27 October, 2010

यादें-19 ( तीन जासूस )

यादें-1,यादें-2, यादें-3, यादें-4,यादें-5, यादें-6,यादें-7,यादें-8, यादें-9,यादें-10,यादें-11, यादें-12, यादें-13, यादें-14, यादें-15, यादें-16 , यादें-17,  यादें-18 से जारी.....

            किताबें....किताबें....किताबें....चाहे जैसी भी किताबें हों यशपाल की झूठा सच हो या प्रेमचंद की कायाकल्प, अज्ञेय की शेखर एक जीवनी हो या लौलिता, संभोग से समाधी हो या जेम्स बांड,जासूस विजय हो या राम-रहीम के पॉकेट बुक्स,कुशवाहा कांत की लाल रेखा हो या कॉमिक्स। वे किताबें जो इस उम्र के बच्चे देखना भी पसंद नहीं करते और न ही उन्हें समझने लायक बुद्धी ही विकसित हो पाई थी,पूरी या आधी अधूरी आनंद की आँखों से गुजरती जरूर थीं। आनंद के पिता उसे किताबी कीड़ा कहते थे। मुन्ना और विशाल,आनंद और जंगली के किताबी कीड़ापने को देखकर बहुत खीझते थे मगर धीरे-धीरे राम-रहीम,इंद्रजाल कॉमिक्स और बाल पॉकेट बुक्स चाव से पढ़ने लगे। इसके आगे की लक्ष्मण रेखा आनंद की तरह, उन्होने कभी पार नहीं की।

            जासूसी पॉकेट बुक्स पढ़ते-पढ़ते आनंद को प्रेरणा मिली कि क्यों न वह भी अपने दोस्तों के साथ मिल कर एक जासूसी संस्था खोले और राम-रहीम बाल जासूस की तरह जासूसी किया करें ! बदमाशों को पकड़वा कर पुलिस के हवाले कर दें,देश का भला करें। उसने अपनी इच्छा मुन्ना से बताई,मुन्ना ने विशाल से और अगले ही पल तीनो इस प्रस्ताव से सहमत हो गये। मुन्ना के कमरे में तीनो उदीयमान जासूसों की प्रथम बैठक हुई । संस्था के गठन पर गुप्त मंत्रणा शुरू हुई....
  
मुन्नाः  हम लोग अपनी संस्था का नाम क्या रखेंगे ?

विशालः  तुम्हीं लोग ज्यादा पढ़े लिखे हो, हम तो अब स्कूल जाते ही नहीं…..

आनंदः  क्यों ! तुम भी तो जासूसी किताबें पढ़ते हो, दिमाग तो तुम्हारा भी तेज है !

मुन्नाः पहले यह बताओ कि हम लोग क्या करेंगे ?सबको बोर्ड टांग कर बता देंगे कि हमने एक जासूसी संस्था खोली है, जिसे जासूसी कराना हो हमारे पास आवे ?

विशालः (हंसते हुए) घर वालों को मालूम हुआ तो बड़ी तोड़ाई होगी……

आनंदः  हाँ, बात तो ठीक है। मेरे पिताजी को पता चला तो मेरी खाल ही उधेड़ देंगे ! 
       
मुन्नाः तो मेरे पापा बहुत सीधे हैं !  क्या उनका गुस्सा तुम सब जानते नहीं हो ?   
     
आनंदः  जाने दो, हम कोई जासूसी संस्था नहीं खोलेंगे। इसमें तो बाहर वालों से अधिक घर वालों से ही खतरा है !

विशालः इसमें इतना हो हल्ला मचाने, घबड़ाने की क्या जरूरत है ! जासूसी संस्था  खोलने जा रहे हो, देश भक्ति दिखाना चाहते हो, कोई लूडो या कैरम क्लब नहीं  खोलना है कि मजा ही मजा होगा। किताबों में पढ़ते नहीं हो कि हमेशा जान का खतरा बना रहता है !घर वालों की मार से ही डर गए तो जासूसी क्या करोगे ? जासूसी करने में दिमाग के साथ-साथ साहस भी होना चाहिए।

मुन्नाः बड़े हिम्मती बनते हो ! बेवकूफों की तरह मार खाने में क्या बुद्धिमानी है ?

विशालः इसका सबसे सरल तरीका तो यही है कि हम जासूसी तो करें मगर किसी को यह नहीं बतायेंगे कि हम जासूस हैं !

