कभी घाट की खड़ी सीढ़ियों को कहाँ फंस गए दोनो अभी तक आए क्यों नहीं ? कहीं मैं ही जल्दी घर से तो नहीं निकल पड़ा ! कहीं मैने ही गलत तो नहीं सुन लिया ! कहीं और तो नहीं जाना था ! नाना प्रकार की आशंकाओं से ग्रसित आनंद खुद ही प्रश्न करता खुद ही मन को समझाता...आते होंगे..अभी समय नहीं हुआ होगा।

            पंचगंगाघाट....गंगा, यमुना, सरस्वति, धूत पापा और किरणा इन पाँच नदियों का संगम तट। कहते हैं कभी, मिलती थीं यहाँ..पाँच नदियाँ..सहसा यकीन ही नहीं होता ! लगता है कोरी कल्पना है। यहाँ तो अभी एक ही नदी दिखलाई पड़ती हैं..माँ गंगे। लेकिन जिस तेजी से दूसरी मौजूदा नदियाँ नालों में सिमट रही हैं उसे देखते हुए यकीन हो जाता है कि हाँ, कभी रहा होगा यह पाँच नदियों का संगम तट, तभी तो लोग कहते हैं..पंचगंगाघाट। यह कभी थी ऋषी अग्निबिन्दु की तपोभूमी जिन्हें वर मिला था भगवान विष्णु का । प्रकट हुए थे यहाँ देव, माधव के रूप में और बिन्दु तीर्थ, कहलाता था  यहाँ का सम्पूर्ण क्षेत्र।  कभी भगवान विष्णु का भव्य मंदिर था यहाँ जो बिन्दु माधव मंदिर के नाम से विख्यात था। 17 वीं शती में औरंगजेब द्वारा बिंदु माधव मंदिर नष्ट करके मस्जिद बना दी गई उसके बाद इस घाट को पंचगंगा घाट कहा जाने लगा। वर्तमान में जो बिन्दु माधव का मंदिर है उसका निर्माण 18वीं शती  के मध्य में भावन राम, महाराजा औध (सतारा) के द्वारा कराये जाने का उल्लेख मिलता है। वर्तमान में जो मस्जिद है वह माधव राव का धरहरा के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ चढ़कर पूरे शहर को देखा जा सकता है। महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा निर्मित पत्थरों से बना खूबसूरत हजारा दीपस्तंभ भी यहीं है जो देव दीपावली के दिन एक हजार से अधिक दीपों से जगमगा उठता है।    

                      मोक्ष की कामना में  काशीवास करती विधवाएँ, रोज शाम को आकर बैठ जाती हैं पंचगंगा घाट के किनारे। आँखें बंद किए बुदबुदाती रहती हैं मंत्र। एक छोटे से थैले के भीतर तेजी से हिलती रहती हैं  अँगुलियाँ, फेरती रहती हैं रूद्राक्ष की माला....आँखें बंदकर...पालथी मारे... रोज शाम.....पंचगंगाघाट के किनारे। दिन ढलते ही, कार्तिक मास में, जलते हैं आकाश दीप....पूनम की रात उतरते हैं देव, स्वर्ग से...! जलाते हैं दीप...! मनाते हैं दीपावली...तभी तो कहते हैं इसे देव दीपावली। देवताओं से प्रेरित हो, मनाने लगे हैं अब काशीवासी, संपूर्ण घाटों पर देव दीपावली...आने लगे हैं विदेशी..होने लगी है भीड़...बनारस को मिल गया है एक और लाखा मेला...बढ़ने लगी है भौतिकता..जोर-जोर बजते हैं घंटे-घड़ियाल, मुख फाड़कर चीखता है आदमी, जैसे कोई तेज बोलने वाला यंत्र, व्यावसायिक हो रहे हैं मंत्र...। आरती का शोर..! पूजा का शोर...! धीमी हो चली है गंगा की धार....पास आते जा रहे हैं किनारे...बांधे जा रहे हैं बांध...बहाते चले जा रहे हैं हम अपना मैल....डर है...कहीं भाग न जांय देव ..भारतीय संस्कृति के लिए कहीं यह खतरे की घंटी तो नहीं…! 

