04 January, 2025

चाय-रोटी

बचपन में हम लोग सुबह के नाश्ते में चाय-रोटी खूब चाव से खाते थे। परिवार बड़ा और कमाने वाले अकेले पिताजी ही होने के कारण हमारा परिवार मध्यम वर्ग में भी गरीब मध्यम वर्ग के बहुत करीब था। 1960-70 के दशक में आवश्यकताएँ समिति थीं, खर्च भी कम था। सारी मेहनत खाने और पहनने के लिए ही होती थी। दवाई के लिए सरकारी अस्पतालें थीं और शिक्षा के लिए सरकारी स्कूल। बड़ी बीमारी होने पर ही प्राइवेट अस्पतालों की ओर रुख किया जाता और उच्च शिक्षा के लिए ही अधिक खर्च आता। हमारे परिवार में न किसी को भयंकर बीमारी हुई न कोई उच्च शिक्षा के लिए विलायत गया । सबका कल्याण सरकारी अस्पतालों और सरकारी स्कूलों से ही हो गया। 


पिताजी के वेतन का बड़ा हिस्सा खाने और पहनने में ही खर्च होता था। पहनने के मामले में भी पिताजी बहुत किफायती थे। वर्ष के किसी एक बड़े त्यौहार में सबके कपड़े सिले जाते, वह दशहरा और दिवाली का समय होता। एक ही खर्च में दो बड़े त्यौहार निपट जाते। कपड़ा भी किसी की पसंद का नहीं सिला जाता। पिताजी ऑफिस से लौटते समय एक ही रंग के पैंट और एक ही रंग के शर्ट के कपड़े खरीद कर दरजी के पास पहुंचा आते और शाम को खाने के समय सूचित करते कि तुम लोगों के नए कपड़े दरजी के पास पहुँच गए हैं, कल जाकर नाप दे आओ। सुनकर हम लोग खुश भी होते और एक दूसरे को देखकर मुँह भी बिचकाते, "वही काला पैंट और सफेद शर्ट।" दर्जी भी पास ही नहीं बैठता था, घर से कम से कम 5 किलोमीटर दूर थी उसकी दुकान। जिसे साइकिल चलानी आती, वह साइकिल से जिसे नहीं आती वह पैदल ही नाप दे आता। 


अब शेष बचा भोजन जिसमें बजट का सबसे बड़ा हिस्सा खर्च होता था। पिताजी भोजन के शौकीन थे इसलिए इसमें कम कंजूसी दिखती थी। सुबह के भोजन में दाल,भात, सब्जी के अलावा चटनी, साग और शाम के भोजन में रोटी सब्जी, अचार और एक कप ही सही दूध, सबको मिल जाता। छुट्टी का स्पेशल दिन छोड़कर, पिताजी के सुबह 9:00 बजे ऑफिस जाने की हरबड़ी और देर शाम घर वापसी के कारण सुबह-शाम का नाश्ता पिताजी के राज्य में नहीं बनता था, इसकी जिम्मेदारी गरीब माँ पर ही थी। शाम को नाश्ते के समय परिवार के बहुत कम सदस्य ही घर पर रहते थे लेकिन सुबह- सबेरे पूरी भीड़ जमा रहती थी। 


प्रायः माँ, नाश्ते में चाय-रोटी ही खिलाती थीं, उनके पास ब्रेड मख्खन नहीं होता था। कभी बहकाने के लिए दो चम्मच देसी घी में रोटी का चूरमा, चीनी मिलाकर दे दिया, लेकिन प्रायः नाश्ते में रोटी-चाय ही रहता था। चाय-रोटी में चाय तो ताजी रहती थी लेकिन रोटी बासी। सुबह सबेरे हम बच्चों को दतुवन-मंजन करने के बाद भूख भी बहुत तेज लगती थी। अम्मा की चाय पकने से पहले, रसोई घर में हम बच्चे, भागोने से रोटी लूट कर मां के इर्द-गिर्द  जमा हो जाते। मां सभी बच्चों के लिए पर्याप्त मात्रा में रोटियाँ रखती थीं, कभी कोई तीन ले लेता, कोई चार  लेकिन माँ की रोटियाँ कभी कम नहीं पड़तीं। बच्चों के आपस में अधिक शोर करने पर माँ सभी बच्चों को पीढ़े पर बिठा देतीं तब जाकर मामला शांत होता।  इधर प्यालों में चाय छनकर आई, उधर चाय-रोटी का नाश्ता शुरू। गरम-गरम चाय में रोटी चुभोकर  खाने में उस समय जो स्वाद मिलता था, वह स्वाद आज के समृद्ध नाश्ते में भी कभी नहीं मिला। 


पक्के महाल की तंग गलियों में घर इतने पास-पास होते कि एक दूसरे के घरों में लोग आसानी से ताक-झांक कर लेते थे। किसने क्या नाश्ता किया, क्या खाया, पड़ोसियों से कुछ भी छुपा न रहता। हमको चाय-रोटी का नाश्ता करते देख, पड़ोसी चिढ़ाते, "ये लोग नाश्ते में चाय रोटी खाते हैं!" मजा यह कि हमको उनका चढ़ाना भी खराब नहीं लगता, हँसकर टाल देते, बस इतना ही कहते, "हमको अच्छा लगता है।"


आज भी जब कभी एकाकी जीवन व्यतीत करना पड़ता है, शाम की अपनी बनाई रोटियाँ धरी रह जाती हैं तो सुबह उठकर एक कप के बजाय दो कप चाय चाय बनाकर, बासी रोटियाँ सुबह-सुबह चाय में डुबो डुबो कर खाने में बहुत आनंद आता है, स्मृतियां ताजी हो जाती हैं, बचपन सामने नाचने लगता है।

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