आनंदः हाँ, यह बिलकुल ठीक है। जासूस ऐसे ही होते हैं बाहर से दिखते साधारण आदमी की तरह, भीतर से खतरनाक होते हैं।

मुन्नाः तभी तो जासूसी कर पाते हैं। पुलिस की तरह एक ही रंग का कपड़ा पहने रहेंगे तो चोर उनको देखते ही भाग नहीं जाएंगे ! पता नहीं पुलिस एक ही रंग का कपड़ा क्यों पहनती है ? चोर के पास सायरन बजा कर क्यों पहुंचती है ?...भाग सको तो भाग रे चोरवा, हम पकड़ने आए हैं !

(तीनो हंसने लगते हैं, गंभार चिंतन करते हैं और संस्था के नाम के बारे विचार करते हुए  सोच में डूब जाते हैं । कुछ समय पश्चात मुन्ना ने ही मौन तोड़ा...।)

मुन्नाः यह बताओ कि संस्था का कार्यालय किसके घर में बनेगा ? संस्था चलाने के लिए पैसा कहाँ से आएगा ? मान लो, हम में से कोई मुसीबत में फंस गया तो उसके लिए भी पैसे वैसे का प्रबंध तो करना ही न पड़ेगा। हम तीनों में से किसी के घर में फोन तो है नहीं कि फोन करके बुला लें.....

आनंदः बस बस । तुम तो मास्टर जी की तरह प्रश्न पर प्रश्न ही कीए जा रहे हो ! प्रश्न ही करोगे कि कुछ उत्तर भी बताओगे ? हम लोगों में से सबसे बड़े हो...हम तो अभी आठवीं में ही पढ़ते हैं, विशाल मान लिया पढ़ने नहीं जाता लेकिन तुम और जंगली तो (अपने होठों को गोल करके दोनों हाथ नचाते हुए) बो.s.s.र्ड की परीक्षा देने जा रहे हो, क्या तुम्हारे गुरूजी ने तुम्हें प्रश्न करना ही सिखाया है ? प्रश्न का उत्तर देना नहीं सिखाया ?

विशालः हाँ, ठीक कह रहे हो....

आनंदः यह तो ऐसे प्रश्न कर रहा है जैसे युधिष्ठिर ने यक्ष से किया था...

विशालः हाँ, जबकि हम लोगों में युधिष्ठिर की तरह सबसे बड़ा यही है..!

मुन्नाः अरे...अरे...पागल हो क्या ! जब प्रश्न ही नहीं रहेंगे तो उत्तर कहाँ से दोगे...? तुम लोग तो उल्टे मुझ पर ही नाराज हो रहे हो !मेरे प्रश्नों का मतलब यह है कि कोई भी संस्था खोलने से पहले, किसी को भी, इन जरूरी प्रश्नों के बारे में गंभीरता से विचार कर लेना चाहिए। तुम्हें तो प्रश्नकर्ता का एहसानमंद होना चाहिए कि उसने तुम्हें उत्तर ढूँढने के लिए विवश किया ! कोलंबस के दिमाग में प्रश्न न उठता तो अमेरिका की खोज कैसे होती ? किसी भी रास्ते पर चलने से पहले उस रास्ते पर आने वाली मुसीबतों का ज्ञान करना ही बुद्धिमानी है। बुद्धिमान व्यक्ति मुसीबत में पड़ने से पहले ही खतरा भांपकर उसके निदान का उपाय ढूंढ लेता है,मूर्ख मुसीबत में फंस जाने के बाद अम्मा-अम्मा चीखता है। क्या तुमने बहेलिया और पंछियों की कहानी नहीं पढ़ी…?

आनंदः वाह-वाह ! कितना बढ़िया समझाया है..! तुम तो हमारे मास्टर जी से भी होशियार हो..!