                        गंगा की लहरें, बहती नावें, उड़ती पतंग, उस पार रेती पर हो रही हलचल, दूर क्षितिज में फैले खेत, राजघाट के पुल से गुजरती ट्रेन और कार्तिक मास में हो रही घाटों की सफाई देखने में मशगूल आनंद जान ही न पाया कि मुन्ना, विशाल कब आकर उसके पीछे बैठ गए ! दोनो की हंसी, फुसफुसाहट से जब उसका ध्यान भंग हुआ तो वह चौंक कर चीख पड़ा....अरे यार, कब से तुम लोगों का इंतजार कर रहा हूँ और तुम लोग अब आ रहे हो ?” दोनो हंसने लगे...हम लोग तो काफी देर से बैठे हुए हैं, तुम्हीं गुड्डी  देख ललचिया रहे हो। आनंद बोला, गुड्डी नहीं...यहाँ बैठकर तुम लोगों की प्रतीक्षा कर रहा था। मेरी बात ध्यान से सुनो....बैठे-बैठे एक विचार मन में आया है कि क्यों न हम लोग दोनो हाथ-पैर बांधकर नदी में कूदें और रस्सी छुड़ाकर बाहर निकलने का अभ्यास करें ! वैसे ही जैसे उस कहानी में जासूस राम करता है जब बदमाश राम का हाथ-पैर बांधकर, उसे मरा जानकर, पुल से फेंक देते हैं ! वह प्राणायाम के द्वारा श्वांस रोककर, डोरी खोलकर, तैरते हुए बाहर आ जाता है ? तुम लोगों ने पढ़ी है वो कहानी ? वो देखो, वो साधू भी काफी देर से नदी में दोनो हाथ-पैर फैलाकर लेटा हुआ है। वह नदी में प्राणायाम कर रहा है..काफी देर से लेटा है मगर डूबता ही नहीं !”

विशालः हाँ, हाँ, पढ़ी है। फिर दूसरे दिन बदमाशों को खूब मजा चखाता है। जासूस रहीम भी उसकी खूब मदद करता है।

मुन्नाः पागल हो गए हो क्य तुम दोनो ? इतने जाड़े में ! पानी छू कर देखो ! हाथ-पैर बांधकर मरना है क्या ? मैं तो नहीं करूंगा ! तुम दोनो भाड़ में जाओ।

आनंदः अभी कहाँ जाड़ा शुरू हुआ है ? मैने यह कब कहा कि अभी कूदते हैं ! अभी तो हम अपना अंगोछा भी नहीं लाए..कल सुबह जब गंगा जी नहाने आएंगे तो यह कर सकते हैं।

विशालः हाँ, कल सुबह ही ठीक रहेगा। अभी तो पानी बहुत ठंडा है।

मुन्नाः हाँ, सुबह-सुबह सुरूज नरायण आग बरसाएंगे तुम्हारे लिए !

आनंदः कल तो संडे है ...दिन में आएंगे 12 बजे के बाद तब तो पानी ठंडा नहीं होगा ? मर कैसे जाएंगे ? बाकी दो लोग क्या मुँह बाए देखते रहेंगे ? अभ्यास ही तो करने को कह रहा हूँ !

मुन्नाः ठीक है। कल आना। पहले तुम्हीं अजमाना अपना आ..ई..डि..या...!  

आनंदः ठीक है भाई….तुम सब आओगे तो..!

विशालः हाँ, हाँ, क्यों नहीं ! हम भी अभ्यास करेंगे।

मुन्नाः आज तो काफी देर हो गई। आकाश दीप जलाने की तैयारी भी हो चुकी। मुझे ही स्कूल से आने में देर हो गई। आजकल बाबा भी बीमार चल रहे हैं। पिताजी भी खीझियाए रहते हैं..लगता है उनका कोयले का धंधा मंदा पड़ रहा है। घर से चलने लगा तो माँ कह रहीं थीं जल्दी लौट आना..पापा नाराज हैं।

