12 September, 2010

यादें-7(लीलो लीलो पहाड़िया)

यादें-1, यादें-2, यादें-3यादें-4यादें-5, यादें-6  से जारी...
चीयाँ पिल्लो की तरह लीलो लीलो पहाड़िया भी एक अलग तरह का खेल हुआ करता। इसका यह नाम क्यों पड़ा यह तो कोई नहीं जानता लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी यह खेल जाने कब से बच्चों में प्रचलित था। आधुनिक जमाने के नए-नए खेलों और बस्तों के बोझ तले कब इन खेलों ने दम तोड़ दिया, कब ये गुम हो गए पता ही नहीं चला। बड़ों के लिए जितना बेवकूफी से भरा हुआ, बच्चों के लिए उतना ही रोचक था यह खेल। बच्चे खड़िया या चॉक जुटाते और शुरू हो जाते । इस खेल में चाहे जितने बच्चे हों, एक साथ खेल सकते थे। सभी के क्षेत्र निर्धारित कर दिए जाते और सभी एक दूसरे से नज़र बचा कर अपने-अपने क्षेत्र में खड़िया से छोटी-छोटी लाइनें खींचते। समय समाप्त होने के पश्चात एक दूसरे की लाइनों को ढूंढ-ढूंढ कर मिटाते और जोर-जोर से चीखते..लीलो लीलो पहाड़िया। जिस बच्चे की जितनी लाइनें शेष रह जातीं उसे उतने अंक मिलते। जिसके सबसे अधिक अंक होते वह सर्व विजेता घोषित हो जाता। जितना समय उतना बड़ा क्षेत्र । लाइन खींचने के चक्कर में ये किस-किस कोने-अंतड़े में पहुंच जाते कहना मुश्किल है। बाहर खेलें तो फिर भी ठीक लेकिन यदि यह खेल घर में चल रहा हो, तीन बच्चों ने घर की तीन मंजिलें बांट लीं हों तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि घर के दरवाजे, खिड़कियों के पल्ले, टेबल के कोने या फिर आलमारियों का क्या हाल होता होगा ! एक स्थान ही इन सब से सुरक्षित होता भगवान जी का मंदिर। मंदिर में जाने की सख्त मनाही थी या भगवान का भय कि ये वहाँ नहीं जा पाते थे वरना भगवान भी याद करते की लीलो लीलो पहाड़िया क्या होता है !


बनारस मंदिरों का शहर है। बनारस की गलियाँ, गलियों में बने प्राचीन घर और लगभग हर घर में मंदिर ! आनंद के घर की तरह श्रीकांत के घर पर भी मंदिर था। यूँ तो अनेक देवी देवताओं की प्रतिमाएं थीं किंतु मुख्य रूप से यह राम मंदिर ही कहलाता था। यहाँ की प्रतिमाएं सफेद संगमरमर के पत्थरों से निर्मित थीं। मंदिर, कुआँ और गौ माता इस घर का विशेष आकर्षण था। आनंद के घर में मंदिर तो था लेकिन कुआँ या गौ माता नहीं थीं । दोनों में प्रायः इस बात के लिए झगड़ा हुआ करता कि किसके भगवान अधिक ताकतवर हैं ! श्रीकांत कहता, “तुम्हारे तो काले कलूटे हैं !” आनंद कहता, “तुम्हारे भगवान के शरीर में तो खून ही नहीं है, कैसे सफेद हैं ! मेरे भगवान की आँखें देखी हैं तुमने ? मेरे भगवान सिर्फ आँखें दिखा दें तो तुम्हारे भगवान डरके भाग जांय !” आँखों के मामले में श्रीकांत चुप हो जाता। आनंद के राम की आँखों से उसे भी भय लगता। शाम के समय भगवान को दीपक जलाना, धूप दिखाना और भोग लगाना यूँ तो अभी आनंद से 5 वर्ष बड़े भैया की ही जिम्मेदारी थी लेकिन यदि वे कभी आनंद को हड़काकर घर गंदा करने या गली में जाकर चीयाँ खेलने की बातें पिता जी के आने पर उनसे बता देने की धमकी देते तो उसे मजबूरी में नीचे जाना पड़ता। एक-एक सीढ़ी वह डरते-डरते उतरता। प्रतिमा से काफी दूर दीवार पर लगे जीरो वॉट के प्रकाश में भगवान की बड़ी-बड़ी आँखें इतनी भयावह लगतीं कि आनंद उन्हें देखना भी नहीं चाहता। कभी-कभी तो वह निगाहें नीची किए मंदिर की ओर डरते-डरते जा रहा होता तभी अचानक बिचली चली जाती, रहा सहा प्रकाश भी चला जाता और मुश्किल से जुटाया आनंद का दम भी निकल जाता। वह जोर से चीखता.."अम्माँ SSS..और फुक्कारें मार कर रोने लगता।" माँ आनंद को दौड़ कर ले आतीं मगर आनंद के भैया की जो पिटाई होती कि वे अपनी सारी ब्लैक मेलिंग भूल जाते।
(जारी...)