विशालः हाँ,सो तो है लेकिन इसने अपने उपदेश का अंत भी प्रश्न से ही किया...क्या तुमने बहेलिया और पंछियों की कहानी नहीं पढ़ी ? इसका उत्तर यही है कि हाँ, पढ़ी है। हमें मूर्ख पंछियों की तरह जाल में नहीं फंसना है। जाल में फंसने से पूर्व मित्र की सलाह माननी है।

आनंदः यह कहानी यहाँ पूरी तरह फिट नहीं बैठती । पंछी लालची थे इसलिए जाल में फंस गए । हम तो देश की भलाई के लिए जासूसी करने जा रहे हैं।

मुन्नाः हाँ हाँ, ठीक है..जासूस मियाँ, लेकिन खतरा यहाँ भी कम नहीं है। सबसे अच्छा हो कि हम व्यर्थ बकवास करने के बजाय एक कापी में सब बातें लिखते जांय .....

आनंदः एक तरफ प्रश्न, एक तरफ उत्तर...बिलकुल ठीक रहेगा। कापी-कलम...!

मुन्नाः यह लो...मैने पहले से ही सोच रक्खा था..मैं बोलता हूँ लिखते जाओ..हमें संस्था खोलने से पहले निम्न बिंदुओं पर गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा..

1 संस्था का नाम
2 उद्देश्य
3 संविधान
4 उद्देश्य की पूर्ति के लिए किए जाने वाले कार्य
5 हेड ऑफिस
6 पदाधिकारी
7 कोष की स्थापना

आनंदः (लिखना रोक कर) कोष…! होश में तो हो…! (आँखें चौड़ी करके) कोष मतलब पैसा…! पैसा कहाँ से आएगा..? और यह सब बिंदु कहाँ से मार लाए…?  मैने राम-रहीम की किसी किताब में नहीं पढ़ा..!

मुन्नाः (हंसते हुए) मैं तुम्हारी तरह दिन में जासूस बनने के ख्वाब नहीं देखता हूँ....। संस्था खोलने के लिए किन-किन बिंदुओं पर विचार करना चाहिए, यह मैंने  तुम्हारे ही बड़के भैया की क्रिकेट की संस्था प्रथम एकादश क्लब के रजिस्टर में देखा है...। उसमें तो रजिस्ट्रेशन, ऑडिट जाने क्या-क्या बकवास लिखा था । जो मेरे भी समझ में नहीं आया। वहीं से उतार लाया हूँ । ज्ञान तुम्हारे ही घर में है और ज्ञानी मैं बना हूँ...! हा...हा...हा...!

आनंदः (आँखे फाड़कर, सहमकर देखते हुए) हें..हें..हें..! तुम ने वीरू भैया का रजिस्टर छू लिया ! देखते तो जो मार पड़ती कि सारी हंसी उड़ जाती ! मैं तो उनकी एक भी चीज नहीं छूता, तुमने उनकी मुशुक देखी है ! ‘काशी व्यायाम शाला में रोज सुबह शाम पहलवानी करते हैं । एक थप्पड़ लगाते तो तुम्हारी बत्तिसी बाहर निकल जाती..!

(आनंद की बातें सुनकर और उसका सहमा चेहरा देखकर, मुन्ना-गोपाल दोनों हंसने लगते हैं)
मुन्नाः (हंसते हुए) इतना डरोगे तो क्या खाक जासूसी करोगे ? वो जासूस क्या जिसे अपने ही घर में रखी चीजों का ज्ञान न हो..!

(बा.s.बू.s..s..s... तभी आनंद को अपने घर से पिता की सिंह दहाड़ सुनाई पड़ती है और वह सहम कर खड़ा हो जाता है।)

आनंदः (बाहर देखते हुए) अरे यार, अंधेरा हो गया ! पिताजी भी घर आ गए ! मैं तो चलता हूँ...!

विशालः मैं..मैं क्या लगा रखा है ? अब सभी चलते हैं । मेरे भी पिताजी ढूँढ रहे होंगे...। बातों-बातों में कब शाम हो गई पता ही नहीं चला ।

मुन्नाः हाँ, यह ठीक रहेगा । रात भर में इन बिंदुओं पर खूब जम के सोच-विचार कर लेना....

विशालः खाना खा के छत पर मिलते हैं,.. क्यों ?

मुन्नाः नहीं...! मुझे पढ़ना भी है.! इस साल बोर्ड की परीक्षा है। रात भर खूब सोच लो फिर कल सुबह स्कूल से लौटकर यहीं मिलते हैं।

             गंभीर मंत्रणा के पश्चात तीनो उदीयमान जासूसों की सभा बर्खास्त हुई। सभी अपने-अपने घर चले गए। किसी को रात भर नींद नहीं आई। सभी रात भर करवटें बदलते रहे...भोर में नींद लगी तो ख्वाब में जासूसी करते रहे।
(जारी....)