विशालः झिंगन भी टोक रहा था। बड़ी मुश्किल से उसको बेवकूफ बना कर आ पाया हूँ।

आनंदः तुम दोनो तो फिर घर का रोना लेकर बैठ गए। कार्तिक पूर्णिमा भी नजदीक है। दुर्गाघाटी मुक्की भी होगी। कल श्रीकांत मिला था। कह रहा था, इस बार दीप जलाने जरूर आना।

विशालः हाँ...हमसे भी मिला था। हमने कह दिया जरूर आएंगे और मुक्की भी लड़ेंगे।

मुन्नाः दुर्गाघाटी मुक्की ! हाँ यार, दीप जलने के बाद यहाँ मुक्के बाजी होती है।

'दरअसल पंचगंगाघाट के बगल में दुर्गाघाट है। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा के दिन, दीप जल जाने के बाद मुक्की प्रतियोगिता का आयोजन धूमधाम से किया जाता था। काशी के पहलवान दूर-दूर के घाटों से अपना भाग्य आजमाने यहाँ आते थे। धीरे-धीरे आपसी वैमनस्व के चलते यह प्रतियोगिता एक औपचारिकता, भूली बिसरी यादें बन कर रह गईं हैं। काशीवासी बहुत कुछ भूल चुके मगर अब भी, जब कभी किसी को कोई एक जोरदार पंच रसीद करता है तो दुर्गाघाटी मुक्की की याद कौंध जाती है। यह मुक्केबाजी की विशेष कला थी जिसमें लड़ाके, पंच न मार कर बिना कुहनी मोड़े, दोनो हाथ हवा में जोर-जोर भाजते थे, जिसको एक भी मुक्की लग गई, समझो वह गया काम से।'

आनंदः अच्छा तो तुम लड़ोगे श्रीकांत से ?

विशालः क्या हुआ अब तो हम जासूस हैं ! हमें बहादुरी का हर वो काम करना चाहिए जो कोई दूसरा कर सकता है।

मुन्नाः अच्छा मेरे बहादुर जासूस। अब घर चलो। शाम हो रही है और मुझे आज जल्दी जाना है।

(जारी....)    
  

11 comments:

  1. आनंद की यादे अपने में काशी की संस्कृति ,लोकाचार और इतिहास का भी एक दस्तावेज बनेगा -यही आशा और विश्वास है ...कभी आपके साथ पंचगंगा घाट चलना चाहता हूँ ..बच्चों गंगा यहाँ हत्यारिन भी हैं ,हाँथ पाँव बांधकर कूदने की बेवकूफी मत करना ...लग रहा है दो चांटे लगाऊ !

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  2. कथानक समझ में आ रहा है, कुछ पुरानी कड़ियाँ भी पढ़नी पड़ेंगी।

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  3. पढ रहे हैं बाल सुलभ लीलायें। शुभकामनायें।

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  4. इस बार जासूस राम वाला आईडिया आशंकित कर रहा है ! अरविन्द जी वाले चांटे का ख्याल मुझे भी आया :(

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  5. kahin bhag na jayen dev.. dar lag raha hai.
    waise dheere dheere kashi ki yatra bhi ho rahi hai.

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  6. श्वर्ग - स्वर्ग
    देवतोओं - देवताओं
    उंगलियाँ - अंगुलियाँ (?)
    दुर्गाघाट वाले स्पष्टीकरण को कोष्ठक से हटाइए। अब आप चेतना प्रवाह पद्धति की राह चल चुके हैं। वर्तमान भूत साथ साथ। काल अंशों को अलग दिखाने के लिए पहले और बाद में '...' का प्रयोग किया जा सकता है।
    देवदीपावली की मेरी दिव्य स्मृतियाँ अभी भी शेष हैं। नौका विहार। तापस बाला गंगा निर्मल ... वाराणसी और आनन्द की स्मृतियों की यात्रा में हम साथ साथ हैं।
    चरैवेति। आनन्द आ रहा है :)

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  7. कई घाटों का पानी पियले हौवा.गंगा के घाटों के बारे में नई-नई जानकारियाँ मिल रही हैं,धन्यवाद.

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  8. jaankariparak , sundar aalekh.

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  9. सांस्कृतिक परिवेश और अवधारणाओं को बखूबी समेटा है आपने इस श्रृंखला में

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