11 comments:

  1. हम भी खेलते थे यह गेम, ओर सच मै मजा आता था, बिलकुल वेसे ही जेसे आप ने बताया, धन्यवाद

    ReplyDelete
  2. यह मेरे लिए सुखद आश्चर्य है कि यह खेल आप भी खेलते थे। मैं तो समझता था कि यह खेल हमारे पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही खेले जाते थे। अब तो बच्चों को यह खेल खेलते नहीं देखता। क्या हरियाणा-पंजाब में अभी भी यह खेल खेले जाते हैं ?

    ReplyDelete
  3. ये खेल तो हमने भी खेला है पर नाम शायद कुछ और था फिलहाल याद नहीं आ रहा !
    बच्चों के सारे तर्क स्व की श्रेष्ठता से जुड़े रहते हैं पर ये उन्हें सामाजिकता के प्रशिक्षण के दौरान प्राप्त होते हैं और स्वाभाविक रूप से बाल मन में गहरे पैठ जाते है फिर चाहे भगवान की श्रेष्ठता का विचार हो या आंखों से भय ! बहरहाल संस्मरण / कथा क्रम ? बढ़िया चल रहा है !

    ReplyDelete
  4. achha sansamaran...bahut badhiya lekhan v prastuti.

    ReplyDelete
  5. अरे देवेन्‍द्र भाई हम यानी मध्‍यप्रदेश वालों ने भी यह खेला खेला है। आपकी यादों का खजाना तो निकल रहा है अच्‍छी बात है। पर यह सपाटबयानी के बजाय अगर थोड़े किस्‍सागोई अंदाज में आए तो यही यादें महत्‍वपूर्ण धरोहर हो जाएंगी।

    ReplyDelete
  6. @ राजेश जी,
    किस्‍सागोई अंदाज!
    किस्सागोई अंदाज में बातें बनावटी लगने का खतरा होता है। मुझे लगता है कि सीधी-सरल भाषा में सफल अभिव्यक्ति दिल को कहीं अधिक गहराई से छू पाती हैं। कोशिश करूंगा कि और प्रभावी ढंग से लिख सकूं मगर सामर्थ्य से अधिक क्या किया जा सकता है!
    ब्लॉग पर आने और अपने विचार रखने का शुक्रिया। निसंदेह आपकी पारखी नज़र लेखन में सुधार लाएगी।
    ..आभार।

    ReplyDelete
  7. इसका मतलब यह खेल पूरे हिन्दी भाषी क्षेत्रों में खेला जाता था! अब कहाँ विलुप्त हो गया..!

    ReplyDelete
  8. इन खेलों को लील गई वीडियो गेम्स, अब कम्प्यूटर और फ़िर खेलने को न तो बच्चे रहे अब और न जगहें, है तो सिर्फ़ पैसा।
    तेरे भगवान बड़े या मेरे भगवान......, प्रभु ताना तो नहीं कस रहे हैं ब्लॉग जगत पर?
    सुना था कि बनारस रांड, सांड, सीढ़ी और सन्यासी के लिये मशहूर है, अब तक देख नहीं पाये। मालूम नहीं इनमें से कितनी चीजें अभी भी बनारस की पहचान हैं, लेकिन एक नया फ़ैक्टर तो उभरा ही है, ब्लॉगर्स ऑफ़ बनारस।
    आभार स्वीकार करें, फ़िर से बचपन में ले जाने के लिये।

    ReplyDelete
  9. लीलो लीलो न कभी सुना न खेला -राम जी की बड़ी आंखे देखने की इच्छा बलवती हो आयी है !

    ReplyDelete
  10. अब वे खेल कहाँ? ग्रामीण परिवेश भी आधुनिकता के प्रभाव में आता जा रहा है

    ReplyDelete
  11. अजी अब तो दादी नानी की कहानियां भी लुपत हो गई हे, आज हम आधुनिक बनते जा रहे हे.... प्यार सहानुभुति सब इस खेल की तरह खो गये हे

    ReplyDelete