24 October, 2010

यादें-18 ( किताबी कीड़ा )

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            जंगली के पिता को जासूसी उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था । अपने इसी शौक के कारण वे जंगली को बनारस की इन्हीं तंग गलियों में, रंगीन दास के फाटक पर स्थित सिंघल पुस्तकालयमें किताबें लाने भेजते। आनंद के घर का माहौल भी बड़ा पढ़ाकू टाइप का था। धर्म युग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, कादंबिनी, नववीत, नंदन, पराग जैसी नियमित पत्रिकाएँ, उसके पिता जी दफ्तर से बिना नागा लाते और कार्टून कोना ढब्बू जी, खेल-सिनेमा के मनोरंजक आलेख पढ़ते-पढ़ते घर के प्रायः सभी सदस्यों को पुस्तकें पढ़ने का शौक अनायास ही हो चुका था। दरअसल यह माहौल केवल आनंद के घर का ही नहीं,बल्कि प्रायः हर नौकरी पेशा, पढ़े-लिखे मध्यम वर्गीय परिवारों  के घरों का था। उन दिनों खेल, पुस्तक और सिनेमा प्रमुख मनोरंजन के साधन हुआ करते थे। आम जन दूरदर्शनी संस्कृति से कोसों दूर था । पुस्तके आनंद की कमजोरी बन चुकी थीं। एक किताब पा जाय तो उसे खत्म करके ही छोड़ता था। कोई यह तय करने वाला नहीं था कि कौन पुस्तक पढ़ो, कौन न पढ़ो। जो मिल जाय, जो अच्छी लगे, वही पढ़ना है। जब उसे पता चला कि जंगली, किताबें लाने सिंघल पुस्तकालय जाता है तो वह भी उसके साथ जाने लगा। उसका और जंगली का शुरू-शुरू का साथ सिर्फ किताबों के आदान-प्रदान तक ही सीमित था। पिता को पढ़ाते-पढ़ाते जंगली को भी पुस्तकों की लत लग चुकी थी। उसके पिता उसे पुस्तकें पढ़ने से कभी नहीं रोकते। पुस्तकें क्या ताश, शतरंज खेलने या सिनेमा देखने से भी नहीं रोकते थे मगर शर्त वही कि वे साए कि तरह हर जगह साथ-साथ लगे रहते। उनके लिए बस इतना ही काफी था कि उनके आँखों का तारा जो कर रहा है वह मेरे सामने कर रहा है। कितनी देर तक खेलना है और क्या खेलना है, इसका निर्धारण भी वही करते थे।

                    वह एक ऐसा दौर था जब सिनेमा की कहानियाँ.. आदर्श प्रस्तुत करती थीं, कहानियों के पात्रों का चरित्र बल इतना उज्ज्वल होता था कि चोर, गुंडे, वेश्या, खूनी भी अपने कर्मों के पीछे की मजबूरी सिद्ध करते प्रतीत होते थे।  गीत... दिलकश व प्रेरक लिखे जाते थे, संगीत.. मधुर और गायकों की गायकी.. झूमने के लिए विवश कर देती थी। साहित्य के प्रति आम जनता का रूझान था, छात्रों के पास कोर्स की किताबों के अतिरिक्त दूसरी पुस्तकों को पढ़ने की रूचि व समय, खूब होता था। माता-पिता भी बच्चों को पढ़ते देख कर खुश ही होते थे। बाहरी आबोहवा इतनी जहरीली न थी कि मात्र आवारगी से आनंद जैसे बच्चे चोर-डाकू बन जांय। कभी किसी के बिगड़ने की नौबत आती भी थी तो साहित्य उन्हें संभाल लेता था। गलाकाट प्रतियोगिता,.भौतिक आवश्यकताओं के पीछे अंधे होकर दौड़ने की प्रवृत्ति और दूरदर्शनी संस्कृति ने आम जन को साहित्य से दूर कर दिया। समाज में व्याप्त कटुता, चलचित्रों में दिखाई जाने वाली क्रूरता/अश्लीलता, गीतों में घुलती कर्कशता भी इसी का परिणाम है। संगीत, साहित्य और कला से दूरी का सीधा अर्थ होता है नैतिक पतन, जो हमें आज चहुँ ओर दिखाई पड़ता है।

