आनंद 10वीं में क्या आया, उसके सर पर पढ़ाई का पहाड़ चढ़ गया! घर हो या गली, जिसे देखो वही कानाफूसी करता,"ए दां हाई स्कूल हौ!" मतलब इस साल इसकी 10वीं की परीक्षा है। हाई स्कूल मतलब यू.पी.बोर्ड की सबसे बड़ी परीक्षा। पेपर स्कूल के मास्टर नहीं बनाते, बाहर से छप कर आते। परीक्षा अपने स्कूल में नहीं, दूसरे स्कूल में होती। बच्चों पर पहले से इस परीक्षा का इतना बड़ा आतंक था कि वे पढ़ाई के अलावा कुछ भी शरारत करने की सोच भी नहीं पाते, ऊपर से लोगों की फुसफुसाहट आग में घी का काम करती। आनंद का जीना हराम हो गया, शतरंज की अड़ी छूटी, गली का क्रिकेट छूटा, गंगा की तैराकी छूटी, हर तरफ पढ़ाई, पढ़ाई बस पढ़ाई।
हरिश्चन्द्र इंटर कॉलेज में जहाँ वह पढ़ता था, एक गणित के अध्यापक थे 'श्री गुलाब चंद्र लाल'। खेल की तरह गणित पढ़ाते। उनकी कक्षा में आकर आनंद को लगता जैसे शतरंज की अड़ी में आ गए हैं! हर सवाल खेल के नए चाल की तरह सामने आता और सही उत्तर मिल जाने पर लगता कि उसने तो यह बाजी जीत ली! गुरूजी भी कहते, "गणित विषय नहीं, खेल है, जितना मन लगाकर खेलोगे, जीत तुम्हारी होगी।" उनकी बातों का इतना असर हुआ कि हमेशा कक्षोन्नति पाने वाला फिसड्डी लड़का, तेज और पढ़ाकू विद्यार्थियों की श्रेणी में आ गया! गणित के हर टेस्ट में पास। गणित की तरह दूसरे विषयों में तेज नहीं था लेकिन जब तेजू लड़के भी उससे सवाल समझने आते तो दूसरे विषयों में फिसड्डी रहना भी शर्म की बात थी! सभी विषयों की इतनी पढ़ाई तो करनी ही थी कि फेल न हो जांय। एक अच्छा अध्यापक कैसे हवा का रुख बदल देता है, इसका बढ़िया उदाहरण थे आनंद के गुरुजी।
आनंद की मेहनत रंग लाई और जब हाई स्कूल का रिजल्ट निकला तो वह प्रथम श्रेणी में पास हुआ! आनंद विज्ञान का नहीं, कॉमर्स का विद्यार्थी था और उस समय (1978 में) यू.पी. बोर्ड की परीक्षा में आनंद का प्रथम श्रेणी में पास होना बड़ी बात थी। अख़बार में रोल नम्बर, श्रेणी और पास/फेल ही छपा होता। किसने किस विषय में कितना नम्बर पाया? यह 3, 4 दिन बाद जब स्कूल से अंक पत्र मिलता तब मालूम चलता।
आनंद के शतरंज की अड़ी के मित्र यह खबर सुनकर इतने मस्त हुए कि आनंद को कंधे में बिठाकर, माला पहना कर घुमाने लगे! वह यह बताना चाहते थे कि शतरंज खेलने वाला भी प्रथम श्रेणी में पास हो सकता है। आनंद के पिता भी खबर सुनकर खुश थे लेकिन चेहरे पर वही रुखा, गंभीर भाव लिए बोले, "बहुत अच्छा किया, शाम को ईनाम मिलेगा।" पिताजी के हाथ से ईनाम! यह दूसरे सभी बड़े भाइयों के कलेजे में सांप लोटने के लिए एक बहुत बड़ी खबर थी लेकिन सामने से सभी ने हर्ष जताया। उन्हें भी विश्वास नहीं हो रहा था कि गली के आवारा बच्चों के साथ शतरंज खेलने वाला कभी प्रथम श्रेणी में भी पास हो सकता है!
शाम को पिताजी जल्दी घर आए और आनंद को ईनाम दिलाने बाजार ले गए। कंजूस पिता जी साइकिल, मोटर साइकिल या रिक्शे में नहीं ले गए, ले गए हमेशा की तरह पैदल-पैदल। गली-गली, सड़क-सड़क चलते फिर किसी गली में घुस जाते जहाँ बिजली के सामान मिलते थे। आखिर कम से कम एक घण्टे पैदल चलने के बाद एक दुकान के सामने उन्होने रहस्य से पर्दा उठाया, "तुम्हें एक टेबुल लैम्प दिलाना चाहता हूँ, यह आगे तुम्हारी पढ़ाई में मदद करेगा!" कहाँ तो आनंद ख्वाब देख रहा था, एक शतरंज, एक बढ़िया क्रिकेट सेट लेकिन यहाँ .. टेबल लैम्प!
यह आज का जमाना नहीं था कि बच्चे अपने मन की वस्तु के लिए छैला जाते हैं और हारकर पिताजी को उनकी जिद पूरी करनी पड़ती है। उस जमाने में पिताजी के मुख से निकला हर वाक्य ब्रह्मवाक्य हुआ करता था और बच्चे हाँ, जी, के सिवा कुछ कहने की हिम्मत जुटा ही नहीं पाते थे। आनंद ने भी मन मार कर एक टेबल लैम्प पसंद किया और घर आ गया। दिनभर पास होने की मस्ती और शाम के पैदल -पैदल टेबल लैम्प की खरीददारी से वह इतना थक चुका था कि घर आकर टेबल लैम्प जला भी नहीं पाया, खाना खाते ही गहरी नींद सो गया।
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