            आनंद के दुसरे नम्बर के बड़े भाई साहब श्रद्धानंद भी साहित्य प्रेमी थे। वे बांसफाटक स्थित प्रसिद्ध कारमाइकेल लाइब्रेरीके नियमित सदस्य थे। काशी हिंदू विश्विद्यालयसे लौटते वक्त एक-दो उपन्यास लेकर ही घर लौटते थे। आनंद के क्रोधी पिता, जब सबको श्रद्धा भैया की पढ़ाई का बखान कर डांट रहे होते, तो आनंद मन ही मन हंसता रहता था क्योंकि वह वह भली भांति जानता था कि भैया इस वक्त अपने कमरे में बैठकर कौन सी किताब पढ़ रहे हैं ! शायद ही कोई ऐसी किताब होती हो जिसे आनंद ने न पढ़ी हो और उसके भैया ने उसे वापस कर दिया हो। कभी-कभी तो जब्त करके रोके गई हंसी बाहर फूट पड़ती और उल्टे प्रसाद सहित उसी की धुनाई हो जाती, साथ में वचनामृत भी मिलता, समझा रहा हूँ तो हंसता है !...बद्तमीज ! क्यों हंस रहा था बोल..?”  लाख पिटने के बावजूद भी आनंद को सच बताने की हिम्मत नहीं होती थी। अच्छी तरह से जानता था कि यदि बता दिया तो भैया की पिटाई तो होगी ही,.पिता जी के ऑफिस जाने के बाद, भैया उसे कहीं का न छोड़ेंगे।

             आनंद का शौक यहीं तक सीमित हो तो क्या कहना ! वह जंगली के साथ सिंघल पुस्तकालय जाता तो वहाँ से भी एक-दो पुस्तकें, शर्ट के नीचे, पेट से चिपकाकर, बिना बताए ले आता और दूसरे दिन, जंगली से साथ जाकर वापस वहीं रख आता। वहाँ से लाई जाने वाली किताबों में प्रायः इंद्रजाल कॉमिक्स, चंदामामा,  मैंड्रिक, राम-रहीम के जासूसी बाल उपन्यास आदि होते। लाइब्रेरियन भी उसकी आदतें जान चुका था ! आखिर जाने भी क्यों न ? एक दिन की चोरी तो छुप भी सकती है मगर कोई चोरी का धंधा ही अपना ले तो कब तक बचा रह सकता है !   एक दिन लाइब्रेरियन ने बुला कर पूछा, तुम विजयानंदके सबसे छोटे भाई हो न ? फिर  तुम्हें किताबें चुराकर ले जाने की क्या जरूरत है ? दूसरे ही दिन, वापस भी कर देते हो ! तुम चाहो तो वैसे भी उनके नाम से ले जा सकते हो !” आनंद को काटो तो खून  नहीं ! मारे शर्म के गड़ा जा रहा था, अपने दाहिने पैर का अंगूठा धरती में रगड़ते हुए बस इतना ही कह सका,भैया को मत बताइएगा। इसके बाद दुबारा पुस्तकालय तभी गया जब भैया से ज़िद कर के बकायदा अपने नाम की सदस्यता हासिल कर ली। (जारी......) 

19 October, 2010

यादें-17 ( जंगली के पिता )

            मुन्ना का एक सहपाठी था जंगली, जो विशाल के घर के ठीक पीछे रहता था। उसके स्कूल का नाम तो बड़ा अच्छा था धरणी धर सिंह लेकिन न जाने क्यों सभी उसे जंगली कह कर बुलाते थे । था तो वह,मुन्ना’.का सहपाठी लेकिन दोनो के स्वभाव की भिन्नता,पढ़ाई में कट्टर प्रतिद्वंदिता और पिता के कड़े अनुशासन के कारण आपस में अधिक नहीं बनती थी। जंगली एक पढ़ाकू लड़का था। अपने माता-पिता का एक मात्र पुत्र,.उनकी आँखों का तारा। उसके पिता बिजली विभाग में एक मामूली कर्मचारी थे, श्री त्रिलोकी सिंह मगर मोहल्ले में,.सब उन्हें जंगली के पिता के नाम से ही बुलाते थे। उनका एक मात्र स्वप्न था,अपने बेटे को इंजिनीयर बनाना और बिजली विभाग के उसी पद पर बिठाना जहाँ बैठकर उनका अधिकारी रोज उन पर हुक्म चलाता था।
                    वे घूम-घूम कर मोहल्ले में खुले आम कहते, हे देखो, यह मेरा बेटा है, दूसरे आवारा बच्चों की तरह नहीं, जो दिनभर गलियों में घूमते रहते हैं। रात-दिन कड़ी मेहनत करता है। देखना, एक दिन इंजिनीयर बनेगा और जो तुम सब इसे जंगली-जंगली कह कर चिढ़ाते हो ना, हे देखो, बड़का साहब बन कर जब मोहल्ले में आएगा न, तो..हे देखो,..तुम सब उसको सैल्यूट मारोगे..!” मोहल्ले के लोग उन पर हंसते, का मालिक,सबेरे-सबेरे भांग चढ़ा लेहले हौआ का ? शुरू हो गइला ! अरे, तू अपने बेटवा के इंजिनीयर नाहीं, बड़का कलेक्टर बना दा, हमनी के का परेशानी हौ ? ई त खुशी कs बात हौ कि मोहल्ले कs लइका इंजिनीयर बनी लेकिन इतना रूआब काहे दिखावला ? अऊर सब लइका का गदहा हौवन ! जा हटा, दिमाग मत खराब करा ! ई झोला मे का हौ ?“  जंगली के पिता चहक कर बोलते, हे देखो, जिंदा रोहू.s.s.s...तभी न बुद्धि तेज होती है ! तुम सब घास-पात खिला कर सोचते हो कि मेरा बेटा फस्ट आएगा ! ऐसे थोड़े न होता है ! हे देखो, मछली खाता है मेरा बेटा ! तभी न सबसे तेज है। मुन्ना, विशाल, आनंद ये सब दिन भर आवारा गर्दी करते हैं गली में, कैसे  अच्छा  नम्बर लाएंगे ?..हे..देखो..मेरा बेटा अभी पढ रहा होगा।                                                
                  “राम..राम..राम..राम...सबेरे-सबेरे मछली ! छी..छी..! तोहे छू लेहली ! अब हमके फिर गंगा नहाए पड़ी ! जा मालिक, तबियत झन्न हो गयल ! जा पहिले अपने बेटवा के इंजिनीयर बना के आवा।वे फिर चीखते,और नहीं तो क्या, बनेगा ही ! तुम सब लाख जलो, लेकिन हे देखो, एक दिन सब उसको सलाम करोगे।
            ऐसे थे जंगली के पिता और ऐसा था उनका पुत्र प्रेमहे देखो उनका तकिया कलाम था। कई बार तो मोहल्ले के लोग सिर्फ उनकी बातें सुनने के लिए ही उन्हें राह चलते रोक लेते थे। उनका पुत्र मोह सभी के लिए आकर्षण व मनोरंजन का केन्द्र बिन्दु था। वे साए की तरह अपने पुत्र से आठों पहर चिपके रहते थे। जब वह स्कूल जाता या ट्यूशन पढ़ने जाता बस उतनी ही देर उनकी नज़रों से ओझल हो पाता।  हालांकि जंगली की एक बड़ी बहन भी थी लेकिन उन्होने उसे कभी स्कूल नहीं भेजा ! पूछने पर कहते , हे देखो, लड़कियों का जो काम है, सभी तो वो करती है। सिलाई-कढ़ाई जानती है। खाना इतना बढ़िया बनाती है कि हेदेखो,खाओगे तो बस उंगलियाँ चाटते रह जाओगे। का होगा, पढ़ा लिखा के ?   काम भर का तो हम खुद ही पढ़ा दिए हैं   दूसरे के घर जाएगी,   कोई जीवन भर थोड़े न रखना है उसे। हे देखो,  जब मेरा जंगली इंजिनीयर बन जाएगा न.... तो इतने धूम-धाम से शादी करूंगा कि सब देखते रह  जाओगे। लड़का मालदार होना चाहिए! हे देखो, दहेज से इतना लाद देंगे न...कि हमेशा मेरी बेटी को खुश रखेगा ! का होगा पढ़ा के लड़कियों को ? जितना पढ़ाओ आखिर वही चूल्हा-चौका ही तो है उनके नसीब में !  
(जारी....)